Book Title: Anusandhan 1996 00 SrNo 07 Author(s): Shilchandrasuri Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad View full book textPage 8
________________ [3] जइ पुण किंचि विकज्जं, परिणामिअकारणा पिदब्भूयं । तो तस्सय सब्भावं वंछइ णउणं असब्भावं ॥ १३॥ जं कारणेण दिण्णं णियकज्जत्तं तु कज्जमित्तंमि । तं तंमिहु कज्जतं ववइस्सर णागयद्धाए ॥१४॥ एवं पुत्तपपुत्ताइयं व बुहवायगाइयं सव्वं । उप्पत्ती समणंतरमवि भण्णइ सव्वकालंमि ॥ १५ ॥ एएणं पितिपमुहे संतंमि असंत पुत्तमाईयं । न लहइ तप्पुत्तत्ता इय ववएसंति णिक्खित्तं ॥ १६ ॥ अण्णह पिया वि तस्सुअ, पियत्तणेणं ण होइ वत्तव्वो । पितिविरहेव नवच्चो पुत्तो तप्पुत्तभावेणं ||१७|| तेणं भांति केई गुरुंमि संतंमि तस्स पट्टधरो । जो सुरसुहपत्तो सो न पट्टधारि ति तं मिच्छा ॥१८॥ अहिसित्तो जह राया पिउणो नियमेण होइ पट्टध । तहणुण्णायगणो विअ, सूरी सगुरुस्स पट्टमि ॥१९॥ जेणं दिण्णो पट्टो नादिण्णो होइ दिक्खमाइव्व । जुग्गाणं, दायव्वत्तणेण दिण्णत्तणं सिद्धं ॥ २० ॥ अह दिक्खमाइ गुरुणा सक्खं चिअ दिज्जए जहा जुग्गं । पट्टधरत्तं गुरुणो परुक्खभावे सयं होइ ||२१|| तं मिच्छा, एवं चिअ कयावि णहु होइ तं समुप्पण्णं । भावाणं नाभावो कारणमिय जेण लोगठिई ||२२|| नाकारणं च कज्जं णों पुण विवरीअकारणं ण सयं । एवं खु मुणिज्जंतं, सत्तमदव्वाउ तं होइ ||२३|| अह तं विहलं भण्णिइ गुण्णाजणियं पि गुरुजणे संते । ता दंडस्स विणासे घडस्स कज्जत्तणं सहलं ॥२४॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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