Book Title: Anusandhan 2007 04 SrNo 39 Author(s): Shilchandrasuri Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad View full book textPage 4
________________ निवेदन विश्वख्यात भारतीय पुरातात्त्विक डॉ. हसमुखभाई सांकळिया साथे, अने त्यार पछीना अग्रणी पुरातत्त्वविद डॉ. र. ना. महेता साथे, ज्यारे पण सम्पर्कमा आववानुं बन्युं, त्यारे एक मुद्दो सतत सांभळवा मळ्या कर्यो : "अमारे तो ठीकरां-पथरा कहे ते ज मानवान; ते सिवायनी, परम्परागत वातो अमे न मानीए." मने थतुं, अने हुं दलील पण करतो ज, के "तो वीतेला शतकोमां जे घटनाओ खरेखर घटी गई होय, अने छतां अनेक कारणोसर सर्जाती रहेली उथलपाथलोने कारणे तेना पुरावारूप सामग्री मात्र अनुपलब्ध होय, तो शुं ते घटनाओने अवास्तविक-काल्पनिक गणीने ज चालवायूँ ? पुरातात्त्विक के ऐतिहासिक गणावीए तेवा स्थूल-भौतिक पुरावा न जडे, अने छतां ते बाबत परत्वे सेंकडो के सहस्रो वर्षोथी एक अविच्छिन्न परम्परा चाली आवती होय, तो तेने केवळ अप्रमाण गणीने ज चालवानुं ?" जेम ए लोको आ दलीलनो अस्वीकार ज करे, अम एमनी आ धारणा पण मारा गळे न ज ऊतरे. __ अलबत्त, परम्परागत धारणाओनो यथावत् स्वीकार थाय, एवो आग्रह तो कोई विवेकी न राखे. एमां संशोधनने तथा कांट-छांटने अवकाश होय ज, होवो ज घटे. सवाल एना सदंतर इन्कारनो छे. शुं अमुक बाबतो एवी न होय के जे खरेखर बनी होवा छतां, विदेशी-विधर्मी आक्रमणो, युद्धो अने लूंटफाट तथा कुदरत-सर्जित आसमानी सुलतानीने कारणे, ते अंगनां पुरावारूप साधनो नाश पाम्यां होय ? मारा हिसाबे, सत्यनी प्राप्ति, परम्परा अने पुरातत्त्व/इतिहासना समन्वयने आधीन छे. - शी. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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