Book Title: Arhat Vachan 2011 10
Author(s): Anupam Jain
Publisher: Kundkund Gyanpith Indore

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Page 43
________________ 8400000 महालत - 01 श्री कल्प 8400000 श्री कल्प - 01 हस्त प्रहेलित 8400000 हस्त प्रहेलित -01 अचलात्म तत्वार्थराजवार्तिक में उपलब्ध उपमा काल प्रमाण का सार जैनेन्द्र सिद्धांत कोश में दिया है22 जो अत्यन्त स्पष्ट एवं विस्तृत है। इसके अतिरिक्त द्रव्यप्रमाण एवं क्षेत्र प्रमाण की सूचियाँ भी इसी ग्रंथ में संकलित की गई है ।अनेक ग्रंथों में ये सूचियाँ न्यूनाधिक परिर्वतनों सहित उपलब्ध हैं। पुनरावृत्ति दोष से बचने के लिये हम इनको सभी जगह से उद्धृत नहीं कर रहें है। Descartes (1637A.D.) एवं Fermet (1679 A.D.) के समान ही अकलंक (7,8 वीं शताब्दी) ने उद्धृत किया है कि चार समय से पहले ही मोड़े वाली गति होती है। संसार में ऐसा कोई स्थान नहीं है जिसमें तीन मोड़े से अधिक मोड़ा लेना पड़े। (Three Dimension) जैसे षाष्ठिक चावल साठ दिन में नियम से पक जाते हैं उसी तरह विग्रह गति भी तीन समय में समाप्त हो जाती है ।23 जीव एवं पुद्गलों की गति के सम्बन्ध में अनेक उलझे प्रश्नों को दार्शनिक पहलू से विवेचित करने का प्रयास अकलंक ने किया है। क्या यह (Point electron) पुद्गल परमाणु आदि से संबंधित उलझे हुए प्रश्नों का समाधान प्रस्तुत कर सकेंगे ? प्रो. लक्ष्मी चन्द्र जी ने इस संदर्भ में गहन अनुसंधान की आवश्यकता पर बल दिया है ।24 ___ गति, प्रकाश, ध्वनि आदि के नियमों की स्फुट जानकारी जहाँ-तहाँ प्राचीन ग्रंथों में मिलती है। राजवार्तिक उनमें प्रमुख है। यह सत्य है कि अब तक प्राप्त तथ्यों के आधार पर हम कोई क्रमबद्ध सिद्धान्त निरूपित नहीं कर सके हैं तथापि यह कहना शायद अभी समयानुकूल न होगा कि राजवार्तिक में प्रयुक्त गणित के सिद्धांत का कोई समावेश नहीं है । न्यूटन के गति के प्रथम नियम का आशय सर्वार्थसिद्धि एवं राजवार्तिक में उपलब्ध है। राजवार्तिक का विवरण निम्नवत् है। एवं यः पूर्वकमस्य कर्मणाप्रयोगे जीनत :स क्षोणोडपि कर्माणिगति हेतुर्यवति। अर्थात कर्म रूपी शक्ति से संसारी प्राणी गतिमान हो जाता है , उन शक्ति के समाप्त हो जाने पर भी उत्पन्न गति के कारण (अभ्यायत) प्राणी गतिमान रहता है, जब तक यह संस्कार नष्ट नहीं हो जाता है। पुन : आगे लिखा है कि :गतिस्थित्युपग्रहौ धर्माधर्मवोमकार :126 अर्थात गतिमान पदार्थों की गति में और स्थिर पदार्थों की स्थिति में निमित्त बनना सहायता करना क्रम से धर्म और अधर्म द्रव्य का उपकार है। इससे यह स्पष्ट होता है कि किसी भी प्रदार्थ का किसी खास दशा में रहने या न रहने का कारण बाह्य कारण (External force) हुआ करता है। इसी पुस्तक के चतुर्थ अध्याय में देवों की गतियों का वर्णन है । इसके अंश से स्थितिज ऊर्जा के भाव की अभिव्यंजना होती है । इस प्रकरण का आशय निम्न प्रकार है। (कुछ देवता ऐसे भी है ) जिनकी गति का विषय भूत क्षेत्र तीसरी पृथ्वी से अधिक है। (आगम में इस पृथ्वी के अलावा भी पृथ्वी की कल्पना है ) वे गमन शक्ति के रहते हुए भी वहाँ तक गमन नहीं करते हैं। न पूर्व काल में कभी किया है और न भविष्य में कभी करेंगे। उनकी गति को बतलाने का अर्थ केवल उनकी कार्यक्षमता बतलाना है। उनकी शक्ति का व्यय नहीं होता, वह कार्य रूप में परिणत नहीं होती है। पर वे उतना काम कर सकते हैं। इस विवेचन से इन ग्रथों में प्रकीर्ण गणितीय विचारों का बोध होता है। अर्हत् वचन, 23 (4),2011

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