Book Title: Aradhana Swarup
Author(s): Dharmchand Harjivandas
Publisher: Mulchand Kisandas Kapadia

View full book text
Previous | Next

Page 47
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३६ ] दिगंबर जैन । आपकूं छुडावे, अपने बंधुसमूहकूं ऐसें पूछें - अहो ! इस हमारे शरीरके बंधुसमूहमें वर्तनेवाले आत्मा हो ! इस मेरे आत्माके माहि तिहारा कुछ नहीं है, या निश्चयतें तुम जानत हो, तातें तुमारेताई पूछत हूं, अबार हमारा आत्माकै ज्ञानज्योति उदय भया हैं, तातें मेरा अनादिका बंधु जो मेरा आत्मा ताकूं प्राप्त भया चाहे है, मेरा शुद्धात्माही मेरा बंधु है; अन्य बंधुके देहका संबंध मेरे देहते है, मोत नाही । अहो ! इस शरीर के उत्पन्न करनेवाले जनकके आत्मा तथा अहो ! मेरे शरीरकूं उत्पन्न करनेवाली जननीके आत्मा ! मेरे आत्माकूं तुम नही उत्पन्न कीया है, या निश्चयकरिकै तुम जानत हो, तातैं अब मेरे आत्माकूं तुम छांडो । अब हमारा आत्माकै ज्ञानज्योति प्रकट भया है, तातैं आपका अनादिका माता पिता जो अपना आत्मा ताकूं प्राप्त होय है । अहो ! इस शरीर के आत्मा ! मेरे आत्माकं तू नही रमावत है, ऐसें तूं जाणि मेरा इस आत्माकं छांडडू, अब हमारे आत्माकै ज्ञानज्योति प्रकट भया है, तातैं आत्मानुभूतीही जो मेरा आत्माकूं रमावनेवाली अनादिकी रमणी ताही प्राप्त भया चाहे है । अहो ! इस शरीर के पूत्रका आत्मा हो ! मेरा आत्मा तुमकूं नही उत्पन्न कीया है, या तुम निश्चयकरि जाणो, तातैं मेरे आत्माकूं छांड हूँ। अब मेरा आत्माकै ज्ञानज्योति प्रकट भया है, तातैं आपका आत्माही जो अनादितें उपज्या अपना पुत्र, ताही प्राप्त हुवा चाहे है । ऐसें बंधुजन वा पिता माता स्त्री पुत्रनितैं आप आपकूं छुड़ावै । अर जो कुटुंबी जन आपकूं निराला नही होने दे, दिगंबरी दीक्षा नही धारण करने दे, तो अपने गृह - विषैी पश्चिमसल्लेखना करै ॥ गाथा For Private And Personal Use Only

Loading...

Page Navigation
1 ... 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61