Book Title: Aradhana Swarup
Author(s): Dharmchand Harjivandas
Publisher: Mulchand Kisandas Kapadia

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Page 23
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १२] दिगंबर जैन | सो लौकिक मूढ है । बहुरी हमारा वांछित देव देगा ऐसी आशा करना; तथा ग्रह, भूत, पिशाच, योगिनी, यक्ष, क्षेत्रपाल, सूर्य, चंद्रमा, शनैश्वरादिकनिकूं वांछितकी सिद्धीके अर्थि पूजा करना, दान करना सो देवमूढता है । तथा जे च्यारि निकाय के देवनिके स्वरूप करि रहित अर देव देवाधि - सर्वज्ञपणाकरि रहित जिनका विकारी रुप वा तिर्यचनिकेसे मुख जिनका हस्तीकासा मुख सिंहकासा मुख गर्दभमुख वानरा से मुख सूर केसे मुख पूंछ सींग इत्यादि सहितकूं देव मानना, तथा त्रिमुख चतुर्मुख चतुर्भुज इत्यादिक प्रकट दिव्य देवके रूपरहित विकराल जिनके रूप तथा लींग योनि इत्यादिक विपरीत रूप जिनकूं देखे लज्जा उपजै तिनमैं, देवत्वबुद्धि करै अर देव मानी पूजा वंदना करै, देवनिके अर्थि बकरा भैसा इत्यादिकनिकं मारि चढावै, तथा देवतानै मद्यमांसके भक्षक जानै, सो समस्त तीन मिथ्यात्वके उदयतें देवमूढता कहिये हैं। जे आरंभ परिग्रह हिंसाकरि सहित, पाखंडी, कुलिंगी, विषयनिके लोलपी, अभिप्रानि गुरु मानी सत्कार वंदना पूजादिक करै सो गुरुमूढता जाननी ॥ बहुरी ज्ञानका मद, कुलमद, जातिमद, बलमद, ऐश्वर्यमः तपोमद, रूपमद, शिल्पिमद, ये आठ मद सम्य के घातक हैं | इंद्रियजनित विनाशिक ज्ञानमें अहंकार करना तथा जाति, कुल, रूप, बल, ऐश्वर्य ये कर्मके उदयजनित हैं, तथा पर हैं, विनाशिक हैं, इनमें आपा धरना सो अष्ट मद मिथ्यात्वके उदयतें हैं | तथा कुदेव, कुधर्म, कुगुरु, अर इनके सेवक तिनकूं अनायतन कहे हैं। रागी द्वेषी मोही तथा जे देवपणार हित For Private And Personal Use Only

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