Book Title: Anekant 1954 04 Author(s): Jugalkishor Mukhtar Publisher: Jugalkishor Mukhtar View full book textPage 5
________________ किरण ११ ] मूलाचार की मौलिकता और उसके रचयिता [३३१ पल्यकी वृद्धि होती है। ऐसा मूलाचारमें आचार्य स्पष्ट. जो प्रश्न और उत्तर रूपसे दो गाथाएं पाई जाती हैं, वे तासे निरूपण करते हैं ॥१३२॥ भी श्वेता० प्राचारांगमें उपलब्ध नहीं हैं, जब कि वे दोनों यतिवृषभने यहां मूलाचारके जिस मतभेदका उल्लेख गाथाएं मूलाचारके समयसाराधिकारमें पाई जाती हैं किया है. वह वर्तमान मलाचारके बारहवें पर्याप्त्यधिकारकी और इस प्रकार हैं:८०वीं गाथामें उक्त रूपसे ही इस प्रकार पाया जाता है:- कधं चरे कधं चिट्ठ कधमासे कधं सये ? पणयं दस सत्तधियं पणवीसं तीसमेव पंचधियं । कधं भुजेज भासिज कधं पावं ण बज्झदि ॥१२१ चत्तालं पणदालं पण्णाओ पएणपण्णाओ॥८॥ जद चरे जदं चिट्ठ जदमासे जदं सये । अर्थात्-देवियोंकी आयु सौधर्म-ईशान कल्पमें पांच जदं भुजेज भासेज एवं पावं ण बज्झइ ॥१२२॥ पल्य, सन कुमार माहेन्द्रकल्पमें सत्तरह पल्य, ब्रह्म ब्रह्मोत्तर धवला टीकाके उपयुक्त उल्लेखसे तथा हम दोनों कल्पमें पच्चीस पक्ष्य, लान्तव-कापिष्ठ-करूपमें पैंतीस पल्य, गाथाओंकी उपलब्धिसे वर्तमान मूलाचार ही आचारांग शुक्र-महाशुक्रमें चालीस पल्य, शतार-सहस्रारकल्पमें। पैंतालीस पल्य, श्रानत-प्राणत कल्पमें पचास पस्य और । सूत्र है, यह बात भले प्रकार सिद्ध होती है। अब देखना यह है कि स्वयं मूलाचारकी स्थिति क्या भारण-अच्युत कल्पमें पचवन पल्य है॥ है और वह वर्तमान में जिस रूप में पाया जाता है उसका यतिवृषभाचार्यके इस उल्लेखसे मूलाचारकी केवल वह मौलिक रूप है या संगृहीत रूप? प्राचीनता ही नहीं, किंतु प्रमाणिकता भी सिद्ध होती है। मूलाचारकी टीका प्रारम्भ करते हुए प्रा. वसुनन्दीने यहाँ एक बात और भी जानने योग्य है और वह यह जो उत्थानिका दी है, उससे उक्त प्रश्न पर पर्याप्त प्रकाश कि मूलाचार-कारने देवियोंकी मायुसे सम्बन्ध रखने वाले पड़ता है अतः उसे यहां उदधृत किया जाता है। वह जहां केवल दो ही मतोंका उल्लेख किया है, वहां तिलोय उस्थानिका इस प्रकार है:पण्णत्तीकारने देवियोंकी आयु-सम्बन्धी चार मत-भेदोंका उल्लेख किया है। उनमें प्रथम मतभेद तो बारह स्वर्गोंकी श्रुतस्कन्धाधारभूतमष्टादशपदसहस्रपरिमाणं, मूलमान्यता वालोंका है। तीसरा मतभेद 'लोकायनी' (संभवतः गुणप्रत्याख्यान-संस्तर-स्तवाराधना-समयाचार-पंचाचार पिंडशुद्धि-षडावश्यक-द्वादशानुप्रेक्षाऽनगारभावनालोकविभाग) ग्रन्थका है। दूसरा और चौथा मत मूलाचार का है। इससे एक खास निष्कर्ष यह भी फलित होता है समयसार-शीलगुणप्रस्तार-पर्याप्त्यधिकार-निबद्धमहार्थ गभीरं, लक्षणसिद्धपदवाक्यवर्णोपचितं, घातिकर्मक्षयोकि मूलाचार-कारके सम्मुख जब दो ही मत-भेद थे. तब त्पन्नकेवलज्ञानप्रबुद्धाशेषगुणपर्यायखचितषड्द्रव्यनवपतिलोयपण्णत्ती-कारके सम्मुख चार मतभेद थे-अर्थात् दार्थजिनवरोपदिष्टं, द्वादशविधतपोऽनुष्ठानोत्पन्नानेकतिलोयपण्णत्तीके रचना-कालसे मूलाचारका रचना-काज इतना प्राचीन है कि मूलाचारकी रचना होने के पश्चात् प्रकारद्धिसमन्वितगणधर देवरचितं मूलगुणोत्तरगुणस्वऔर तिलोयपण्णत्तीकी रचना होनेके पूर्व तक अन्तराल- रूपावकल्पापायसाधनसहायफलानरूपणप्र रूपविकल्पोपायसाधनसहायफलनिरूपणप्रवणमाचारांगवर्ती काल में अन्य और भी दो मत-भेद देवियों की प्रायुके माचार्यपारम्पर्यप्रवर्तमानमल्पबलमेधायु-शिष्यनिमित्तं विषयमें उठ खड़े हुए थे और तिलोयपएणत्तीकारने उन द्वादशाधिकारैरुपसंहतुकामः स्वस्य श्रोतृणां च प्रारब्धसबका संग्रह करना प्रावश्यक समझा । कार्यप्रत्यूहनिराकरणक्षमं शुभपरिणामं विदधच्छीवट्ट- इन दो उल्लेखोंसे मूलाचारकी प्राचीनता और मौलि- केराचार्यः प्रथमतरं तावन्मूलगुणाधिकारप्रतिपादनार्थ कता असंदिग्ध हो जाता है। मंगलपूर्विकां प्रतिज्ञां विधत्ते- यहां एक बात और भी ध्यान देने योग्य यह है कि अर्थात् जो श्रुतस्कन्ध-द्वादशाङ्गरूप श्रुतवृतका आधारधवला टीकामें जो गाथा भाचारांगके नामसे उद्धत है, भूत है, अट्ठारह हजार पद-परिमाण है, मूलगुण वह श्वेत. पाचारांगमें नहीं पाई जाती। इसके अतिरिक्त प्रादि बारह अधिकारोंसे निबद्ध एवं महान् अर्थ-गाम्भीर्यराजवातिक मादिमें भाचारांगके स्वरूपका वर्णन करते हुए से युक्त है, लक्षण-सिद्ध वर्ण, पद और वाक्योंसे सम Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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