Book Title: Anusandhan 1998 00 SrNo 12
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad

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Page 12
________________ क का कि की कु कू कृ कॄ क्लृ क्लू के कै को कौ कं कः इत्यपि स्वाश्रितत्वात् ॥१६॥ ॥ १९ ॥ 7 औपर्यन्ता इकाराद्या नामित्वे विदिताः स्वराः ॥ इ ई उ ऊ ऋ ऋ लृ लृ ए ऐ ओ औ ॥१७॥ स्थान- स्वरूप नमना - न्नामिनो भयथा ( ? ) मता ( : ) ॥ १८ ॥ इदादेः प्रथमैव स्यात्, कि [ कि की। की, कु कु कू कू कृ कृ कृ कृ क्लृ क्लृ क्लृ क्लू एकारप्रभृतेः परा ॥ के के कै कै को[को] कौ कौ ॥२०॥ वर्ग्यावर्ण्यविमर्शेन द्वेधा व्यञ्जनसंमतिः ॥ कखगघङ, चछजझञ, टठडढण, तथदधन, पफबभम १| यरलव, शषस, ह २ ॥२१॥ पञ्चभिः पञ्चभिः पञ्च वर्गाः कु-चु-टव स्तु-पू ॥२२॥ कौ क-खौ ग घ डा श्वोक्ताः, २३॥, चौ च - छौ ज झ ञस्तथा ||२४|| टौ ट-ठौ ड-ढ-णाश्चाप्ताः, २५॥, तौ त - थौ द-धनाः पुनः ॥२६॥ पौ प - फौ ब-भ- माश्चैव प्राज्ञपुङ्गवशिष्टितः ||२७|| अवर्ग्या द्विप्रभेदाः स्यु - रन्तस्थोष्मविचारतः ॥२८॥ चतुर्द्धा ते य-र-ल-वैः प्राञ्चः २९, श-ष- स-हैः परे ॥३०॥ व्यञ्जनस्याऽन्तलभ्यत्वात् स्वाश्रितत्वं विशिष्यते । अनारुह्य समीपोऽपि मा ( अ ? ) श्ववार इतीर्यताम् ॥ स्वरगौरवहेतुत्वान्नेदं दीनदरिद्रवत् । विभाव-पर्यय-स्फूर्तिं छायावदभितः श्रयत् ॥ अत एवेत्थंकारं - Jain Education International लघुर्यदि पुरः कृत्वा, व्यञ्जन (नो ? ) गुरुतां गतः । फलवान् वीतरागेऽपि विनयः प्रा[[ ? ] भवैषिणाम् ||३१|| अं अः क्रमानुस्वार-विसर्गौ ) ( कंठ्य एव तु । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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