Book Title: Anusandhan 1996 00 SrNo 07
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
View full book text
________________
[32]
सिद्धर्षीय हेयोपादेय उपदेशमालावृत्ति केतलीएक परति अनंता भव दीसइ छइ ते माटि ते परतिनी अपेक्षा तिम कहवी, पणि बीजा ग्रंथनी अपेक्षाई परिमित भव ज जमालिनिं कहवा एहवूं परमगुरुनूं वचन उवेखी अन्यथा एकांत अनंता भव जमालिनिं कहइ छइ ते न घटइ ॥ ४९ ॥
" तिर्यग्योनिक' शब्द ज सिद्धान्तनी शीलीइं अनंत भवनो वाचक छ, एहवूं लिख्यूं छइ तिहां 'तिर्यग्योनीनां च' ए तत्त्वार्थसूत्रनी साखि दीधी छइ ते न घटइ, जे माटिं तत्त्वार्थसूत्रमां कायस्थितिनिं अधिकारिं तिर्यचनिं अनंतकाल स्थिति लिखी छइ पंणि तिर्यग्योनिक शब्द शीलीइं अनंता भव आवई एहवं किहांइ कहिउं नथी ॥ ५० ॥
'अशक्यपरिहार जीवविराधनाएं केवलीनिं जीवदयानो काययत्र निःफल थाइ" एहवूं लिख्यूं छइ ते न घटइ, जे माटिं देशना देतां अभव्यादिकनिं विषई जिम केवलीनो वचनयन निः फल न होइ तिम विहारादिक करतां काययत्त्र पणि जावो ॥ ५१ ॥
44
" तस्य असंचेय (य) उ, संचेययओ अ जाई सत्ताई जोगं पप्प विणस्संति, णात्थि हिंसाफलं तस्स || "
ए ओघनिर्युक्ति गाथानो एहवो भाव छइ जे ज्ञानी कर्मक्षयनि अर्थिं उजमाल थयो तेहनिं यतना करतां पणि जीवनिं अणजाणवइ तथा जाणतां पणि यत्न करतां न राखी सकाई तेणि करी तेहना योग पामी जे जीव विणसइ छइ तेहनूं हिंसाफल सांपरायिक कर्मबंधरूप नथी केवल ईर्याप्रत्यय कर्म बंधाइ इहां ज्ञानी ११ गुणठाणानो ज जे लिइ छइ तो न मिलइ, जे माटि समान्यथी ज ज्ञानी इहां कहिओ छइ अनिं अशक्य परिहार तो योगद्वारांई केवलिनिं पणि संभवइ ॥५२॥
“जीवरक्षोपायना अनाभोगथी ज यतीनिं जीवघात हुइ तेटल्यइ ते केवलीनिं न होइ" एहवूं कहइ छइ ते न घटइ, जे मार्टि ए रीतिं सहजि ज केवलीनिं जीवरक्षा होइ तो पन्त्रवणामां ३६ पदि जीवकुल भूमि देखी केवलीनिं उल्लंघन प्रलंघन क्रिया कही छइं ते न मिलइ ते आलावानो ए पाठ
"कायजोगं जुंजमाणे आगच्छेज्ज वा गच्छेज्ज वा चिट्ठेज्ज वा णिसीएज्ज
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org

Page Navigation
1 ... 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130