Book Title: Anekant 1986 Book 39 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 3
________________ मोम महम UULL स HI VAM O वर्ष ३६ किरण १ परमागमस्य बीजं निषिद्धजात्यन्धसिन्धुरविधानम् । सकलनयविलसितानां विरोधमथनं नमाम्यनेकान्तम्॥ वीर-सेवा मन्दिर, २१ दरियागंज, नई दिल्ली-२ ( जनवरी-मार्च वीर-निर्वाण संवत् २५११, वि० स० २०४२ . १९८६ प्रादिनाथ-जिन-स्तवन कायोत्सर्गायताङ्गो जयति जिनपतिनाभिसूनुर्महात्मा मध्याह्न यस्य भास्वानुपरिपरिगतो राजतिस्मोप्रमूर्तिः । चक्रं कर्मेन्धनानामतिबह दहतादूग्मौदाव्यवात-- स्फूर्जत्सद्धयानवह्नरिव रुचिरतरः प्रोद्गतो विस्फुलिङ्गः ॥५॥ -पग्रानन्द्याचार्य कायोत्सर्ग मुद्रा परि वनमें ठाढ़े रिषभ रिद्धि तजि दीनी। निहिचल अंग मेर है मानो दोऊ भुजा छोर जिनि दोनी। फंसे अनन्त जन्तु जग-चहले दुखी देख करुणा चित लोनी । काढ़न काज तिन्हें समरथ प्रभु, किषों बांह ये दीरघ कोनी ॥ -भूधरदास अर्थ-कायोत्सर्ग के निमित्त से जिनका शरीर लम्बायमान हो रहा है, ऐसे वे नाभिराय के पुत्र महात्मा आदिनाथ जिनेन्द्र जयवन्त होवें, जिनके ऊपर प्राप्त हआ मध्यान्ह (दोपहर) का तेजस्वी सूर्य ऐसा सुशोभित होता है मानो कर्म रूप ईन्धनों के समह को अतिशय जलाने वाली एवं उदासीनतारूप वाय के निमित्त से प्रगट हई समीचीन ध्यान रूपी अग्नि की दैदीप्यमान चिनगारी ही उन्नत हुई हो। विशेषार्थ-भगवान आदिनाथ जिनेन्द्र की ध्यानावस्था में उनके ऊपर जो मध्यान्ह काल का तेजस्वी सयं आता था उसके विषय में स्ततिकार उत्प्रेक्षा करते हैं कि वह सूर्य क्या था मानों समताभाव से आठ कर्मरूपी ईन्धन को जलाने के इच्छुक होकर भगवान आदिनाथ जिनेन्द्र द्वारा किए जाने वाले ध्यानरूपी अग्नि का विस्फुलिंग ही उत्पन्न हुआ है।

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