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लज्जा वा शोक का स्थान है ! आपके मत पहुंचायो, नहीं तो याद रखना चापूर्वजों ने किस प्रकार से जीवरक्षा | हिये कि जो जिस का मांस खाता का परिचय दिया है सो नेत्र खोलकर है वह उसका मांस अवश्य खायगा, देखिये:
यह ईश्वर का न्याय है यथा:कर्णस्त्वचं शिबिर्मासं जीवं जीमूत- ___यावन्ति पशुरोमाणि पशुगात्रेषु वाहनः । ददौ दधीचिरस्थीनि नास्त्य- भारत । तावद्वर्षसहस्राणि पच्यन्ते देयं महात्मनाम् ॥ १॥
पशुघातकाः ॥ महाभारत ॥ " भावार्थः-कर्णने अपनी त्वचा उता- भावार्थ:-हे भारत ! जितने रोम रकर इन्द्र को समर्पण की, शिबिराजा पशु के शरीर में हैं उतने वर्षों पर्यन्त ने एक कबूतर की रक्षा के वास्ते | पशुघात करने वाले वा खाने वाले अपना शरीर काट २ कर सारा श- वा उसके उपदेश देने वाले आदि रीर बाज को भेट करदिया.जीमूतवाहन आठों पुरुष नरकरूपी अग्नि में पड़े राजा ने एक नाग (सर्प) की रक्षार्थ हुए पकाये जाते हैं । यदि तुम अपना अपना शरीर गरुड़ को अर्पण कर कल्याण चाहो तो, पितामहजी ने आप दिया था, दधीचि ऋषि ने अपना लोगों को दकार से जीवों पर दया शरीर देवताओं को अर्पण किया, करने का उपदेश दिया है अर्थात् जिस शरीर की हड्डी आदिकों का | लूले, लंगड़े, दुःखी, दीन, न बोलने अस्त्र बनाकर दुष्ट दैत्य को मारकर वाले तथा मूखे तृण, पत्तों को खाकर जीवमात्रं का कल्याण किया, ऐसा
अमृततुल्य पदार्थों को देनेवाले जो हैं, कोई पदार्थ भारतवर्ष में नहीं था, जो उनकी भली प्रकार से रक्षा करो, तभी परोपकार के वास्ते नहीं दिया जासके
| तुम्हारा कल्याण होवेगा। अर्थात् दशरथ राजा ने अपने प्राणों __मनुष्यों का कर्तव्य । से प्यारे राम लक्ष्मण को ऋषि इसी प्रकार पितामहने मनुष्यों को विश्वामित्र जैसे भारत भिक्षुक के याच दकार से दान करने का उपदेश दिया ना करने पर यज्ञ रक्षार्थ समर्पण किये। है। बलवान् पुरुषों का दान यह है कि इसी प्रकार एक भारतभिक्षक की प्रा. अपने से निर्बल, हीन, दुखी, असर्थना है कि परस्पर (आपस) में किसी हाय जीवों की रक्षा करना सो सतजीव को विना अपराध क्लेश (दुःख) युग में राजा बलिने एक दीन तथा