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शुक्ल दशमी विशाखा नक्षत्र में, छठा उत्तरायण माघ कृष्णा प्रतिपदा पुष्य नक्षत्र में, सातवां दक्षिणायन श्रावण कृष्ण सप्तमी रेवती नक्षत्र में, आठवां उत्तरायण माघ कृष्ण त्रयोदशी मूल नक्षत्र में, नौवां दक्षिणायण श्रावण शुक्ल नवमी पूर्वा फाल्गुनी नक्षत्र में और दसवां उत्तरायण माघ कृष्ण त्रयोदशी वृत्तिका नक्षत्र में माना गया है। किन्तु तत्कालीन ऋक, याजुष और अथर्व ज्योतिष में युग के आदि में प्रथम उत्तरायण बताया गया है। प्रक्रिया अब तक चली आ रही है। कहा नहीं जा सकता कि युगादि में दक्षिणायण और उत्तरायण का इतना वैषम्य कैसे हो गया ?
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जैन मान्यता के अनुसार जब सूर्य उत्तरायण होता है लवण समुद्र के बाहरी मार्ग से भीतर जम्बूद्वीप की ओर जाता है उस समय क्रमशः शीत घटने लगता है और गर्मी बढ़ने लग जाती है। इस सर्दी और गर्मी के वृद्धि ह्रास के दो कारण हैं, पहला यह है कि सूर्य के जम्बूद्वीप के समीप आने से उसकी किरणों का प्रभाव यहां अधिक पड़ने लगता है। दूसरा कारण यह कहा जा सकता है कि उसकी किरणें समुद्र के अगाध जल पर से आने से ठंडी पड़ जाती है। उनसे क्रमशः जम्बूद्वीप की ओर गहराई कम होने और स्थल भाग पास होने से संताप अधिक बढ़ता जाता है, इसी कारण यहां गर्मी अधिक पड़ने लगती है। यहां तक कि सूर्य जब जम्बूद्वीप के भीतरी अंतिम मार्ग पर पहुंचता है तब यहां पर सबसे अधिक गर्मी पड़ती है।
नक्षत्रों के आकार संबंधी उल्लेख भी जैन ज्योतिष की अपनी विशेषता है। चन्द्रप्रज्ञप्ति में नक्षत्रों के आकार-प्रकार, भोजन-वसन आदि का प्रतिपादन करते हुए बताया गया है कि अभिजित नक्षत्र गोश्रृंग, श्रावण नक्षत्र कपाट, धनिष्ठा नक्षत्र पक्षी का पिंजरा, शतभिषा नक्षत्र पुष्प की राशि, पूर्व भाद्रपद एवं उत्तर भाद्रपद अर्ध बावड़ी, भरणी नक्षत्र स्त्री की योनि कृतिका नक्षत्र ग्राह, रोहिणी नक्षत्र शकट, मृगशिरा नक्षत्र मृगमस्तक, आर्द्रा नक्षत्र रुधिर बिन्दु, पुनर्वसु नक्षत्र चूलिका, पुष्य नक्षत्र बढ़ता हुआ चन्द्र, आश्लेषा नक्षत्र ध्वजा, मघा नक्षत्र प्राकार, पूर्वा फाल्गुनी और उत्तरा फाल्गुनी अर्धपल्पक, हस्त नक्षत्र हथेली, चित्रा नक्षत्र मउआ के पुष्प, स्वाति नक्षत्र खीले, विशाखा नक्षत्र दामिनी, अनुराधा नक्षत्र एकावली, ज्येष्ठा नक्षत्र गजदन्त, मूलनक्षत्र विच्छू, पूर्वाषाढ़ा नक्षत्र हस्ती की चाल और उत्तराषाढ़ा नक्षत्र सिंह के आकार का होता है।
यह नक्षत्रों की संस्थान संबंधी प्रक्रिया वराह मिहिर के पूर्वकाल की है। इसके पूर्व कहीं भी नक्षत्रों के आकार की प्रक्रिया का उल्लेख नहीं है। इस प्रकार नक्षत्रों के संस्थान, आसन, शमन आदि के सिद्धांत जैनाचार्यों द्वारा निर्मित होकर उत्तरोत्तर पल्लवित और पुष्पित हुए ।
संदर्भ स्थल
1. ज्योतिष कौमुदी, पं. दुर्गाप्रसाद शुक्ल, मेघ प्रकाशन, दिल्ली - 6, 2. 'सहज आनन्द' (त्रैमासिक), ज्योतिष अंक, सितम्बर 2005
3. ग्रह शांति दीपिका, आचार्य अशोक सहजानन्द, मेघ प्रकाशन, दिल्ली-6, 2007 4. ज्ञान प्रदीपिका, आचार्य अशोक सहजानन्द, अरिहंत इंटरनेशनल, दिल्ली - 6, 2011 5. 'णाणसायर' (जैन शोध पत्रिका), जैन ग्रंथागार-दिल्ली-6 जनवरी 1993
प्राप्तः 08.02.11
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2010
* मेघ प्रकाशन, 239, दरीबां कलाँ, चाँदनी चौक, दिल्ली-110006
अर्हत् वचन, 23 (4), 2011