Book Title: Anusandhan 1996 00 SrNo 07 Author(s): Shilchandrasuri Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad View full book textPage 7
________________ 21 ॥ पट्टावली विसुद्धि ॥ पणमिअ पासजिणिंदं संखेसरपुरपइट्ठिअं धीरं । पट्टावलीविसुद्धि, सम्मं सुअणाण दंसेमि ॥१॥ पट्टधरो पइ गच्छं एगोणेगेव जेसि गणणुण्णु[ ०ण्णा] । गुरुणेव कया विहिणा, णउणं सा वीससावि भवे ॥२॥ गणणुण्णाइ कयाए, पट्टो दिण्णो हविज्ज णियमेणं । आयरिआ हीणंता पट्टधरतं णउ सयंभु ॥३।। भट्टारगो णिमित्तं, पट्टधरत्तस्स तं च तक्कज्जं । एवं च कज्जकारणभावो उभयट्ठिओ णियमा ॥४॥ संतंमि कारणंमी कज्जुप्पत्तीइ सो हवइ सिद्धो । तेण निमित्ताभावे, कज्जं होइत्ति दुव्वयणं ॥५॥ जह जण्णजणगभावो पितिपुत्ताणं धुवं सपियरंमि । संतंमिव नासंते पुत्तुप्पत्तीइं संभवइ ॥६॥ होऊण पुणो तंमिअ, ठिअंभि भावंमि तेसिमण्णयरो । पितिपुत्तमाइयाणं संतो संतो वि वा हुज्जा ॥७॥ णउणं सो संबंधो उभयलिओ सव्वलोअसुपसिद्धो । केणवि पडिसेहेउं सक्को सक्कोवमेणावि ॥८॥ इयरं विणण्णहासो संबंधेणं हवंत वत्तव्वा । संबंधो वट्विअओ कहंचि अणवट्ठिआ अण्णे ॥९॥ एवं कज्जं कारणनिययं ण हु कारणं विणा होइ । उप्पाविऊण कज्जं विरमइ पुण कारणं सव्वं ॥१०॥ तत्तो अकज्जजायं कारणजायं निमित्तमाईयं । अण्णुण्णं निरविक्खं हवेइ णियमेण कयकिच्चं ॥११॥ कज्जं व कारणं वा अन्ना तेण कारणाईणं । सब्भावाभावाणं, कयावि न मुहं पलोएइ ॥१२॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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