Book Title: Anusandhan 2005 06 SrNo 32
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
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अनुसन्धान ३२
पाठक रुघपति-कृत सुगणबत्तीशी ॥
सं. सा. समयप्रज्ञाश्री
'सुगणबत्तीसी' नामनी मारवाडी भाषानी आ रचना, खरी रीते वैराग्यप्रेरक रचना छे. बृढापो एटले के वृद्धावस्था केटली वसमी होय छे, अने ते अवस्थामां माणसे केवी तो लाचारी तथा पराधीनता वेठवी पडे छे, तेनुं हृदयवेधक बयान आ वत्तीसीमां थयुं छे. कोई एक वृद्ध मनुष्य पोतानी लाचारीनुं स्वमुखे वर्णन करतो जाय अने श्रोताओ दिग्मूढ बनीने ते सांभळता होय, तेवू वातावरण आ वर्णन थकी नीपजाववामां कर्ताने धारी सफलता सांपडी शकी छे. आपणे थोडी वानगी चाखीए:
हुं जाणतो हतो के मने लाखेणो हीरो जड्यो छे, पण ए तो साव खोटो नीकळ्यो ! में 'आ मारी ज छे' एम मानीने सरस युवती साथे लग्न करू, तेणे घर पर कबजो लई लीधो-घरवाळी बनीने; अने पछी (मारा) धन पर मालिकी-हक जामतां ज मारा तरफथी मों फेरवी लीधुं !' (क. २-३). पहेलां तो ए मने जमाड्या विना जमती पण नहीं एवी पतिपरायण हती, पण (बधो हक हाथमां आवतां) हवे ते बधुं वीसरी बेठी छे ! (क. ४). हवे मारे माटे बे टंके मकाईनी खाटी घाटडी ज होय छे; मेवा मीठाई तो तेना पुत्र-पौत्रो माटे ज होय (क.५ छोकरा तो मारा ज; में ज मोटा कर्या; ने हवे पोतानो धन-भाग 'ईने छूटा थई गया छे; वहुओ पण मूळे खानदान हती, पण धन हाथमां आवतां ज पोताना पति (मारा पुत्रो) ने लई जुदी जती रही छे; मारा माटे ए दिशा बंध ! (क.६-७)
पहेलां तो ५-७ गाऊनो पंथ रमतमां चाली नाखतो; ने हवे तो घरना आंगणा सुधी चालवानुं य अशक्य दीसे छे ! (क. १०). जीभ, नाक, कान, आंख बधी इन्द्रियोनी शक्ति ओसरी चुकी छे (क. ११-१४). घरना दरवाजे बेठो रहुं छु. मारी सत्ता बधी गुमावी बेठो छु. हवे 'तमे शुं जमशो ? शुं पहेरशो ?' एटलं पण कोई पूछतुं नथी मने ! (क. १५). वाते वाते मारो साथ शोधनारां स्वजनोने आजे तो मारी सामे जोतां ज सूग थाय छे ! (क. १६). संसारनी आ स्वार्थी रीत हुं न समज्यो लोभने लीधे, अने में जिनवाणी न ज
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