Book Title: Anusandhan 2005 06 SrNo 32
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
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June-2005
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ए ओखाणो आगलौ, श्रवणे थौ सुणीयो । पिण तीने लालच लग्यां, गिणती नही गिणीयो ॥२३॥ सु० कीधौ लोकारै कीयै, में पाप कमायो । आडो म्हारे आवसी, चेतो चितमाहे ॥२४॥ सु० पायो थौ माणसपणौ, निकमां नीगमीयौ । जांणे काग उडावतां, चिंतामण गमीयौ ॥२५॥ सु० ममता लागै में कियौ, हुं कहितौ माहरो । सो तो दीसै पारको, में पाप वधार्यो ॥२६।। सु० पाप कमायो पापर, लेखै सहु लागै । दरमाटी लागी दरै, स्युं सुणतो आगइ ॥२७॥ सु० ध्रम लेखै खरच्यो नही, में पइसौ हाथे । हिवणां सहु परवस थयो, स्युं चलसी साथे ॥२८॥ सु० धरम सखाई जीवरो, ते में हिव जांण्यो । पिण जाण्यां कासू हिवै, पहिली न पिछांण्यो ।।२९।। सु० एक घंडी आधी घडी, जिनवरने जापै । सरदहणा सुध राखतां, भवभ्रमणसु भाजै ॥३०॥ सु० इण भवमें अनुमोदनां, करतां निसतारो। ए श्रीजिनवर वचन छै, सिद्धांत संभारो ॥३१।। सु० सुगुणांनै समझावणी, बत्तीसी एह । पाठक श्रीरुघपति कहै, सुणज्यो ससनेह ॥३२।। सु० इति श्रीसुगणबत्तीसा संपूर्ण ॥ सं. १८८६ फा. व. ५ ॥
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