Book Title: Atmakatha
Author(s): Mohandas Karamchand Gandhi, Gandhiji
Publisher: Sasta Sahitya Mandal Delhi

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Page 9
________________ मेरे जीवनकी प्रत्येक क्रिया इसी दृष्टिसे होती है । मैं जो कुछ लिखता हूं, वह भी सब इसी उद्देशसे; और राजनैतिक क्षेत्रमें जो मैं कूदा सो भी इसी बातको सामने रखकर । परंतु शुरू हीसे मेरी यह राय रही है कि जिस बातको एक आदमी कर सकता है उसे सब लोग कर सकते हैं। इसलिए मेरे प्रयोग खानगी तौर पर नहीं हुए और न वैसे रहे ही। इस बातसे कि सब लोग उन्हें देख सकते हैं, उनकी आध्यात्मिकता कम होती होगी, यह मैं नहीं मानता। हां, कितनी ही बातें ऐसी जरूर होती हैं जिन्हें हमारी आत्मा ही जानती है, जो हमारी आत्मामें ही समाई रहती हैं। परंतु ऐसी बात तो मेरी पहुंचके बाहरकी बात हुई। मेरे प्रयोगमें तो आध्यात्मिक शब्दका अर्थ है नैतिक, धर्मका अर्थ है नीति, और जिस नीतिका पालन अात्मिक दृष्टिसे किया हो वही धर्म है ; इसलिए इस कथामें उन्हीं बातोंका समावेश रहेगा, जिनका निर्णय बालक युवा, वृद्ध करते हैं और कर सकते हैं। ऐसी कयाको यदि मैं तटस्थ भावसे, निरभिमान रहकर, लिख सका, तो उससे अन्य प्रयोग करने वालोंको अपनी सहायताके लिए कुछ मसाला अवश्य मिलेगा। मैं यह नहीं कहता कि मेरे ये प्रयोग सब तरह सम्पूर्ण हैं। मैं तो इतना ही कहता हूं कि जिस प्रकार एक विज्ञानशास्त्री अपने प्रयोगकी अतिशय नियम और विचार-पूर्वक सूक्ष्मताके साथ करते हुए भी उत्पन्न परिणामोंको अंतिम नहीं बताता, अथवा जिस प्रकार उनकी सत्यताके विषयम यदि सशंक नहीं तो तटस्थ रहता है, उसी प्रकार मेरे प्रयोगोंको समझना चाहिए। मैंने भरसक खूब आत्म-निरीक्षण किया है, अपने मनके एक-एक भाव की छानबीन की है, उनका विश्लेषण किया है। फिर भी मैं यह दावा हरगिज नहीं करना चाहता कि उनके परिणाम सबके लिए अंतिम हैं, वे सत्य ही है, अथवा वहीं सत्य हैं। हां, एक दावा अवश्य करता हूं कि वे मेरी दृष्टिसे सच्चे हैं और इस समय तक तो मुझे अंतिम जैसे मालूम होते हैं। यदि ये ऐसे न मालूम होते हों तो फिर इनके आधार पर मझे कोई काम उठा लेनेका अधिकार नहीं। पर मैं तो जितनी चीजें सामने आती हैं उनके, कदम-कदम पर दो भाग करता जाता हूं--ग्राह्य और त्याज्य ; और जिस वात को ग्राह्य समझता हूं उसके अनुसार अपने पाचरणको बनाता हूं, एवं जबतक ऐसा याचरण मुझे---अर्थात् मेरी बुद्धिको और पापाको---

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