Book Title: Aradhana Swarup
Author(s): Dharmchand Harjivandas
Publisher: Mulchand Kisandas Kapadia

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Page 17
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६ ] दिगंबर जैन | प्रकृतिके उदयकरि श्रद्धा चलमल अगाढ दोष क्षयोपशमसम्यकूत्व में आवे हैं अर कर्मका नाश करनेकं समर्थ है। बहुरि अनंतानुबंधी ४, दर्शनमोहनीय ३, इन सात प्रकृतिनिका सर्व उपशम होनेकरि औपशमिक सम्यक्त्व होय है । अर इन सात प्रकृतिनिका क्षय क्षायिक सम्यकृत्व होय है । इन दोऊ सम्यक्त्वमें शंकादिक मलनिका अंश भी नाहीं तातैं निर्मल है । अर परमागममें कहे पदार्थनिके श्रद्धानमें कहूं भी नहीं स्खलित होइ है । तातैं दोऊ सम्यक्त्व निश्चल है। अर आप्त आगम पदार्थ, भगवान्के कहे तिनमें तीत्र रुचि धारे हैं, तातैं दोऊ ही सम्यक्त्व गाढरूप है । जातैं चलमल अगाढ दोष उत्पन्न करनेवाली सम्यकृत्वप्रकृतिके उदयका अभाव है । तांते ये दौहृ सम्यक्त्व निर्दोष है । अब व्यवहार सम्यक्त्वका विशेष कहे है- जो सत्यार्थ आप्त आगम गुरुका श्रद्धान सो सम्यग्दर्शन है। आप्तका स्वरूप ऐसा हैजो क्षुधा, तृषा, जन्म, जरा, मरण, राग, द्वेष, शोक, भय, विस्मय, मद, मोह, निद्रा, रोग, अरति, चिंता, स्वेद, खेद ये अठारह दोषरहित होय; अर समस्त पदार्थनि के भूत भविष्यत् वर्त्तमान त्रिकालवर्त्ती समस्त गुणपर्यायनि क्रमरहित एकैकाल प्रत्यक्ष जानता ऐसा सर्वज्ञ होय; बहुरि परमहितरूप उपदेशका कर्ता होय सो आल अंगीकार करना । जातै जो रागी द्वेषी होइ सो सत्यार्थ वस्तुका रूप नही कहे, अर जो आपही काम क्रोध मोह क्षुधा तृषादिक दोषसहित होइ, सो अन्यकूं निर्दोष कैसे करे ? अर जाकै इंद्रियां के आधीन ज्ञान होय अर क्रमवर्ती होय सो समस्तपदार्थनिकं अनंता For Private And Personal Use Only

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