Book Title: Arhat Vachan 2011 10
Author(s): Anupam Jain
Publisher: Kundkund Gyanpith Indore

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Page 79
________________ भवन निर्माण, यात्रा आदि कोई भी कार्य पूरा नहीं करते । ज्योतिष शास्त्र के संबंध में एक महत्वपूर्ण विडम्बना यह है कि उसके प्रचार-प्रसार के बावजूद कुछ ऐसे अपूर्ण ज्ञान रखने वाले ज्योतिष शास्त्रियों ने उसका पूर्ण व्यवसायीकरण कर दिया है। उनका भविष्य कथन अक्सर खरा नहीं उतरता और उनके कारण सम्पूर्ण ज्योतिष शास्त्र की वैज्ञानिकता पर प्रश्न चिन्ह लग जाता है । जैन ज्योतिष के मौलिक सिद्धांत - ज्योतिष के इतिहास का अवलोकन करने पर ज्ञात होता है कि जैनाचार्यों द्वारा निर्मित ज्योतिष ग्रंथों से जहां अनेक मौलिक सिद्धांत साकार हुए, वहीं भारतीय ज्योतिष में अनेक नवीन बातों का समावेश तथा प्राचीन सिद्धांतों का परिमार्जन भी हुआ। जैन विद्वानों द्वारा रचे गये ग्रंथों की सहायता के बिना इस विज्ञान के विकास क्रम को समझना कठिन ही नहीं, असंभव है । जिस प्रकार वेद संहिता में पंच वर्षात्मक युग है और कृतिका से नक्षत्र गणना है उसी प्रकार जैन अंग ग्रंथों में भी है। इससे उनकी प्राचीनता सिद्ध होती है। पंच वर्षात्मक युग का सर्वप्रथम उल्लेख जैन ज्योतिष में ही मिलता है | सूर्य प्रज्ञप्ति में पंचवर्षात्मक युग का उल्लेख करते हुए लिखा है - श्रावण कृष्ण प्रतिपदा के दिन सूर्य जिस समय अभिजित नक्षत्र पर पहुंचता है, उस समय पंचवर्षीय युग का प्रारम्भ होता है। जैन ज्योतिष में पौष मास्यान्त मास गणना ली गई है किन्तु याजुष ज्योतिष में दर्शान्त मास गणना स्वीकार की गई है। इससे स्पष्ट है कि प्राचीनकाल में पौर्ष मास्यान्त मास गणना ली जाती थी किन्तु यवनों के प्रभाव से दर्शान्त मास गणना की जाने लगी । प्राचीन जैन ज्योतिष में हेय पर्व तिथि का विवेचन करते हुए अवम के संबंध में बताया गया है कि एक सावन मास की दिन संख्या 30 और चन्द्र मास की दिन संख्या 21+32 / 62 है। सावन मास और चन्द्रमास का अन्तर अवम होता है। अतः 30- ( 29+32/62) = 30 / 62 अवम भाग हुआ। इस अवम की पूर्ति दो मास में होती है। अनुपात से एक दिन अवमांश 1/62 आता है। यह सूर्य प्रज्ञप्ति सम्मत अवमांश वैदिक ज्योतिष में भी है। वेदांग ज्योतिष की रचना के अनन्तर कई शती तक इस मान्यता में भारतीय ज्योतिष ने कोई परिवर्तन नहीं किया लेकिन जैन ज्योतिष के उत्तरवर्ती ज्योतिष करण्डक आदि ग्रंथों में सूर्य-प्रज्ञमि कालीन स्थूल अवमांश में संशोधन और परिवर्तन मिलता है। प्रक्रिया निम्न प्रकार है - इस काल में 30/62 की अपेक्षा 31 / 62 अवमांश माना गया है। इसी अवमांश पर त्याज्य तिथि की व्यवस्था की गई है। इससे वराहमिहिर भी प्रभावित हुए हैं। इससे स्पष्ट है कि अवम तिथि क्षय संबंधी प्रक्रिया का विकास जैनाचार्यों ने स्वतंत्र रूप से किया। समय-समय पर इस प्रक्रिया में संशोधन एवं परिवर्तन होते गये । वेदांग ज्योतिषक ग्रंथों में पर्वों का ज्ञान कराने के लिए दिवसात्मक ध्रुवराशि का कथन किया गया है । यह प्रक्रिया गणित दृष्टि से अत्यंत स्थूल है। जैनाचार्यों ने इसी प्रक्रिया को नक्षत्र रूप में स्वीकार किया है। इसके मत से चन्द्र नक्षत्र योग का ज्ञान करने के लिए ध्रुव राशि का प्रतिपादन है। जहां वेदांग ज्योतिष में व्यतिपात का केवल नाममात्र उल्लेख मिलता है वहां जैन ज्योतिष में गणित संबंधी विकसित प्रक्रिया भी मिलती है। इस प्रक्रिया का चन्द्रनक्षत्र एवं सूर्य नक्षत्र संबंधी व्यतिपात के आवमन में महत्वपूर्ण उपयोग है । वराहमिहिर जैसे गणकों ने इस विकसित ध्रुवराशि अर्हत् वचन, 23 (4), 2011 78

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