Book Title: Anekant 1986 Book 39 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 4
________________ विचारणाय-प्रसग: परिग्रह की घुस पैठ में अहिंसा की लाक्षणिक हत्या 0 ले० पप्रचन्द्र शास्त्री स्वामी समन्तभद्रं जैन-दर्शन के ज्ञाता प्रकाण्ड विद्वान है-वहां वे सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र को धर्म कहते हैथे। उन्होंने श्रावकाचार के मंगलाचरण में तीर्थकर वर्ध- "सद्दष्टिज्ञानवृत्तानि धर्म धमेश्वरा: विदुः।" मान को "निर्धत-कलिलात्मने" रूप में नमस्कार किया है श्री उमा स्वामी महाराज सूत्र के प्रारम्भ में "सम्यगऔर "कलिल" को श्री प्रभाचन्द्राचार्य ने ज्ञानावरणादिरूप दर्शनज्ञान-चारित्राणि मोक्षमार्गः" द्वारा तीनो के एकत्व को पाप कहा है । इसी रत्नकरण्ड के दूसरे श्लोक मे स्वामी मोक्षमार्ग बतलाते है जो मुनिपद मे ही संभव है । आचार्य समन्तभद्र ने इन्ही कर्मों के विनाशक धर्म के वर्णन की कुन्दकुन्द देव तो रत्नत्रय मे अभेद होने की बात पहले ही प्रतिज्ञा की है। तथाहि-"नमः श्री वर्धमानाय निर्धत- कह चुके है। लिलात्मने" "देशयामि समीचीनं धर्म कर्मनिवईणम"- सम्यग्दर्शन ज्ञान और चारित्र में एकत्व स्थापित हो उक्त प्रसंग से इतना तो स्पष्ट है कि स्वामी समन्त- और तीनों पृथक न रहे यह मोक्ष प्राप्ति का साक्षात मार्ग भद्र की श्रद्धा आत्मा की परिग्रहातीत निर्मल दशा पर है और पूर्ण अपरिग्रहत्व का यही रूप है जिसमें आत्मा रही है। वे पाप कर्म रहित निर्मल आत्मा को इष्ट मानते पूर्णतया निर्मल होता है-श्रावकाचार तो मात्र अभ्यास हैं। इनसे पूर्व आचार्य कुन्दकुन्द ने भी वन्धरूप होने से दशा है । आचार्यों ने निर्मल आत्मा को रत्नत्रय रूप और कर्म-पर्याय मात्र को पाप कहा है। उन्होने पण्य-पाप मे पूर्ण अपरिग्रही घोषित किया है। क्योंकि परिग्रह मे रत्नवंध की अपेक्षा भेद ही नहीं माना-दोनो को ही कत्सित त्रय को पूर्णता नही और रत्नत्रय की पर्णता के बिना भाव कहा । वे कहते हैं आत्मा का शुद्धत्व भी नही। यतः-सम्यग्दर्शन आत्मान"कम्ममसुह कुसील सुहकम्मं चावि जाणह कुसील। भूति का नाम है और आत्मा की अनुभूति ज्ञानरूप होने से वह त होइ सुसील ज ससार पवेसेदि ॥" सम्यग्दर्शन से अभिन्न है तथा सम्यक्चारित्र आत्म-रमणरूप -जैसे अशुभ कर्म कुशील है वैसे ही शुभ कर्म भी क्रिया होने से सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान से अभिन्न है कुशील है। भला जो संसार में घुमाता हो-प्रवेश कराता और यह अभिन्नता अपने मे रहने पर ही सभव है। जब हो वह सुशील कैसे हो सकता है, अर्थात् नही हो सकता। तक पर अर्थात् परिग्रह मे प्रवेश की बात है तब तक रत्नआचार्य समन्तभद्र ने इन्ही कर्मों के निवहण--विनाश त्रय की पूर्णता नही और तब तक मोक्ष भी नही। सि० करने वाले मार्ग को धर्म कहा है। इससे यह स्पष्ट है कि चक्रवर्ती नेमिचन्द्राचार्य के कथनानुसार "रयण तय ण वट्टइ उक्त आचार्यों के मत मे और समस्त जैन-दर्शन मे धर्म वही है अप्पाण मुयतु अण्णदविय म्हि" और कुन्दकुन्दाचार्य के अनुजो कर्मों से --परिग्रह से छुटकारा दिलाकर स्व-स्वभाव मे सार "ताणि पुण जाण तिणि वि अप्पाण चेव पिच्छयदो" स्थापित कराने वाला हो । अब यह विज्ञों का काम है कि और अमृतचन्द्राचार्य के अनुसार "दर्शन ज्ञान चारिस्त्रिवे ऐसे धर्म को पहचानें । इसी श्रावकाचार मे आगे चल त्वादेकत्वतः स्वयम्" सभी शुद्धात्मा रूप ही ठहरते हैंकरें श्रावकाचार प्रसग में धर्म की जो परिभाषा दी गई है पर अर्थात् परिग्रह के लेश से भी यछते । उसमे उनकी कर्म निवर्हण वाली बात को पूर्ण पुष्टि होती हम "पर" को परिग्रह कहते है चाहे वह पर किसी निधूतं स्फोटित कलिल ज्ञानावरणादिरूप पापमात्मनः ।" -रत्नक० टीका ।

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