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की जड़ पाताल में और शाखा दशों दिशाओं में विस्तार को प्राप्त होती हैं और जो राजा स्वार्थ के वशीभूत होकर पक्षगत से दीन दुःखियों की पुकार को नहीं सुनता है वह कुपथ्यसेवी रोगी के समान दीर्घ काल पर्यन्त दुःखका अनुभव करता है
(४) चौथा दान - जो संपूर्ण संसार के सुख की उत्पत्ति तथा संपूर्ण दुष्ट व्यसनों की निवृत्ति का परमपूज्य स्थान जो ब्रह्मचर्याश्रम है उस में देना ।
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( २ ) दूसरा दान - जो मातृभूमि की सेवा करने वाले हैं उनको देना चाहिये क्योंकि ऐसा दुःसाध्य कार्य करने में मनुष्य की सामर्थ्य नहीं हैं इस वास्ते ये भी विशेष रूप करके ईश्वर के ही अवतार हैं । मन कर के उनके शुभचिन्तक होना, वाणी से उनके गुणानुवाद गाना, तन और धन तो सज्जनों की चरणों की धूली के समान है इसका तो समर्पण ही क्या है अर्थात् तन, धन तो इनके ऊपर से वारकर के फेंक ही देना चाहिये ।
( ३ ) तीसरा दान - नानाविधानि कर्माणि कर्त्ता करविता च यः । सर्वधर्म विधिज्ञश्च सवै आचार्य उच्यते ||
भावार्थ:--अष्टादशवेद विद्याके प्रस्था नों को जाननेवाला, नाना प्रकार के कर्मोपासना और ज्ञान अर्थात् सम्पूर्ण संसारमात्र का व्यवहार तथा परमार्थ को करने कराने वाला आचार्य कहलाता है उसे देना ।
( ५ ) पांचवां दान- वेदादि सत्यशास्त्रों का जो देवनागरी भाषा में प्रचार करके मुफ्त में बांटते हैं वा कम कीमत में देते हैं उन्हें देना ।
( ६ ) छठा दान -- अनाथाश्रम वालों को जोकि दुष्ट व्यसनादि कर्मों से बचाकर धर्म वा अर्थ की शिक्षा देते हैं उन्हें देना ।
( ७ ) सातवां दान - पातिव्रता धर्म की रक्षा करने के लिये स्त्रियों के नित्य नियम पूजापाठ के निमित्त स्त्रीसमाज रूपी मंदिर स्थापित करने को देना, क्योंकि इन्हीं के पेट से अवतार ऋषि मुनि, हरिभक्त, धर्मवीर, दानवीर तथा महावीर उत्पन्न होते हैं । यदि इनके नित्यनियम के स्थान ( मंदिर ) वा भंडारी, कोठारी रसोइया आदि अलग न हों तो दुष्टों के संसर्ग ( संगत ) के दोष से डरपोक, नपुंसक, कृपण, मूर्खादि दुष्ट सन्तान उत्पन्न होकर देश का नाश करती है ।
(८) आठवां दान- विधवाश्रमों को देना, इसके न होने से वेश्याओं की वृद्धि, यवनों की वृद्धि, व्यभिचार की