Book Title: Balidan Patra No 003 1915
Author(s): Parmanand Bharat Bhikshu
Publisher: Dharshi Gulabchand Sanghani

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Page 11
________________ मिलता है, अन्धेरे में दीपकादि रोशनी सहायता करनी चाहिये, उनको दान इत्यादि में धन को लगाना। देने से कोटिगुणा पुण्य होता है, माता ' (२०) जहां दुर्भिक्षरूपी आपत्ति- के गोत्रवालों को दान देने से सौगुणा काल है, अर्थात् महामारी, भूकम्प, पुण्य होता है और निज गोत्र वालों अग्नि, जलका अति वर्षना वा न वर्ष को देने से अक्षय पुण्य होता है । ना और डाकू, चोर श्रादिकों से होने (२४ ) दरिद्रान्भर कौन्तेय मावाले दुःखों के शान्ति के लिये अन्न प्रयच्छेश्वरे धनम् । चस्व ओषधि निवासस्थान आदि देने भवार्थ:-हे अर्जुन ! दीन और चाहिये। दुःखियों का भरण पोषण करो और (२१) जहां जीवदया का प्रचार धनवानों को दान मत दो अर्थात् इस करने वाले हैं उनको देना, क्योंकि का भाव यह है:-महाराज श्रीकृष्ण मूक और असहाय जीवों की पुकार को कहते हैं कि हे अर्जुन ! जो तप से ईश्वररूपी राजा तक पहुंचाना उन्हीं - हीन हो उनको तपस्वी बनाओ, जो से होता है। विद्याहीन हो उनको विद्या देशो __ (२२) जागऊ आदि मूक असहाय और जो अन्न वस्त्र हीन हो उनको रोगग्रसित पशुओं की रक्षा की जाती अन्न वस्त्र देशो, जो रोगग्रस्त हों उनको है वहां देना। औषधि प्रदान करो, जो कारीगरी (२३) न केवलं ब्राह्मणानां दानं आदि हुनर से रहित हैं उनको कला सर्वत्र शस्यते । भगिनी भागिनेयानां कौशल में निपुण करो, जो अनाथ हों मातुलाचां पितृस्वसुः ॥ दरिद्राणां च उनको सनाथ करो, जो हृष्टपुष्ट होकर बन्धूनां दानं कोटिगुणं भवेत् । मातृ- जप तप विद्या से रहित हैं उनको काम गोत्रे शतगुणं स्वगोत्रे दत्तमक्षयम् ॥ में लगाओ, जो बालक बालिकायें ___ भावार्थ:-केवल ब्राह्मणों को ही ब्रह्मचर्य धर्म से रहित हैं उनको दान देना श्रेष्ठ है ऐसा नियम नहीं है, ब्रह्मचर्याश्रम में भरती करो। जो व्यभिकिंतु बहिन, भानजा,मामा, भूवा,अपने | चारादि व्यसनों से ग्रसित हैं उनको सपिंड वा श्वसुर वा इष्ट मित्रादि भी सदाचारी बनाओ, परन्तु धनवानों को यदि दरिद्री हों तो अवश्यमेव धन, दान मत दो अर्थात् ठाकुरजी को अन्न, वस्त्र वा स्थान आदि से उनकी छप्पन भोग लगाकर बाजार में खे

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