Book Title: Anusandhan 1996 00 SrNo 07
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad

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Page 46
________________ [41] "प्रतिलेखना प्रमार्जनादिक क्रिया क्षुद्रजंतु भयोत्पादकपणइ अपवादकल्प कहिइ ते छद्मस्थनूं लिंग केवलीनिं न होइ,' एहवू कहइ छइ ते न घटइ, ते (जे) मार्टि उत्सर्ग अपवाद टाली त्रीजो अपवादकल्प किहांइ कहिओ नथी. इच्छांइ ३ भेद कल्पि उत्सर्गकल्पनामि चोथो भेद कल्पतां पणि कुण ना कहइ ? तथा केवलिव्यवहारानुसारिं प्रतिलेखनादिक क्रिया पणि केवलीनिं छइ ते प्रीछवू ।। ९३ ॥ "बिलवासी मनुष्य पणि जातिस्मरणादिकिं मांसभक्षण अतिनिंदित जाणी परिहरइ छइ, ते माटिं मांसभक्षणथी सम्यक्त्वनो नाश ज होइ' एहवू लिख्यूं छइ ते न घटइ, जे माटिं मांसभक्षणनी परिं परदारागमन पणि महानिंदित छइ तेहथी सत्यकिविद्याधर प्रमुखनि जो सम्यक्त्व न गयुं तो मांसभक्षणथी कृष्णादिकनुं सम्यक्त्व न जाइ तिहां बाधक नथी ।। ९४ ॥ "मांसाहार नरकायुर्बन्धस्थानक छइ ते माटिं तेहनी अनिवृत्तिं सम्यक्त्व न होइ" एहवू लिख्यूं छइ ते न घटइ, जे माटिं महारंभ-परिग्रहादिक पणि नरकायुबंधस्थानक छइ तेहनी अनिवृत्ति प्रति जिम कृष्णादिकनिं सम्यक्त्व छ। तिम मांसभक्षणनी अनिवृत्तिं पणि सम्यक्त्व होइ तिहां बाधक नथी । ९५ ॥ “तए णं से दुवए राया कंपिल्लपुरं णगरं अणुप्पविसइ अणुप्पविसित्ता विपुलं असणं ४ उवक्खडावेइ उवक्खडावित्ता कोडंबिय पुरिसे सद्दावेइ सद्दावेत्ता एवं वयासी-गच्छह णं तुब्भे देवापुप्पिया ! विपुलं असणं ४ सुरं मज्जं मंसं पसन्नं च सुबहपुप्फफलवत्थगंधमल्लालंकारं च वासुदेवपामोक्खाणं रायसहस्साणं आवासेस साहरह ते वि साहरंति तए णं ते वासुदेवप्पामोक्खा विपुलं असणं ४ जाव पसन्नं असाएमाणा विहर(रं)ति" (ज्ञा.सू.१९८) ए षष्ठांगसूत्रवर्णनमात्र ज एहवू लिख्यूं छइ" इम सद्दहतां नास्तिकपणूं थाइ, जे माटि स्वर्गादि सूत्र पणि वर्णनमात्र कहतां कुण ना कहइ ? ॥ ९६ ।। "ए सूत्रमा वासुदेवनिं मांसपरिभोग ते आज्ञा द्वारांइं जाणवो. आज्ञा पणि ते ते अधिकारीनी द्वाराई, पणि साक्षात् नहि' एहवी कल्पना करी छइ ते न घटइ. जे मार्टि आस्वादक्रियानो अन्वय वासुदेवप्रमुखनि कहिओ छइ तेहमांथी वासुदेवनि आज्ञाद्वाराई आस्वादनक्रियानो अन्वय कहिइ तो वाक्यभेद थाइ एहवी कल्पना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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