Book Title: Anusandhan 2005 06 SrNo 32
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad

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Page 98
________________ June-2005 93 (१९९३, १९९६)मां संग्रहस्थ थया छे. मध्यकालीन कथाकोश भाग: १, २ (१९९१, २०००) विविध परम्परागत कथाओनां कथानक अने कृतिसन्दर्भ पूरा पाडे छे तो हरिवेण वाय छे रे हो वन्नमां (१९९०), गोकुळमां टहुक्या मोर (१९९०) अने झरमर मेह झबूके बीज (१९९१) ९० पद-भजनना पाठने सम्पादित रूपमा उपलब्ध बनावे छे अने तेनां छन्दमाप साथे परम्परागत गाननां स्वरांकन आपे छे. मुक्तक मकरन्द (१९९८) अने तरंगवतीनां गुजराती अने हिन्दी अनुवाद (१९९८) प्राकृत न जाणता अभ्यासीने उत्तम अभ्यासक्षम रचनाओ सुलभ अने सुगम बनावे छे. आ बधांने ध्यानमां लेतां ४६ पुस्तको संशोधन-सम्पादननां छे. आ उपरांत भारतीय विद्याभवन, भाषाविमर्श, संबोधि, अनुसन्धान अने अनुशीलन जेवा संस्थागत शोधपत्रोनां सम्पादन द्वारा पण साहित्य-संशोधननुं कार्य कर्यु. आ कार्य अने पुस्तकोमां प्राचीन-मध्यकालीन गद्य-पद्यनी विविध रचनाओनां उत्तम आस्वाद्य भाषान्तरनां प्रपा (१९६८), गाथामाधुरी (१९७६, १९९१), कमळनां तंतु (१९७९, १९९४), जातककथा-मंजूषा (१९९३), कालिदासवन्दना (१९८६), मुक्तकमाधुरी (१९८६), ऋचामाधुरी (१९८७), मुक्तकमंजरी (१९८९, १९९१), त्रिपुटी (१९९५), मुक्तक-अंजलि (१९९६), मुक्तक-मकरन्द (१९९८) वगेरेनो तथा व्याकरण अने भाषाशास्त्रना १७ पुस्तको उमेरो तो मोटाभागनुं कार्य संशोधन साथे ज सम्बन्ध धरावे छे. आम ८४ वर्षना आयुष्यनां ५६ वर्ष संशोधननां छे. आ संशोधक विद्यापुरुषना जीवनना तबक्का ज ओवी रीते गोठवाया के संस्थाना माध्यमथी विद्याकार्य ज अविरत चालतुं रह्यु. आरंभनां २० वर्ष मुंबईमां भारतीय विद्याभवन जेवी समृद्ध संस्थामा कार्य कर्यु अने ते पछी बे दशका गुजरात युनिवर्सिटी अने ला.द. प्राच्यविद्यामन्दिरमा रही संशोधनकार्य कयें. ई. १९८५ थी २००० सुधीना दोढ दायकाथी विशेष काळना अन्तिम तबक्कामां गुजरात साहित्य अकादमी, गुजराती साहित्य परिषद, प्राकृत टेक्स्ट सोसायटी, हेमचन्द्राचार्य निधि जेवी संस्थाओना माध्यमथी संशोधन पूर्ण कळाओ विकस्यु. आ संस्थाओमां शिक्षण-मार्गदर्शन द्वारा गुजरातना अभ्यासीओने तथा विदेशना प्राच्यविद्याना पण अनेक अभ्यासीओने मार्गदर्शन आप्युं अने भायाणीकुळना आ अभ्यासीओ द्वारा पण जे संशोधन-सम्पादन थयां, तेने पण डो. भायाणीनां आ क्षेत्रना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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