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पूर्व का मनोविज्ञान एक्सपेरिमेंटल है, अनुभव मूलक है। यह गारंटी करता है जो कुछ एक ने अनुभव किया है उसे दूसरों को भी अनुभव कराया जा सकता है। साधना की सीढ़ियों पर गुरु शिष्य का हाथ पकड़ कर चढ़ता है और उसे स्वसाक्षात्कार की ऊँचाईयों पर ले जाता है। उन अनुभवों को वर्णन करने में भाषा प्राय: लाचार रहती है। पूर्व और पश्चिम की मनोवैज्ञानिक विधियों की तुलना करने के लिए एक उदाहरण लेना चाहेंगे। क्रोध का उदाहरण लें, पश्चिम के मनोविज्ञान का एक मत है कि इसे व्यक्त कर देना चाहिए। अपने अनुभव में भी यह बात आती है कि यदि हम अपने गुस्से को व्यक्त कर देते हैं तो कुछ समय के लिए हमें शांति मिल जाती है, जैसे भाप बाहर निकल गई हो । भारतीय परंपरा इसे व्यक्त करने की मनाही करती है क्यों कि बार बार व्यक्त करने से कोई ऋणात्मक गतिविधि हमारी आदत बन सकती है, हमारे संस्कार वैसे ही बन जाते है। कुछ आधुनिक विचारक कहते हैं कि क्रोध की दिशा बदल देनी चाहिए और उसे समाज परिवर्तन जैसे कार्यों में लगा देना चाहिये। पुनः शास्त्र सचेत करते हैं कि क्रोध को व्यक्त करना, उसकी दिशा को परिवर्तित करना या उसे दबाना तीनों गलत है । व्यक्त करने से आदत एवं संस्कार बनते है, संस्कार बनते है, दिशा बदलने से वह व्यापक होता है। दबाने से गांठ बनती है इसलिए गुस्से को समूल ही उखाड़ देना चाहिए। सवाल इस बात का पैदा होता है कि इसे उखाड़ा कैसे जाए। न केवल क्रोध के संदर्भ में, बल्कि अन्य मानसिक विकारों जैसे काम, मोह, लोभ आदि के विषय में अनेक शक्तिशाली विधियों का प्रयोग भारतीय शास्त्रों में मिलता है। भारतीय शास्त्र उच्चकोटि के मनोवैज्ञानिक सिद्धान्तों से भरे पड़े हैं । गीता, जैन एवं बौद्ध दर्शन गहरे मनोवैज्ञानिक सिद्धान्तों की खान है। आज आवश्यकता इस बात की है कि हम उनका अनुशीलन करें, उन्हें व्यवहार में ले आएँ। वे सब के सब अनुभव मूलक हैं, प्रयोग और परीक्षण मूलक नहीं है। आज यह बात प्रसन्नता की बात है कि प्रयोग और परीक्षण की बुनियादों पर खड़ा हुआ पश्चिम का मनोविज्ञान Transpersonal Psychology की ओर अग्रसर हो रहा है। यहाँ तक कि वह समाधि की बात करता है। पश्चिम के विज्ञान और मनोविज्ञान ने मात्र एक दशक में ही अपनी मान्यताओं को कई बार बदला है, इसलिए हम इसका आश्रय लेने में झिझकते है। हमारी परम्परागत बुद्धिमता हजारों साल के अनुभव से युक्त होकर स्थापित हो चुकी है। इसलिए हम इसका दामन नहीं छोड़ना चाहते। जब तक मनोविज्ञान के सिद्धांत पूर्णरूपेण स्थापित न हो जाए प्रतीक्षा करने में ही हम बुद्धिमत्ता मानते हैं।
यहाँ जैन दर्शन के नमूने के रूप में, हम तीन आत्म विकास की विधियों का उल्लेख करना चाहेंगे । 1. सामायिक
2. कायोत्सर्ग
3. ध्यान
1. सामायिक
सामायिक, जैन धर्म की, उन प्रमुख रीतियों में से एक है जिनके माध्यम से हम हमारी आत्मा के निकट अग्रसर होते हैं। सामायिक के दौरान हम स्वयं को रोजमर्रा की घरेलू सामाजिक, व्यावसायिक व शैक्षणिक गतिविधियों से विलग करके, एक स्थान पर 48 मिनट तक बैठते हैं। इन 48 मिनटों में हम धार्मिक पुस्तकें पढ़ सकते हैं, माला जप सकते हैं या ध्यान भी कर सकते हैं । सामायिक शुरू करने से पूर्व हमें वस्त्र बदलने आवश्यक हैं। रोजमर्रा के वस्त्र नहीं पहनकर, हमें शुद्ध, सफेद, साधारण सूती वस्त्र पहनने आवश्यक हैं। सफेद रंग शुद्धता व शांति का प्रतीक है। सामायिक के समय रेशमी तथा चमड़े की तथा वे सभी वस्तुएँ जिनके निर्माण में जीवों की हिंसा हुई है, का प्रयोग वर्ज्य है।
अर्हत् वचन, 23 (4), 2011
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