Book Title: Astittva aur Ahimsa Author(s): Mahapragna Acharya Publisher: Jain Vishva BharatiPage 11
________________ प्रस्तुति योगक्षेम वर्ष का मध्य । वर्षावास का प्रारम्भ । वर्षा से स्निग्ध भूमि । चारों ओर बीजों की बुवाई का उपक्रम | सुहाना मौसम | मनभावना वातावरण । सुधर्मा सभा का समवसरण | आचार्य श्री तुलसी की पावन सन्निधि | साधु-साध्वियों की जिज्ञासा-भरी उपस्थिति । योगक्षेम वर्ष में भाग लेने वाले तत्त्वज्ञ और स्नातक वर्ग के शिक्षणार्थियों की लम्बी पंक्ति । हजारोंहजारों शुश्रूषु श्रोताओं का श्रद्धासिक्त समूह | ढाई हजार वर्ष पहले उद्गीर्ण महावीर की वाणी । उसका एक छोटासा संकलन । नाम है आचार (आयारो) । कितनी दूरी । कहां वह अन्तर्दृष्टि और अन्तर्ज्ञान से सत्य की खोज करने वाला युग और कहां वैज्ञानिक यंत्रों से सत्य को खोजने वाला युग ? कितना जटिल है दोनों में सामंजस्य खोजने का प्रयत्न | फिर भी कोई कठिनाई नहीं हुई । आचार्यवर की सन्निधि एक सेतु है । जिससे अतीत और वर्तमान- दोनों निकट आ जाते हैं । महावीर का आचार आत्म-प्रधान या अध्यात्म-प्रधान था इसलिए वैज्ञानिक युग में वह अप्रासंगिक नहीं बना । यदि वह क्रियाकाण्ड प्रधान होता तो उसकी प्रासंगिकता समाप्त हो जाती । पर्यावरण विज्ञान अथवा सृष्टि संतुलन-विज्ञान विज्ञान की एक महत्त्व - पूर्ण शाखा है । आचारांग को उसका प्रतिनिधि ग्रन्थ माना जा सकता है । इसमें अहिंसा के कुछ विशिष्ट सूत्र प्रतिपादित हैं-वनस्पति और मनुष्य की तुलना, छोटे जीवों के अपलाप करने का अर्थ अपने अस्तित्व को नकारना आदि-आदि । प्रस्तुत पुस्तक में इन सूत्रों पर एक विमर्श प्रस्तुत किया गया है । ढाई हजार वर्ष पहले प्रतिपादित आचार पुराना नहीं हुआ है । ऐसा प्रतीत होता है जैसे यह वर्तमान की समस्याओं के सन्दर्भ में लिखा हुआ ग्रन्थ है | सत्य कालिक होता है । इसका अर्थ है - वह कभी बासी नहीं होता । उसकी उपयोगिता हर काल और हर समय में बनी रहती है । मुझे आचारांग की गहराई में मैं अपना सौभाग्य मानता हूं कि निमज्जन करने का अवसर मिला । आचार्यवर की सन्निधि मेरे लिए एक सहज प्रेरणा है । उनकी उपस्थिति में जो स्रोत प्रवाहित होता है वह अन्यत्र प्रवाहित नहीं होता । प्रवचन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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