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जीवन्मृतः कोऽस्तिनिरुद्यमो यः॥ भावार्थ:-वे पापात्मा जीते जी मरेहुवे मुरदे के समान हैं जो उद्योगरूपी पुरुषार्थ
से रहित हैं। प्रश्नोत्तरी में स्वामी शंकराचार्य जी आज्ञा देते हैं:
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यच्चामोघा वरमधिगुणे नाधमे लब्धकामा॥ (मेघदूत) भावार्थ:- शुभगुण संपन्न महावंशमें उत्पन्न भये महापुरुषके समीप याचना करने पर भी निष्फल होजाय तो भी श्रेष्ठ है, परंतु नीच के समीप याचना करके पूर्ण मनोरथ होना भी न होने के समान है।
॥ श्री पशुपतये नमः॥ र सत्यसनातन दानदर्पण र
अर्थात्बलिदानपत्र नं०३
जिसको श्रीमत् स्वामी परमानन्द भारतभिक्षु
जे नप है अधिकार ले, करे न पर-उपकार । पुनि ताके अधिकारको, पुनः पुनः धिकार॥
विचाररूपी तराजू पर तौल कर
देखने के लिये देवता, असुर और मनुष्य का
कर्तव्य दिखाया है।
डॉ० धारशी गुलाबचंद संघाणी H.L.M.S. के प्रबन्ध से
सुखदेवसहाय जैन प्रिंटिंगप्रेस, अजमेर में मुद्रित
माघ शुक्ला बसंतपंचमी सं०१९७१ धर्म के नाम से होने वाले अत्याचारों का रोकना ही इसका मूल्य है.'
तुलसी हाय गरीबकी कभी न निष्फल जाय। मरी खालके स्वास से सार भस्म हो जाय ॥
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ऐसे श्रीमानों को कोटानुकोट वार धन्यवाद है. जिस प्रकार श्रीमान नैपाल नरेश ने इनकी पुकार सुनी है उसी प्रकार महाराजा इन्दोर ने भी दशहरा के दिन राज और जमीदार के दोनों भैंसों को, जो कई वर्षों से बीसे घायल कर सवारों द्वारा कष्ट देकर मारे जाते थे, इस वर्ष दोनों प्राणियों को अभयदान देकर अक्षय पुण्य को प्राप्त किया है.
विलायतयात्रा से पधारने पर श्रीमान् महाराजा साहब जोधपुर ने भी भैंसों और कई बकरों को अभय दान देकर उन्हीं बकरी और भैसों के मूल्य की मिठाई मंगाकर पुजारी और माताजी के मांसलोलुप भक्तों को खिला कर उनके हृदय में जीवदया का अंकुर उत्पन्न कर इस अक्षयपुण्य रूपी वृक्षकी सुयश रूपी शाखा को समस्त भूमण्डल में इसी अल्पायु में फैलादी, निस्सन्देह हमें ऐसे ही श्रीमानों से देश के कल्याण की आशा है, हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि मनुष्यमात्र को ऐसी सुमति दे और जहां से ऐसे कुकर्म की निवृत्ति हो सज्जनवंद वहां २ से सूचना भेजते रहें।
विज्ञापन ॥ जो सद्गृहस्थ इस पुस्तक को विना मूल्य नहीं लेना चाहे वे नीचे लिखे पते पर छपाई का मूल्य ) और डाकमहसूल ॥ भेजकर भी मंगा सकते हैं
और जो सज्जन इस परोपकारी कार्य में सहायता देना चाहें वे भी नीचे के पते पर यथाशक्ति द्रव्य भेज सकते हैं. इसके अतिरिक्त जो सज्जन लेखक का कार्य तथा तस्वीर, ब्जाक वा लेख देसकें वे भी दे सकते हैं। १-सेठ नागरदास मणीभाई खजांची. आबू पहाड़ (राजपूताना)
३ हरिद्वार कुंभ २-राजवैद्य पं० रामदयालजी, अध्यक्षआयुर्वेदोक्त औषधालय तथा चिकित्सालय,
अजमेर.
भूल सुधार ॥ १-पृष्ठ १५ पंक्षी १० में ग्वाल अष्टमी के स्थान में गो-क्रीड़ा, जो दीपमाला के दूसरे दिन होती है ।
२-पृष्ठ १६ पंक्ती २८ में सरयूपार के स्थान में पटना पार होना चाहिये, सो इस प्रकार स्वयं सज्जन सुधारलें ॥
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॥श्री पशुपतये नमः ॥ बलिदान पत्र नं०३. द्वितीया वृत्ति देवता असुर और मनुष्य का कर्तव्य विचाररूपी तराजू पर तोलकर देखना चाहिये ।
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श्री श्री १०८ श्री नैपालमुकुटमणि | तृणमिव त्याज्यमप्युक्तं परमेष्ठिना ॥४॥ श्री महाराजाधिराज श्री चन्द्र शमशेर | वशिष्ठ ॥ बहादुर आज्ञा देते हैं कि डाक्टर रत्न- भावार्थ:-केवल शास्त्र के आधार दासजी, स्वामीजी से प्रमाण ले आओ, परही निर्णय नहीं करना चाहिये, हम अति निषिद्ध बलिदान को बंद क्योंकि स्वार्थी पुरुषों ने दूधमें पानी करेंगे. डाक्टर साहब! लीजिये श्रीमान् मिला दिया है । जो विचार युक्ति से की भेट कीजिये, वाममार्गी हत्याचा- रहित होता है उससे धर्म की हानि रियों के मंदिरों पर कृपया इसे लगवा होती है। दीजिये।
हे रामचन्द्र ! जो वचनयुक्ति करके दृषणं ज्ञानहीनानां भूषणं ज्ञान- युक्त हो वह बालक तथा मूर्ख से
भी ग्रहण करना और जो वचन चक्षुषाम् ॥ १॥ वज्रसूची उपनिपद् ।।
युक्ति से रहित हो, साक्षात् ब्रह्माजी ___ भावार्थ:-जो ज्ञानरूपी नेत्रसे रहित
का भी हो तो सूखे तृण के समान हैं उनको यह दूपण है और जो ज्ञान
त्याग करना चाहिये । परमेश्वर ने ...रूपी नेत्र से संयुक्त हैं उनको यह |
4 | इसीलिये मनुष्य को बुद्धि दी है। भूषण है।
प्रजापतौ पितरि ब्रह्मचर्यमूषुर्देवा त्यजेद्धर्म दयाहीनं विद्याहीनं गुरूं
मनुष्या असुराः। उषित्वा ब्रह्मचर्य देवा स्यजेत् ।। २ ॥ चाणक्य ।
ऊचुः ब्रवीतु नो भवानिति । तेभ्यो भावार्थ:-दयाहीन धर्म को और हैतमक्षरमुवाच द इति । विद्याहीन गुरुको त्याग देना चाहिये॥ अथ हैन मनुष्या ऊचुः ब्रवीतु नो
केवलं शास्त्रमाश्रित्य न कत्तव्यो हि भवानिति । तेभ्यो हैतमत्तरमुवाच द निर्णयः ॥ युक्तिहीने विचारे तु धर्महा- इति । अथ हैनं असुरा ऊचुः ब्रवीतु नो निर्विजायते ।। ३ ॥ बृहस्पति ।। युक्ति- भवानिति, तेभ्यो हैतमक्षरमुकाच द युक्तमुपादेयं वचनं बालकादपि ॥ अन्य- | इति । तदेतदेषा दैवी वागनुवदति स्त
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( २ )
नयित्नुर्द द द इति । दाम्यत दत्त दय- मार्के के समान चिन्ह देकर छोटे २ बच्चों ध्वम् इति । तदेतत्त्रयं-शिक्षेतदमं दानं के ब्रह्मचर्य व्रत को गिराना, कन्यावत दयामिति । यजुर्वेद "शतपथ ब्राह्मण" को नष्ट करना, पातिव्रत धर्म को रसाकाण्ड १४ । अध्याय ८। ब्राह्मण २॥ तल पहुंचाना, विधवाओं को कलंकित
भावार्थः-जगत्पिता ब्रह्मांजी ने सब कर धर्मवत से दृपित कर उनके गर्भ जीवों को अपने २ कर्मों के अनुसार को गिराना, बाल्यावस्था में विवाह तीन प्रकार की प्रजाओं की सृष्टि उत्पन्न कराना, साठ वर्ष के दृद्ध पुरुष के साथ की थी, सात्विकी,राजसी और तामसी. बाल कन्या का विवाह कराना, जूंठी इन तीनों ही प्रजाओं ने ब्रह्मचर्य को पत्तलों के चाटने वाले हे विषयधारण कर अपने उत्पन्न करनेवाले लोलुप देवताओ ! इन्द्रियों का निरोध पितामह के पास जा निवेदन किया करके कन्या-पाठशाला तथा पतिव्रता कि हमारे कल्याण का उपदेश कीजिये। स्त्रियों के नित्य नियम के वास्ते स्त्री पितामह ब्रह्माजी ने उनको ३ दकारों समाजरूपी मंदिर को स्थापित करो, का उपदेश दिया. यथाः-देवताओं को तबही तुम्हारा कल्याण होगा। दमन, मनुष्यों को दान और दैत्यों जीववातक (राक्षस ) को दया करना।
पुरुषों का कर्त्तव्य । वर्तमान काल के देवताओं
पितामह ब्रह्माजी ने जीवहिंसकों का कर्तव्य ।
को अलुरों की पदवी दी है। कृष्ण वर्तमान काल के देवताओं का कान भगवान् ने ऐसे कुकर्मियों को मूढ़ों की में फूंकना वा कंठी बांधना, माथे पर पदवी देकर आसुरी योनि की प्राप्ति तिलक देना वा छल कपट की कथा कही है “आसुरी योनिमापन्ना मूढा जतथा दो चार पंक्ति वेदान्त की सुनाना न्मनि जन्मनि" वेदव्यासजी ने मच्छी वा हाथ में सूत्र बांधना वा चरण धो- मांस तथा शराब के सेवन करने वालों कर पिलाना, एवं बिना अपराध कान | को धूर्तों की पदवी दी है । सो यह है फाड़कर चेले बनाना, शंख चक्र गदा- सुरां मत्स्यान्मधुमांसमासवं कृसरौदिकों की छाप को अग्नि में लालकर दनम् । धृतः प्रवर्तितं ह्येतन्नैतद्वेदेषु भुजाओं को बिना अपराध दागना, कल्पितम् ॥ महाभारत । शांतिपर्व । छूटा खिलाना, स्टेशनों के पासलों के अध्याय २६५ ॥ गुरु गोविन्दसिंहजी
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ने भी शराबी, कबाबी, व्यभि- जिसने दमन किया था परंतु दुष्टाचारी चारियों को असुरों की पदवी दी है होने से उसी रावण को दशहरे के जैसे- "कुकृत्त कर्म जगत में करही दिन काला मुखकर गधे का सिर तिनको नाम असुर जग धरहीं" गुरु लगा राम लक्ष्मण द्वारा उसको मरवा नानकजी ने जीवहिंसकों को हत्यारे, कर, जला कर इतने पर भी सन्तोष म्लेच्छ और पापियों की पदवी दी है न कर धूली उड़ाना और सनातनजैसे "असंख गलबड हत्या कमाये । धर्म की जय मनाकर रावण जैसे असंख म्लेच्छ मल भन खाये । अत्याचारी को राक्षसों की पदवी असंख पापी पाप कर जाने जोये" जब सनातन धर्म देता है तो वर्तमान हरिभक्त पीपाजी ने ऐसे पापियों के काल के ऐसे दुराचारियों को जो पेट को श्मशानभूमि कहा है “जीव ऐसी राक्षसों की पदवी दे, तो सनाजीव को खाय कर जीव करे व्याख्यान। तनधर्म की इसमें क्या कृपणता है ? पीपाप्रगट देखिये थाली मॉयँ मसाण" सनातन धर्मावलम्बियों को विचाहरिभक्त कवीरजी ऐसे विचारशून्यों ररूपी नेत्रों से देखना चाहिये, कि को दयाहीनों की पदवी देते हैं- मलमूत्र से उत्पन्न भया जो ऐसा
"उस हलाल उस झठका कीन्हों, अपवित्र और प्रतिनिषिद्ध मांस दया दुवांते भागी। कहत कबीर सुनारे उसको वेदमन्त्र रूपी सोने के चमचे सन्तों, आग दुवां घर लागी"। से वा वाममार्ग रूपी लोहे के चमचे ___ दयावान पुरुष इनको दैत्यों की सेवा कसाई की छुरी से देवस्थान पदवी देते हैं, सज्जनवृन्द इनको धि- रूपी मंदिर में मार कर वा चौके रूपी कार की पदवी देते हैं, भारतभिन्नु श्मशान में दाह कर मुखरूपी कुंड ऐसे मांसभक्षक पुरुषों के पेट को में हवन कर रसना रूपी माता को कारस्थान कहते हैं जिसमें कि असंख्य भोग लगा कर या पेट रूपी पिता को मुर्दे दफन किये जाते हैं,रामलीला वाले प्रसन्न कर, ईश्वर के नियम को उल्लऐसे पापात्माओं को राक्षसों की पदवी छन कर तज्जनित कोप से देश का देते हैं, रावण जैसे वेदों के वक्ता ब्राह्मण- सत्यानाश कर विपरीत धर्मियों द्वारा कुलशिरोमणि पुलस्त के पौत्र और अपना उपहास करा कर फिर भारतमहापतापी इन्द्रादि देवताओं को भी वंशी कहाना इससे परे और क्या
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( ४ )
लज्जा वा शोक का स्थान है ! आपके मत पहुंचायो, नहीं तो याद रखना चापूर्वजों ने किस प्रकार से जीवरक्षा | हिये कि जो जिस का मांस खाता का परिचय दिया है सो नेत्र खोलकर है वह उसका मांस अवश्य खायगा, देखिये:
यह ईश्वर का न्याय है यथा:कर्णस्त्वचं शिबिर्मासं जीवं जीमूत- ___यावन्ति पशुरोमाणि पशुगात्रेषु वाहनः । ददौ दधीचिरस्थीनि नास्त्य- भारत । तावद्वर्षसहस्राणि पच्यन्ते देयं महात्मनाम् ॥ १॥
पशुघातकाः ॥ महाभारत ॥ " भावार्थः-कर्णने अपनी त्वचा उता- भावार्थ:-हे भारत ! जितने रोम रकर इन्द्र को समर्पण की, शिबिराजा पशु के शरीर में हैं उतने वर्षों पर्यन्त ने एक कबूतर की रक्षा के वास्ते | पशुघात करने वाले वा खाने वाले अपना शरीर काट २ कर सारा श- वा उसके उपदेश देने वाले आदि रीर बाज को भेट करदिया.जीमूतवाहन आठों पुरुष नरकरूपी अग्नि में पड़े राजा ने एक नाग (सर्प) की रक्षार्थ हुए पकाये जाते हैं । यदि तुम अपना अपना शरीर गरुड़ को अर्पण कर कल्याण चाहो तो, पितामहजी ने आप दिया था, दधीचि ऋषि ने अपना लोगों को दकार से जीवों पर दया शरीर देवताओं को अर्पण किया, करने का उपदेश दिया है अर्थात् जिस शरीर की हड्डी आदिकों का | लूले, लंगड़े, दुःखी, दीन, न बोलने अस्त्र बनाकर दुष्ट दैत्य को मारकर वाले तथा मूखे तृण, पत्तों को खाकर जीवमात्रं का कल्याण किया, ऐसा
अमृततुल्य पदार्थों को देनेवाले जो हैं, कोई पदार्थ भारतवर्ष में नहीं था, जो उनकी भली प्रकार से रक्षा करो, तभी परोपकार के वास्ते नहीं दिया जासके
| तुम्हारा कल्याण होवेगा। अर्थात् दशरथ राजा ने अपने प्राणों __मनुष्यों का कर्तव्य । से प्यारे राम लक्ष्मण को ऋषि इसी प्रकार पितामहने मनुष्यों को विश्वामित्र जैसे भारत भिक्षुक के याच दकार से दान करने का उपदेश दिया ना करने पर यज्ञ रक्षार्थ समर्पण किये। है। बलवान् पुरुषों का दान यह है कि इसी प्रकार एक भारतभिक्षक की प्रा. अपने से निर्बल, हीन, दुखी, असर्थना है कि परस्पर (आपस) में किसी हाय जीवों की रक्षा करना सो सतजीव को विना अपराध क्लेश (दुःख) युग में राजा बलिने एक दीन तथा
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अवस्थाहीन (असमर्थ) वामनजी को वाले, राजरूपी सर्वसिद्धियों के सुखों दान दिया था, जिसका कि चित्र आप के चाहने वाले पुरुषों को उचित है कि लोगों के दृष्टिगोचर है, इसी को ईंट पत्थर के देवता को त्याग कर बलिदान कहते हैं। यही चार अक्षर सर्वव्यापी ईश्वर की प्रसन्नता के बली पुरुषों का दान सर्वमान्य प्रामा- निमित्त अहिंसारूपी परमपुष्प, ब्रह्मणिक मानना चाहिये । और ऐसे चर्य धारण कर, इन्द्रियों का निरोध, उत्तम अर्थ को त्यागकर स्वार्थान्ध दया, क्षमा और ज्ञान ये पांच पुष्प पुरुषों ने सर्वोपयोगी मृक, असहाय भगवान् को समर्पण कर पश्चात् यह जीवों को अनेक प्रकार के जीतेजी। बलिदान करना चाहिये सो बलिकष्ट पहुंचाकर अर्थात् जीते जीवों का दान यह है:हाथों से चमड़ा चीरना वा गले की कामक्रोधौ विघ्नकृतौ वलिं दत्वा जपं त्वचा उतारना तथा गले की दोनों चरेत् । मालावर्णमयी प्रोक्ता कुण्डली. बाजू खून की नसों को खींच २ कर सूत्रयंत्रिता ॥ महानिर्वाण तन्त्र ॥
और नसों को काटकर खून को भावार्थ:-फिर काम क्रोधादि जो इंट पत्थरों के देवता पर चढ़ाना, दुष्ट संपूर्ण सिद्धियों के नष्ट करने वाले पश्चात् उसका गला काटना, उसके |
हैं इनको बलिदान देकर भगवान् द्वारा देवताओं को प्रसन्न करना, यह
| का जप, कीर्तन, गुणानुवाद गायन अथ बालदान शब्द का करालया ह करो । इस प्रकार कुण्डलीसूत्र में इस अर्थ को त्याग कर हे स्वार्थान्ध!
गुंथी हुई माला ही श्रेष्ठ है । प्रमादके वशीभूत, हे वाममार्गियो !
दान देना ही मनुष्यजन्म की सफअत्याचारियो ! जो तुम ईश्वर की प्रसन्नता वा महान् सुख की इच्छा
लता है सो जैसा कि श्रीकृष्ण भगवान् चाहते हो तो पत्र पुष्पादि से पूजा ।
ने कहा है सो यह है:करो, सो पत्रपुष्प ये हैं:
दातव्यमिति यदानं दीयतेऽनुपकाअहिंसा परमं पुष्पं पुष्पमिन्द्रिय- रिणे । देशे काले च पात्रे च तदानं निग्रहः । दयाक्षमाज्ञानपुष्पं पञ्चपुष्पं सात्विकं स्मृतम् ।। ततः परम् ॥ महानिर्वाण तन्त्र ॥ भावार्थ:-दान देना ही मनुष्य का * भावार्थ:-कल्याण की इच्छा वाले मुख्य कर्तव्य है, ऐसा विचार कर या संपूर्ण सिद्धिरूपी सुखों को चाहने | जो बिना उपकार किसी ( अन्नाश्रित
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दीन दुःखी जीवों ) को दिया जाय, हरिभक्तों की सभा में प्रतिज्ञापूर्वक देश ( जिस स्थान में आप खड़े वा भी देना चाहिये ।। बैठे हैं वा चलते हैं अथवा असमर्थ एवं छःप्रकार के दान की भगवती होकर लम्बे पड़े हैं ) काल (जिस श्रुति ने आज्ञा दी है, सो दान के काल में आप के हृदय में दान देने पात्र ये हैं:का संकल्प स्फुरण हुअा ) पात्र ( अ
. दान के पात्र । पने समीप हो वा ग्राम में वा बहुत
(१) सबसे प्रथम दाम संसारमात्र दूर हो परन्तु सुपात्र हो ) उसको वहां
की रक्षा करनेवाला, आठों वसुओं के श्रद्धापूर्वक पहुंचा देना सात्विकी
तेज करके संयुक्त ईश्वर का विशेष अंशदान है । अथात् इवर का प्रसन्नता रूप राजा है उसकी आज्ञा पालन करना, को प्राप्त होता है।
तथा आपत्काल में उसको सर्वस्व दान ___ दान देने की श्रुति में भी आज्ञा देना चाहिये, क्योंकि संसार की मर्यादा है, यथा-श्रद्धया देयम्, अश्रद्धया देयम्, को स्थापित करने वाला अर्थात मनुष्य श्रिया देयम्, हिया देयम्, भिया देयम्, से लेकर पशु पक्षी वा वनस्पति पर्यन्त संविदा देयम् । तैत्तिरीयोपनिषद् ॥ सब की पुकार को श्रवण करने वाला
भावार्थः-(१) दान श्रद्धापूर्वक राजा ही है, यदि आपत्काल में उस देना चाहिये।
राजा को दान, मान आदि से सहायता (२) दान अश्रद्धा से भी देना
नहीं दी जावे तो सत्पुरुषों की मर्यादा चाहिये ।
| को नष्ट भ्रष्ट करने वाले दुष्ट जनों से (३) दान शोभा के लिये भी
कौन बचा सक्ता है ? दुष्टों को दान करने
में राजा ही समर्थ है, जिस राजा को देना चाहिये।
जीवमात्र पर समदृष्टि से उचित ( ४ ) दान लज्जापूर्वक भी देना
शासन करने के लिये ईश्वर ने ही चाहिये।
स्थापित किया है, छोटे से छोटे राजा (५) दान रोगभय, राजभय,
को लेकर चक्रवर्ती पर्यन्त जो राजा जातिभय, मृत्युभय आदि सभा दना पक्षपात रहित होकर अपने शरीर व चाहिये ।
अपने पुत्र के समान प्राणीमात्र की (६) सज्जन और विद्वानों तथा पुकार को श्रवण करता है उस राज
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( ७ )
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की जड़ पाताल में और शाखा दशों दिशाओं में विस्तार को प्राप्त होती हैं और जो राजा स्वार्थ के वशीभूत होकर पक्षगत से दीन दुःखियों की पुकार को नहीं सुनता है वह कुपथ्यसेवी रोगी के समान दीर्घ काल पर्यन्त दुःखका अनुभव करता है
(४) चौथा दान - जो संपूर्ण संसार के सुख की उत्पत्ति तथा संपूर्ण दुष्ट व्यसनों की निवृत्ति का परमपूज्य स्थान जो ब्रह्मचर्याश्रम है उस में देना ।
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( २ ) दूसरा दान - जो मातृभूमि की सेवा करने वाले हैं उनको देना चाहिये क्योंकि ऐसा दुःसाध्य कार्य करने में मनुष्य की सामर्थ्य नहीं हैं इस वास्ते ये भी विशेष रूप करके ईश्वर के ही अवतार हैं । मन कर के उनके शुभचिन्तक होना, वाणी से उनके गुणानुवाद गाना, तन और धन तो सज्जनों की चरणों की धूली के समान है इसका तो समर्पण ही क्या है अर्थात् तन, धन तो इनके ऊपर से वारकर के फेंक ही देना चाहिये ।
( ३ ) तीसरा दान - नानाविधानि कर्माणि कर्त्ता करविता च यः । सर्वधर्म विधिज्ञश्च सवै आचार्य उच्यते ||
भावार्थ:--अष्टादशवेद विद्याके प्रस्था नों को जाननेवाला, नाना प्रकार के कर्मोपासना और ज्ञान अर्थात् सम्पूर्ण संसारमात्र का व्यवहार तथा परमार्थ को करने कराने वाला आचार्य कहलाता है उसे देना ।
( ५ ) पांचवां दान- वेदादि सत्यशास्त्रों का जो देवनागरी भाषा में प्रचार करके मुफ्त में बांटते हैं वा कम कीमत में देते हैं उन्हें देना ।
( ६ ) छठा दान -- अनाथाश्रम वालों को जोकि दुष्ट व्यसनादि कर्मों से बचाकर धर्म वा अर्थ की शिक्षा देते हैं उन्हें देना ।
( ७ ) सातवां दान - पातिव्रता धर्म की रक्षा करने के लिये स्त्रियों के नित्य नियम पूजापाठ के निमित्त स्त्रीसमाज रूपी मंदिर स्थापित करने को देना, क्योंकि इन्हीं के पेट से अवतार ऋषि मुनि, हरिभक्त, धर्मवीर, दानवीर तथा महावीर उत्पन्न होते हैं । यदि इनके नित्यनियम के स्थान ( मंदिर ) वा भंडारी, कोठारी रसोइया आदि अलग न हों तो दुष्टों के संसर्ग ( संगत ) के दोष से डरपोक, नपुंसक, कृपण, मूर्खादि दुष्ट सन्तान उत्पन्न होकर देश का नाश करती है ।
(८) आठवां दान- विधवाश्रमों को देना, इसके न होने से वेश्याओं की वृद्धि, यवनों की वृद्धि, व्यभिचार की
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वृद्धि, हत्या द्वारा पाप की वृद्धि, रोग भगवान की यादगार रखने वाले हैं। शोक की वृद्धि और कृश्चियनों की वृद्धि, (१२) बारहवां दान-महामंडल भारत सन्तान की हानि, भारतधर्म आदि जो पक्षपात रहित उपदेश की की हानि, भारतधन की हानि यदि वृद्धि करने वाले हैं उनको देना। व्यभिचार से पकड़े जायं तो अपने
(१३) तेरहवां दान-कुष्ठि रोगमान धन की हानि, दुष्टजनों द्वारा
ग्रसिताश्रम को देना । दोनों को मरवाने से हानि, गर्भ के
(१४) चवदहवां दान-पागल प्रकाश होने से कुल मर्यादा की हानि,
आश्रम को देना। भारत संतान उच्च कुल वालों के वीर्य
(१५) पन्द्रहवां दान-अंधों के की नीच कुल में जाने से हानि, दुष्टों
| आश्रम को देना। द्वारा गर्भपात होने से हानि ।
(१६) सोलहवां दान-धर्मार्थ (६) नववां दान-कन्या पाठशा- औषधालय तथा अस्पताल आदि ला को देना, जिसके न होने से विप- को देना। रीत धर्मियों के निकट कन्याओं को (१७) आयुर्वेद के जीर्णोद्धारक भेजने से भारतधर्म का जो आचरण अर्थात् वनस्पतियों के प्रादुर्भाव करने है वह नष्ट होता है।
वालों को देना। ___ (१०) दशवां दान-संपूर्ण विद्याओं (१८) जिस देश में भारतभिक्षु की वृद्धि के निमित्त पुस्तकालय, उप- विद्या, तप, सत्य उपदेश के निमित्त देश भवनों के निमित्त देना तथा जिन निवास करते हैं उनको अन्न वस्त्र मंदिरों में दुष्ट कर्म नहीं होते सदैव । और निवासस्थान की सहायता कथा, कीर्तन, संध्या, अग्निहोत्रादि देने वाले जो हरिभक्त हैं उनको देना। नित्यकर्म होते हैं उनका जीर्णोद्धार (१६) जिस स्थान में यात्रिआदिकरना।
कों को निवासस्थान का कष्ट हो __ (११) ग्यारहवां दान-भारतवर्ष के वहां उनके लिये धर्मशाला, बगीचा हुनर और कारीगरी कला कौशलादि वा तालाव, वावड़ी, कूप, प्याऊ वा की वृद्धि करना चाहते हैं उन भारतीय | मार्ग सुधार कराना वा वृक्ष लगवाना, विश्वविद्यालय तथा महाविद्यालय पुल बंधवाना, अन्नक्षेत्र में अर्थात् जहां आदि को देना क्योंकि विश्वकर्मा सुपात्र वा दीन दुःखियों को अन्न
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मिलता है, अन्धेरे में दीपकादि रोशनी सहायता करनी चाहिये, उनको दान इत्यादि में धन को लगाना। देने से कोटिगुणा पुण्य होता है, माता ' (२०) जहां दुर्भिक्षरूपी आपत्ति- के गोत्रवालों को दान देने से सौगुणा काल है, अर्थात् महामारी, भूकम्प, पुण्य होता है और निज गोत्र वालों अग्नि, जलका अति वर्षना वा न वर्ष को देने से अक्षय पुण्य होता है । ना और डाकू, चोर श्रादिकों से होने (२४ ) दरिद्रान्भर कौन्तेय मावाले दुःखों के शान्ति के लिये अन्न प्रयच्छेश्वरे धनम् । चस्व ओषधि निवासस्थान आदि देने भवार्थ:-हे अर्जुन ! दीन और चाहिये।
दुःखियों का भरण पोषण करो और (२१) जहां जीवदया का प्रचार धनवानों को दान मत दो अर्थात् इस करने वाले हैं उनको देना, क्योंकि का भाव यह है:-महाराज श्रीकृष्ण मूक और असहाय जीवों की पुकार को कहते हैं कि हे अर्जुन ! जो तप से ईश्वररूपी राजा तक पहुंचाना उन्हीं - हीन हो उनको तपस्वी बनाओ, जो से होता है।
विद्याहीन हो उनको विद्या देशो __ (२२) जागऊ आदि मूक असहाय
और जो अन्न वस्त्र हीन हो उनको रोगग्रसित पशुओं की रक्षा की जाती अन्न वस्त्र देशो, जो रोगग्रस्त हों उनको है वहां देना।
औषधि प्रदान करो, जो कारीगरी (२३) न केवलं ब्राह्मणानां दानं आदि हुनर से रहित हैं उनको कला सर्वत्र शस्यते । भगिनी भागिनेयानां कौशल में निपुण करो, जो अनाथ हों मातुलाचां पितृस्वसुः ॥ दरिद्राणां च उनको सनाथ करो, जो हृष्टपुष्ट होकर बन्धूनां दानं कोटिगुणं भवेत् । मातृ- जप तप विद्या से रहित हैं उनको काम गोत्रे शतगुणं स्वगोत्रे दत्तमक्षयम् ॥ में लगाओ, जो बालक बालिकायें ___ भावार्थ:-केवल ब्राह्मणों को ही ब्रह्मचर्य धर्म से रहित हैं उनको दान देना श्रेष्ठ है ऐसा नियम नहीं है, ब्रह्मचर्याश्रम में भरती करो। जो व्यभिकिंतु बहिन, भानजा,मामा, भूवा,अपने | चारादि व्यसनों से ग्रसित हैं उनको सपिंड वा श्वसुर वा इष्ट मित्रादि भी सदाचारी बनाओ, परन्तु धनवानों को यदि दरिद्री हों तो अवश्यमेव धन, दान मत दो अर्थात् ठाकुरजी को अन्न, वस्त्र वा स्थान आदि से उनकी छप्पन भोग लगाकर बाजार में खे
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जाकर अछूत जातियों से हुआकर अप- दरिद्रियों को दान देखो सो ही दान वित्रस्थान में रखकर उस अन को फलदायक होता है। जो वेचने वाले हैं उनको धन मत दानं दरिद्रदीयते सफलं पाण्डुनन्दन । दो, क्योंकि सब से अति अपवित्र जो (२६) सुपात्रदानाच्च भवेद्धमांस मदिरा है सो भी ऊंचे स्थान नान्यो धन प्रभावेण करोति पुण्यम् । पर रखकर बेचते हैं तब अन जैसे
पुण्य प्रभावाच्च दिवं प्रयाति पुन पदार्थ और ठाकुरजी के भोग का मामला परेवगी। निरादर करने वालों को जो दान देते हैं मानो नरक का मार्ग अपने वास्ते
भावार्थ:--सुपात्रों को दान देने स्थापित करते हैं, उन भोग के अत्र
से दाता धनवान होता है और धन को खाना भी महा पाप है क्योंकि शुभ कमा में खर्च करने से स्वर्ग मिलता कैसे २ कुकर्मी वहां जाकर ठाकुरजी है इस प्रकार वार २ धनवान् होकर को चढ़ाते होंगे-मच्छियों के पकड़ने रोग शोकादि से रहित होकर उस वाले वा पक्षियों को पकड़नेवाले वा धन को भोगता है । पशु पक्षियों को मारनेवाले वा मच्छियों वशिष्ठस्मृतिके समुद्र का ठेका लेनेवाले चोर, (२७ ) योगस्तयो दमादानं सत्यं डाकू, खूनी, व्यभिचारी पुरुष तथा शौचं दया श्रुतम । विद्याविज्ञानमाव्यभिचारिणी स्त्रियों वा वेश्या आदि- स्तिक्यतनामण लक्षणम् ॥ कों का भी धन ठाकुरजी को चढ़ाया
भावार्थ:-(१) योग के अष्टाङ्ग जाता है, इसलिये सद्गृहस्थों को
कोसिद्धकर समाधि में स्थित होनेवाला उचित है कि अपने घर में ठाकुरजी
(२) कृच्छुपान्दारणादि व्रत को धारण की मूर्ति को वा अभ्यागतरूपी विष्णु
करने वाला (३) मन सहित इन्द्रियों को वा दीन दुखी अनाथों को देकर
को जीतने वाला (४) परोपकारार्थ ( भोग लगाकर ) सदैव भोजन करना चाहिए । जो इस भोग के दिये विना
। दान देने वाला (५) हित और मितखाता है वो पापात्मा मलमूत्र को
संयुक्त सत्य का बोलने वाला (६) खाता है ऐसा श्रीकृष्णजी कहते हैं। बाहर मांस मदिरादि व्यभिचार का
( २५) वीर ब्रह्मचारी क्षत्रिकल त्याग और अन्दर राग द्वेषादिकों का भूषण भिष्मपितामह कहते हैं-हे त्यागने वाला (७) संपूर्ण जीवमात्र पाण्डकुलभूषण धर्मपुत्र युधिष्ठर ! पर दया करने वाला (८) सपूर्ण
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( ११ )
वेद वेदांगों को जानने वाला ( ६ ) पाताल से लेकर आकाश पर्यन्त की समस्त भूगोलादि विद्याओं का जानने वाला ( १० ) मनुष्य से लेकर ब्रह्मा पर्यन्त संपूर्ण को अपने आत्मा के समान जानने वाला ( ११ ) ईश्वर अतिथि वेद और पुनर्जन्म में विश्वास रखने ..बाला आस्तिक इन ग्यारह लक्षणों से युक्त ब्राह्मण ही दान का अधिकारी है ।
इसी प्रकार श्रीकृष्ण भगवान् ने भी नवगुणयुक्त को ब्राह्मण कहा है ।
इसी प्रकार कुलदीपिका में भी नंब लक्षणयुक्त को ब्राह्मण कहा हैदानपात्र (अधिकारी) । किं कुलेन विशालेन विद्याहीनेन देहिनाम् | दुष्कुलं चापि विदुपो देवै - रपि सुपूज्यते ॥
( २८ ) जो महान् पुरुष विद्या वा दैवी संपत्ति वा परोपकार में अपना जीवन व्यतीत करते हैं ऐसे पुरुषों का जो मन, वाणी वा शरीर से सत्कार करना है वह ही उत्तम दान है ।
( २६ ) दान अपनी जाति की वृद्धि वा व्यापार की वृद्धि वा अविद्या करके मूर्च्छित जो भारतवर्ष है उसको चैतन्य करने वाले संजीवनी बूटीरूपी जो अखबार हैं उनको देना ।
भावार्थ:-- जो विद्याहीन उत्तम कुल क्षत्री ब्राह्मणादि हैं उनसे मनुष्यों को संसार में क्या धर्म अर्थ का लाभ होता है और नीच से नीच कुल का भी यदि विद्वान् गुणवान् हो तो देवताओं से भी पूजित होता है। तो मनुष्यों को उसके आदर सत्कार करने में क्या कृपणता है जैसे व्यास - बाल्मीकि नीच जाति में उत्पन्न होकर अनेक ऋषि मुनि भारद्वाजादिकों के गुरु हुए हैं ।
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(३०) सबसे श्रेष्ठ दान यह है कि जो प्राणीमात्र को अभयदान देना है, यथाः— प्राणदानात्परं दानं न भूतं न भविष्यति ॥
भावार्थ:- इस संसार में जो प्राणीहै ऐसा दान भूत, भविष्यत् वर्त्तमान मात्र को प्राणदान ( जीव दान) देता काल में और दूसरा दान नहीं है ।
(३१) कुपात्रों को दान देनेवाला दाता पत्थर की नौका ( नाव ) में बैठकर पापरूपी समुद्र में डूबता है सो यह है :
- कुपात्रदानाच्च भवेद्दरिद्री दारिद्र्यदोषेण करोति पापम् । पापप्रभावान्नरकं प्रयाति पुनर्दरिद्री पुनरेव रोगी ।। भावार्थ:: - कुपात्र किसका नाम है सो श्रवण कीजिये - ( १ ) विद्याहीन, ( २ ) विद्वान होकर भी कुकर्मी, (३)
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(१२)
अपहीन, (४) तपहीन, (५) संध्या- आदि में नाचने वाला, ८-पैसा लेकर ग्निहोत्र रहित, (६) स्वार्थी, (७) पढ़ाने वाला,ह-पैसा लेकर औषधिकरघेश्यासक्त, (८) विषय लोलुप, (8) ने वाला, १०-देवता का पुजारी,११-- प्रमादी, (१०) छली, (११) कपटी, ज्योतिषी,१२-चिट्ठी बांटने वाला हल(१२) द्वेषी, (१३) मिथ्यावादी, कारा, १३-शूद्रों का गुरू, १४-अप्रिय (१४) भांग तमाखू गांजा सुलफा बोलने वाला, १५-खेती करने वाला, अफीम और शराब तथा मांस जूया १६-घृत तैलादिक बेचनेवाला, १७चौपड़ सट्टा आदि दुष्ट व्यसनों के व्याज लेकर जीविका करनेवाला, १८सेवन करने वाला, (१५) निन्दक, व्यापार करनेवाला, १४-माता पिता (१६) कृतघ्न, (१७) कान में फूंकने की. सेवा रहित, २०-अग्नि लगाने चाला, (१८) विश्वासघाती। वाला २१-गर्भ गिराने वाला, २२इत्यादि कुपात्रों को दान देने से
विष देनेवाला, २३-झूठी गवाही देने दाता दरिद्री होता है और दरिद्रता
वाला, २४-मद्यपान करनेवाला, २५के प्रभाव से पापकर्मों से जीविका
मित्र से द्रोह करनेवाला, २६-चुगली करता है उन पापों के प्रभाव से अनेक
करनेवाला, २७-हिंसा करनेवाला, दुःखरूपी नरकों को प्राप्त होता है,
२८-हिंसा का उपदेश करनेवाला. २६इसी प्रकार कारंवार दरिद्री और पुनः
नित्यपति भिक्षा मांगने वाला, ३०-- पुनः नाना प्रकार के रोगों करके
उत्तम पुरुषों करके जो निंदनीय
हैं जो भागवतादि कथा सुनकर पतिक्लेश पाता है । पुनः मनुभगवान्जी
व्रता स्त्रियों से चरण दक्वाते हैं तीसरे अध्याय में श्राद्ध करनेवालों
ऐसे मनुष्यों को देव तथा पितृको पात्र कुपात्र का निर्णय करके
श्राद्धादि कार्यों में भोजन नहीं कराना वर्णन करते हैं।
चाहिये, ऐसे मनुष्यों को मनुजी देव, सो निर्णय यह है:-१-जो वेद विद्या पितृ श्राद्ध कार्यों में अन्न का भी निषेध रहित है, २-जो अपने धर्म से भ्रष्ट है, | करते हैं जब अन्नमात्र का निषेध मनुजी ३-जुवा आदि खेलने वाला, ४-पशु करते हैं तो नाना प्रकार के दान ऐसे पक्षी और कुत्तों को पालने वाला,५-पं- कुपात्रों को क्यों देना चाहिये क्योंकि घयज्ञों से रहित, ६-वेद और ब्राह्मणों जिस धर्मकार्य में १००००००दशलाख फी निंदा करने वाला, ७-रासलीला मूखों के भोजन कराने से जो लाभ होता
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(१३)
है वो एक विद्वान् के भोजन कराने जिनके निमित्त हम ईश्वर को साक्षी से मिलता है, मनु०अ०३। श्लोकह॥ रखके करते हैं वह उन्हीं को मिलेगा का श्लोकः-विद्यातपः समृद्धेषु हुतं विप्रमु.
हमको मिलेगा जो शुभ अशुभ कर्म खाग्निषु । निस्तारयति दुर्गाच महतश्चैव
किया जाता है वही कर्म निष्फल नहीं किल्विषात् ३।१८। अर्थ:-विद्या और
होता, हां, हमारी यह मूर्खता है कि तप से संयुक्त ब्राह्मणों के मुखरूप
हम पात्र कुपात्र को न विचारकर जो । अग्नि में श्राद्धरूपी अन्न का हवन
कार्य करते हैं उसका फल उपहासकरने से महान् पाप और आपत्तियों
रूप निंदा के पात्र होते हैं। से बचता है १४४। श्लोक म० अ०३।। पुनः देखिये व्यावर में श्री - सर्व वेद और वेदों के अर्थ को रघुनाथजी के मंदिर में देवी-भागवत जानने वाला तथा उनही का उपदेश तृतीय स्कंध ३ अध्याय १० पृष्ठ ६६ करनेवाला तथा ब्रह्मचर्य को धारने में लिखा है कि उस राजा को धिक्कार वाला और यदि ऐसा सपात्र न मिले है जिसके राज्य में मूर्ख ब्राह्मणों की तो गुणवान् मित्र को श्राद्ध में भोजन
पूना, दान, मान से होती है जहां मूर्ख कराना चाहिये।
और पंडित का भेद न हो वहां जानना कितनेक सनातनधर्म को न चाहिये कि राजा भी मूर्ख है क्योंकि मानने वाले नवयुवक कहते हैं कि दुजेनों की विभूति दुष्टों के अर्थ होती श्राद्ध न करना चाहिये सो श्राद्धादि अ
है जैसे कटु नीम के फल मलमूत्र-भक्षक घश्यमेव करना चाहिये क्योंकि जिस
कौओं के अर्थ होते हैं जो कोई शुभ के करने से माता पिता आदिकों के
कम्मों से फल चाहता हो वह मूर्ख उपकार की स्मृति होती है और दूसरा
ब्राह्मण को आसन पर न बिठावे और यह है कि उनके निमित्त से हमारे
राजा उसको शूद्रों के समान हल चौका घर से कुछ पुण्याथे निकलता है तीसरा
| वरतनादि के कर्मों में लगावे । जब एक पैसे का पोष्टकार्ड वा मनी- | महाभारत शांतिपर्व में क्षत्रीकुलआर्डर अनेकों स्थानों में फिरकर भी भूषण वीर-ब्रह्मचारी भीष्म-पितामह उसी को मिलता है जिसके कि नाम बाणों की शय्या पर विराजमान हो पर भेजते हैं, यदि वह न मिले तो कर धर्मपुत्र युधिष्ठिर के प्रति कहते चापिस हमें ही मिलता है इसी प्रकार हैं कि हे धर्मपुत्र युधिष्ठिर! मूर्ख ब्राह्मणों
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( १४ )
को शूद्रों के समान कार्य में लगाना वीतराग से रहित, अर्थात् मनुष्य से चाहिये । लेकर ब्रह्मापर्यन्त जो लौकिक सुख हैं उनको जो काकविष्ठा के समान -समझकर नहीं त्यागता, (४) शमादि मन सहित इन्द्रियों के दमन करने से जो रहित है, ( ५ ) गुण अर्थात् दैवी संपत्ति गुणों से रहित है ऐसे ऊपर कहे हुए लक्षणों से जो रहित साधु वा ब्राह्मण है और भिक्षामात्र से जीवन करते हैं वे मनुष्य वर्त्तमान में पशु के समान हैं और मरे पीछे पापी पुरुषों के प्राप्त होने योग्य जो नरक हैं उनमें जाकर नरकरूपी दुःख को दाताओं के सहित भोगते हैं । पुनः तीनकाल की संध्या, उपासना, अग्निहोत्र, पूजापाठ आदि नित्य नियम को त्याग कर स्टेशनों पर जाकर तीन संध्यारूपी तीन गाड़ी - डाक, पसींजर, लोकल के यात्रियों को साथ लेकर अनेक स्थानों में भटका २ कर धर्म के नाम से उनसे धन उपार्जन कर के सप्तव्यसनादि दुष्ट कर्मों में लगाने वालों को जो दाता धन देते हैं सो यजमान गुरू दोनों शास्त्र में कहे हुए पापात्माओं को प्राप्त होने योग्य जो स्थान (नरक) हैं उनको प्राप्त होंगे, गुसाईं तुलसीदासजी कहते हैं:"हरहिं शिष्यधन शोक न हरहिं, . ते गुरु घोर नरक में परहिं"
और भी देखिये -
मूर्खा यत्र न पूज्यन्ते धान्यं यत्र सुसंचितम् | दम्पत्योः कलहो नास्ति तत्र श्रीः स्वयमागता ।।
भावार्थ:-जिस देश में, जिस ग्राम में वा जिस घर में सप्त व्यसनी मूखाँ का सत्कार नहीं होता और उनको दानादि नहीं दिया जाता है और जिस देश में, जिस ग्राम में, जिस घर
तीन वर्ष, दा दो वर्ष वा एक वर्ष का भी अन्न संचित रहता है और जिस देश, जिस ग्राम, जिस घर में स्त्री पुरुषों में परस्पर प्रीति ( स्नेह ), मैत्री आदि सद्भाव हैं वहां लक्ष्मी स्वयं
कर के विराजती है और सुखम्पत्ति को बढ़ाती है जिस देश में यह ऊपर कहे हुए प्रसंग नहीं हैं वह देश रसातल को पहुंचता है |
पुनः ।
तितिक्षाज्ञानवैराग्य शमादिगुणवर्जितम् । भिक्षामात्रेण जीवन्ति ते नरा पशुवत् किल ॥
भावार्थ:- (१) तितिक्षा, जो शीतो. ध्ण, भूख, प्यास, सुख दुःख इन्हों के न धारने वाला (२) ज्ञान, जो बेदादि विद्या से रहित, ( ३ ) वैराग्य जो
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(१५)
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कवीर कलजुग के ब्राह्मण-मांस
गणेशपूजामछलियां खायं । पांव पड़े राजी रहे श्री गणेशजी का वाहन मूसा मने करे जलजा।
( अंदरा ) उसको भी लम्बे चौड़े सज्जनगण थोड़ा और भी देखियेः
तिलकधारी और पढ़े लिखे हुए पेट
में आहुति देते हैं और सनातन- जो सनातनधर्म का पवित्र स्थान
धर्म महामंडल के प्रधान शिरोमाण जिसका नाम हरिहर क्षेत्र है, काति
श्री श्री १०८ महाराजाधिराज श्री की पूर्णमासी के पर्व पर छोटे २
रमेश्वरप्रसादसिंहजी की जन्मभूमि बकरी के लाखों बच्चे उठा २ कर
दरभंगा के पास ग्राम चौहटा( स्टेशन गंगा की बहती धारा में फूलों के
कमतौल) ग्राम में बस्ती के सब ब्राह्मण समान चढ़ाये जाते हैं और ग्वाल अष्टमी के दिन गांव २ में शहर २ में लाखों
लोग माघ शुक्ला ५ के पश्चात् रवि
वार की रात को एक बड़े मकान सूअरों की पिछली टागों को बांध
के भीतर सब एकत्र होकर धर्मकर और गौओं के समूह के बीच में उन
| राज का पूजन करते हैं सो पूजन सूअरों को गौओं के मत्थे पर ब्राह्मण |
यह है कि दो २ चार २ वा दश २ वर्ष लोग फेंकते हैं और उन गौओं को चमका कर उन सूअरों को कई घंटे
के बकरे जिनके अण्डकोष प्रथम से तक गौओं के सींगों से पटकवाते और
ही निकाल कर धर्मराज के निमित्त
रक्खे हुए थे उन बकरों को सौ दोसौ पैरों की लातों से मरवाते हुए प्राण लेते हैं, विचाररूपी नेत्रों से रहित
चारसौ पांचसौ धर्मराज के सन्मुख और दया शून्य पुरुष देखकर प्रसन्न
लाकर न्याय कराते हैं अर्थात् उन होते हैं और इसी प्रकार जीवित क
बकरों को घास काटने की दांतली
के साथ उनके गर्दनों को काट २ कर छुए को भगवान् का अवतार मानकर जलती २ अग्नि के ऊपर उलटा रख
धर्मराज के सन्मुख शिर स्थापित कर कर उस को भूनते हैं और पेट को भोग
पीछे उन सब शिरों को उसी मकान लगाते हैं इसी प्रकार जीती मच्छी को
में रात ही रात में दफन करके अपने भी भुट्टे के समान अग्नि में भूनते हैं ।
स्थान को जाते हैं प्रातःकाल उठते
ही निर्दइयों के समान उनकी खाल और भी देखियेः
उतारकर उन खालों के रोमों को - तिरहुत-निवासी सनातनियों की चौके की चिता में दाह करके त्वचा
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के सहित सब मांस को पकाकर सब कच्छादि अवतार मानकर उनको मिलकर के मुखरूपी श्मशान में दाह जल-तुरैई कहकर भक्षण करते हैं। करके पश्चात् शेष मांस जो बचजाता
और भी देखियेःहै उस मांस को उसी मकान के भीतर | अवतारत्रयं विष्णोर्मैथिली कवली गाड़कर फिर अपने २ स्थान में चले कृतम् । इति संचित्य भगवान्नारसिंह जाते हैं।
। वपुर्दधौ ॥ और भी देखिये:- __ भावार्थः विष्णु भगवान् संसार सनातन धर्मियों की दुर्गापूजा। के कल्याण के वास्ते ३ अवतार धारण
इसी मिथिला देश के निवासियों करके कच्छ, मच्छ, वराह ( सूकर) को ईंट पत्थर के देवताओं के सामने रूपसे प्रकट हुए, परन्तु उन मैथिली चैतन्य देवतारूपी बकरे के गले का ब्राह्मणों ने संसार में वीरता दिखलाने पुजारी-रूपी कलियुगीसिद्ध की छाती के वास्ते अपने इष्टदेव अवतार-रूप पर काट २ कर उस की धड़ की नस कच्छ, मच्छ, वराह को मारकर उन्हें को भक्तजन सिद्ध के मुख में लगाकर पेट में भस्म करदिया, तो विष्णु भगखून ( रक्त )को पिलाते जाते हैं ऐसे वान् ने फिर दुष्टों के नाश और भक्तों अनेकों बकरों के खून को एकही की रक्षा करने के लिये नरसिंह शरीर मनुष्य पी जाता है जिस देश में धारण किया, परन्तु मैथिली ब्राह्मणों ऐसे २ निर्दयी खून पीनेवाले राक्षस
के फिर भी अविद्यारूपी नेत्र नहीं रूपी सिद्ध रहते हैं उस देश का
| खुलते । इसीप्रकार कान्यकुब्ज ब्राह्मण क्यों न कल्याण होवे ।
भी भगवान् को व्यापक मानकर और इसी प्रकार जब श्रीमहाराज सा.
उसी व्यापक का अवतार दुष्टों के नाश क्षात् अष्टमी की पूजन में सैकड़ों बकरे के वास्ते मानते हैं और फिर भी उसी स्वयं कटवाते हैं तब निरपराध दीन भगवत् सृष्टि का नाश करते हैं । बकरों की पुकार कौन सुने. इसी देश ___ कान्यकुब्जा द्विजाः सर्वे सूर्या एव में सूअरों को खानेवाले उनको ऐसी
न संशयः । मीन मेषादिराशीनां भोदुर्गति से मारते हैं कि जिसको देखकर कारः कथमन्यथा ॥ रोम खड़े होजाते हैं और भी उपरोक्त भावार्थः-कान और कुब्ज ये दोनों मैथिल देश सरयूपार के निवासियों तेजस्वी ब्राह्मण अयोध्या में मर्यादाका कर्चव्य देखिये-जो कि मच्छ पुरुषोत्तम रामचन्द्र के यज्ञ में प्राप्त हो
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(१७)
कर अनेक विद्वानों के बीच में ब्रह्मतेज आश्रम और कान्यकुब्न-महामंडल का परिचय दिया अर्थात् शास्त्रार्थ में स्थापित करदें तो पूर्व की नाई सूर्य सर्वोपरि रहे और ब्रह्मचर्य का जो | की पदवी फिर इनको प्राप्त होगी. . प्रभाव अर्थात् वरि-धर्म का सर्वोपरि
। चम्बा राजधानी में श्री मर्यादापरिचय दिया अर्थात् सब योद्धाओं
पुरुषोत्तम राम की विजयादशमी दशहरे को मर्दन कर अपना बल दिखाया
के दिन एक भैंसे को सिंदूरादि से और पश्चात् रामचन्द्रजी ने इनको सूर्य
शृंगार करके नदी के किनारे सब की पदवी दी “सर्वेसूर्या एव न संशयः"
राजा प्रजा एकत्र होकर यमराज के ऐसा वाक्य कहकर प्रदान की, पश्चात्
वाहनरूपी भैंसे को बलात्कार से रामचन्द्रजी ने इनको बहुत द्रव्य देना
कूट २ कर उसे पकड़ कर गंभीर चाहा, परन्तु इन्होंने किचित् मात्र भा वेग वाली बहती हुई नदी के प्रवाह ग्रहण नहीं किया इनकी यह प्रतिज्ञा
| में चढ़ाते हैं अर्थात् कई हज़ारों आदमी थी कि हम महर्षियों की सन्तान हैं हम
लाठी और पत्थरों से मार २ कर अपने उद्योग से द्रव्य उपार्जन कर उसको नदी के पार जाने के लिये पूर्व अतिथि सत्कार वा अनेक प्रकार के
प्रयत्न करते हैं देवयोग से यदि वह उपकार में लगाकर पीछे अपने शरीर
नदी के पार निकल गया तो मानो का पालन पोषण करते हैं हमारी यह
हमारी आपत्ति दुःख सब दूर होगया प्रतिज्ञा है कि हम किसी का प्रतिग्रहरूपी
ऐसा उनको विश्वास है यदि बहतार मलको न उठाकर अपने ब्रह्मतेजकी रक्षा
डूब जाय वा फिर पीछा गांव में करेंगे। उन्हीं की औलाद वर्तमान काल
आजाय तो अपना अभाग मानते हैं में अति अपवित्र मांस, मच्छी आदि
इससे परे और अविद्या अज्ञान कहां ईंट पत्थर के देवता के बहाने पेट में
से लाना चाहिये ।. . मुर्दो को दफन करने लगे, इसी. वास्ते देवता के क्रोध से इन और भी देखिये:-सिंध देश में के गले में भैयागिरि लटकादी है. सनातनधर्म के पुरुष स्टेशन पर स्टेशन अपनी जाति, गोत्र और मातृभूमिका रोटी गोश्त करके बेचते हैं और हिंदुजो गौरव मान बड़ाई थी उसे भूल गये ओं के होटल में मुसलमानों की रोयदि यह अभी भी उसे याद करके टियां बिलायत के बिस्कुट आदि अपनी मातृ-भूमि कनोज में ब्रह्मचर्य | बेचते हैं और मुसलमानों की झूठी
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प्यालियां चाह की हाथ से उठाते हैं हि- ( बहादुरी) दीन्हीं"। न्दु होकर मुसलमानों व कृश्चिनों के हो! टट्टी की ओट में बैठकर मृगा. टलों में खाते हैं और फिर भी कहते हैं | दिक खरगोश वा तीतरों का शिकार कि हम सनातन धर्मावलम्बी हैं इससे परे वा देवता के बहाने भैंसे बकरे काटते शोक और आश्चर्य क्या होसक्ता है। हैं और उन मुरदों को पेट में दफन और भी देखियेः
कर कहते हैं कि हम क्षत्री हैं, क्षत्री राजपूताना (मालवा) आदि देशों नाम तो छाया का था अर्थात् प्रजा में जो भारत बीरों की सन्तान क्षत्री | को नाना प्रकार के क्लेशों से बचाने रूपी राजा हैं उनका कर्त्तव्य देखिये के लिये था । देखिये-जिस समय कि दशहरे के दिन यमराज के वाहन इन्द्र ने अभिमान कर अति वर्षा का रूप भैंसे को खूब शराब पिला, प्रारंभ किया उसी समय कृष्ण भग. सिंदूर लगा कर लाखों पुरुषों के बीच वान् ने गोवर्धन पर्वत को सब से में उसके पेट में बरछी मारकर उसको | छोटी चिटली अंगुली पर उठाकर चमका उसको मैदान में भगाकर उसके वृजमात्र के पशु पक्षी की रक्षा कर पीछे घुड़सवारों को दौड़ाकर चौतरफ | क्षत्री-वंश का परिचय दिया था । से घेर तलवार वा भालों से उसका ऐसे वीर-ब्रह्मचारी क्षत्री-वंश को शिकार करते हैं. सज्जनगण देखिये ! ये | कलंकित करने वाले धृत लोग कहते वोही क्षत्री वंश हैं जिनको जीव-यात्र हैं कि “वह बहुत स्त्रियों को रखने की रक्षा और दुष्टों के नाश करने के वाला व्यभिचारी था " उन धृता वास्ते ईश्वर की आज्ञासे ऋषि मुनियों ने का यह कहना विलकुल निष्फल है भारत में राजारूप करके स्थापित किया क्योंकि उनका जन्म ही धर्म की रक्षा था, परन्तु यहां बड़ा आश्चर्य है कि यही के निमित्त और दुष्टों के नाश के वास्ते राजलोग मुर्गी तीतरादिक पक्षियों को | था सो गीता में भली-भांति दर्शाया है। अपने चौके में गरम पानी में उबला क्षत्री तो "एका नारी सदा ब्रह्मचारी" कर प्राण लेते हैं और अपनी जठराग्नि को शांत करते हैं।
याददास्त. "चार यार जो चदै शिकार, मक्खी श्री नैपालमुकुटमणि आज्ञा देते हैंघेरी बीच बजार, मारी नहीं पर लं- डाक्टर रत्नदासजी ! स्वामीजी से पूछो गड़ी कीन्हीं, बड़ी खुदा ने फत्या | और क्या फर्माते हैं.
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डाक्टर रत्नदासजी-स्वामीजी ! जन्म भी लेवे तो अल्पायु होता है आपकी क्या आज्ञा है अर्थात् सेवा के थोड़ा जीवे तो भी दुर्बल इंद्रियोंवाला पास्ते क्या चाहिये ?।
| ( कमजोर ) ही रहता है इस कारण स्वामीजी-१ दुर्गति के साथ जीवों
पूर्ण ब्रह्मचर्य के धारण किये विना का बध बंद कराना, २-मादक वस्तुओं
विवाह कदापि नहीं करना चाहिये के प्रचार को बंद कराना, ३-ब्रह्म
श्रुति भगवती तथा धन्वंतरी भगवान् चर्याश्रम का पालन कराना, ४-बाल
की आज्ञा को उल्लंघन करके जो दुष्ट विवाह वृद्धविवाह तथा बहुविवाह को
पापात्मा अाना स्वार्थ वा विषयाशक्ति बंद कराना, २५ वर्ष का पुरुष और १६ को पूर्ण करना चाहते हैं वह सब देशों वर्ष की कन्या के विवाह का प्रचार का सत्यानाश करने वाले हैं। कराना, सो यह है:--
सत्यहीना वृथा पूजा सत्पहीनो त्रिंशद्वर्षः षोडश वर्षी भार्या वि
वृथा जपः । सत्यहीनं तपो व्यर्थ पूषरे :न्दते नग्निकामः । इति श्रुतिः। जिस वपनं यथा ॥ सत्यरूपं परं ब्रह्म
कन्या का सोलह वर्ष पर्यंत ब्रह्मचर्य | सत्यं हि परमं तपः। सत्य-मूलाः क्षीण नहीं हुआ उस कन्या के तीस
क्रियाः सवाः सत्यात् परतरो नहि ।।
सत्यव्रताःसत्यनिष्ठा सत्यधर्मपरायणाः। वर्ष के पुरुष के साथ विवाह करने की
कुजसाधनसत्या ये नहि तान् बाधते श्रुति की आज्ञा है ब्रह्मचर्येण कन्या
कलिः ॥ युवानं विंदते पतिम् । अथर्व० काण्ड ___ धर्म की आज्ञा प्रवर्तन कराना यही ११॥ कन्या ब्रह्मचर्य से परिपाक युवा अतिथि सत्कार है और किसी वस्तु अवस्था में युवापति को प्राप्त हो ।। की ज़रूरत नहीं है. यथा-रघुकुल रीति ऊनषोडशवर्षायाम-प्राप्त पंचवि. समोरया
. सदाचल आई। प्राण जाय पर वचन शतिम् । यद्याधत्तेपुमानूगर्भ कुक्षिस्थः
| मेरे अपराध को आप लोग क्षमा स विपद्यते॥६७ जातो वा न चिरंजीवे करेंगे. सनातनधर्म महान् समुद्र रूप है, ज्जीवेद्वादुर्बलेंद्रियः ॥ तस्मादत्यंत-बा- इस में से विंदुमात्र आप लोगों की लायां गर्भाधानं न कारयेत् ॥ ६८॥ सेवा में भेनता हूं जो मनुष्यमात्र को सोलह वर्ष की अवस्था से छोटी स्त्री उपयोगी है. और पच्चीस वर्ष की अवस्था से छोटा
प्राणीमात्र का शुभचिंतकपुरुष गर्भाधान करे तो वह गर्भ कुत्ति स्वामी परमानन्द भारत-भिक्षक. ही में विकार को प्राप्त होता है और सन्त-सरोवर आत्मतीर्थ, खण्डित होजाता है यदि पूरा होकर । आबू पर्वत (राजपूताना).
| न जाई ॥
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ALS
स्वामी परमानर अनजिन सात सदर आर्ट
आउ राजभुताना
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सनातन धर्मकी ओट में बैठकर अत्यन्त घोर अत्याचार करनेवाले पुरुषों की क्रूरताको श्रीनपाल महाराजने श्रवणकर अपने हृदयरूपी रजिस्टरमें धारण किया है और एक भारत भिक्षुकने इसहिंसारूपी फोड़े की निवत्ति का उपायरूप यह मल्लम पट्टीरूपी लेख द्वारा प्रकाशित किया है सो मनुष्यमात्र को हृदय में धारण करना चाहिए। क्षत्रियकुलभूषण वीर ब्रह्मचारी भीष्म पितामहजी कहते हैं:सप्तद्वीपां सरत्नां च दद्यान्मेरु सकाञ्चनम् । यस्य जीवदया नास्ति सर्वमेतन्निरर्थकम् ॥ भावार्थ:-हे धर्मपुत्र युधिष्ठिर ! इस संसारमें सातों द्वीप सोने चांदी हीरे पन्ने आदि की खानि सहित दान करदो परन्तु जिस दुष्ट के चित्त में दया-देवी का निवास नहीं है उसका सब जन्म कम धमे निष्फल है।
देखिये भारतवर्ष के इतिहासों के द्वितीय सूर्य पण्डित गौरीशंकर हीराचंदजी अोझा क्या कहते हैं:
श्रीयुत महाराज स्वामी परमानंदजी ! मैंने आपका बलिदानपत्र नं०३ द्वितीयावृत्ति का पढ़ा तो कई नई बातें मालूम हुई. यदि जीवों को दुःख दे दे। कर मारने की प्रथा इस देश से उठ जावे तो बहुत ही अच्छा है. आपने अनेक स्थलों में जीवों की दुर्दशा करके उनको मारने के जो उदाहरण दिये हैं वे रोमांच खड़े करदेते हैं, यदि कोई मांस गने के लिये जीवहिंसा करता है तो एक दम प्राण लेलेता है परंतु धर्मका नाम लेकर दुःख दे देकर कई घंटों के बाद प्राणी को मारना यह मनुष्यधर्म नहीं है । इस पुस्तक को मनुष्यमात्रको देखना चाहिये।
भवदीय
गौरीशंकर ओझा, प्राणीमात्र का शुभचिंतक. श्रीमत्परमहंस परिव्राजकाचार्य श्री
स्वामी परमानन्दजी भारतभिक्षु.संत
सरोवर आत्मतीर्थ, बाबूपहाड (राजपुताना)
Page #24
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________________ इस कार्य में नीचे लिखे हुए सद्गृहस्थों ने सहायता दी है उन को धन्यवादहैःश्रीमान् माननीय पं० मदनमोहनजी मालवीय मेम्बर वायसराय कौन्सिल प्रयाग ने प्रथम कापी अपनी उदारता से छपवाई. पत्ये नास्ति मयं कचित् ॐ श्रीपशुपतये नमः। रु०१०१) सेठ मंगूमल जसासिंह शिकारपुर (सिन्ध) 101) सेठ टोपणसिंह मोटूमल हैदरावाद (सिन्ध) 51) सेठ रामदेव फूलचन्दजी ब्यावर. अहिंसा परमो धर्मः ॐ श्रीवीतरागाय नमः। ओ३म् / रु० 101) राय सेठ चांदमलजी घनश्यामदास अजमेर. रायबहादुर सेठ नेमीचन्दजी अजमेर. 101) पं० वंशीधरजी शर्मा वकील हाई कोर्ट अजमेर. शेष पुन: रु० परोपकाराय व विनय श्रीमत्परमहंस परिम्राजकाचार्य श्री स्वामी परमानंदजी भारतभिक्षु. संतसरीवर आत्मतीर्थ, आबू, जोगी जंगम जोवत जत्ती, साध सेवड़ा सेवत सत्ती / ग्यांनी गिणत इसी को गत्ती, भगवत यही यही भगवती / भजकल० //