Book Title: Anekant 1954 04
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Jugalkishor Mukhtar

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Page 14
________________ किरण ११] आय और द्रविड़के संस्कृति सम्मेलन उपक्रम [३४१ यही जीवन समस्त सुख-दुःखाका एक मात्र आधार हो अध्यात्मवादकी ओर गया । और ब्रह्मा, प्रजापति,विश्वकर्मा-आदि नामोंसे निर्देश इस प्रकार वैदिक जिज्ञासा तर्कहीन विश्वाससे होने लगा । परन्तु प्रास्माका प्ररक सत्ताको छोड़कर जो निकल कर एक सतर्क विचारणाकी ओर वह रही थी। समस्त देवतामाका जनक है, जो प्रारम अनुरूपही देव- इनकी इस तर्कयक्त प्राधिदैविक विचारणामेंसे ही आगे ताओंकी सृष्टि करने वाला है, जो समस्त प्रकारके दर्शनों चल कर ईश्वर और सृष्टिप्रलयवाद-मूलक वैशेषिक तथा (Philosphies) विज्ञानों (Since) और कलाओंका नैयायिक दर्शनका जन्म हुआ। इसमेंसे ही सृष्टिपूर्व अवस्था रचयिता है, समस्त रूपोंका सृष्टा है किसी बाह्य अनात्म सत्ता सम्बन्धी सत्-असत्, सदसत् रूप तीन वादोंका भी विकास को संसारका प्रेरक मानने में जो ऋटियाँ बहु देवतावादमें हश्रा, उपरोक्त सिदान्तोंके निर्माणमें यद्यपि उन माध्या मौजूद थी-वही त्रुटियाँ इस एक देवतावादमें भी थी स्मिक श्राख्यानोंकी गहरी छाप पड़ी है, जो संसार सागरइसीलिये जीवन और जगतके प्रति निरन्तर बढ़ती हुई वाद, संसारीच्छेदकपुरुष जन्मवाद, ज्ञानात्मक सृष्टिवाद, जिज्ञासा इस एक देवतावादसे भी शान्तन हो सकी। वह तपध्यानविलीनताख्य प्रलयवादके सम्बन्धमें दस्युलोगोंने प्रश्न करती ही चली गई। लघुएशियायी देशों में पहिलेसे ही प्रसारित किये हुए थे। तो भी आधिदैविक रूपमें ढलनेके बाद वे उनकी विचारसृष्टिकालमें विश्वकर्माका प्राश्रय क्या था? कहाँ से और कैसे उसने सृष्टि कार्य प्रारम्भ किया? विश्वदर्शक देव णाकी स्वाभाविक प्रगतिका ही फल कहे जा सकते हैं। विश्वकर्माने किस स्थान पर रहकर पृथ्वी और आकाशको परन्तु यह सब कुछ होने पर भी वैदिक विश्व देवता प्रेरित बनाया ? वह कौलमा वन और उसमें कौमसा वृक्ष है. एक निरर्थक बस्तु और मानव एक शुष्क अस्थिकालसे जिससे सृष्टि कर्ताने द्यावा पृथ्वीको बनाया ? विद्वानों! श्रागे न बढ़ सका, एक प्रजापतिबादकी ऋग्वेद 1-14, और १०.८ में किये गये, (क्यों कब और कैसे सृष्टिकी अपने मनको पूछ देखो कि किस पदार्थके ऊपर खड़ा होकर ईश्वर सारे विश्वको धारण करता है। . रचना हुई)' प्रश्नोंका हल न कर सकी । मस्तिष्क निरन्तर एक ऐसे अहंकारमय चैतन्य तस्वकी मांग करता रहा, जो ___ "वह कौनसा गर्भ था जो धु लोक, पृथ्वी, असुर देवा अपनी कामनानासे इस विश्वको सार्थक बनादे, और इस के पूर्व जलमे अवस्थित था, जिसमें इन्द्रादि सभी देवता कंकालको अपनी मादकता और स्फूर्तिसे उद्वीप्त करदें। रहकर समष्टि से देखते थे२ । चुनांचे हम आगे चल कर देखते हैं कि इस मांगके . "विद्वान् कहते हैं कि सृष्टिसे पहिले सब ओर अन्ध भनुरूप ही वैदिक विचारणामें सहसा ही एक ऐसी क्रांतिका कार छाया हुआ था, सभी अज्ञात और जल मग्न था, उदय हुमा जिसने इसकी दिशाको बाहरसे हटा भीतरकी ओर मोड़ रिया, उसे देवतावादसे निकाल पात्मवादमें जुटा तपस्याके प्रभावसे वह एक तत्व (प्रजापति ) पैदा हुआ। उसके मनमें सृष्टिकी इच्छा पैदा हुई । परन्तु इन उक्त दिया। इस क्रान्तिके फलस्वरूप ही उसे प्रथम बार यह भान हा कि रंगरूप वाला विश्व जिसकी चमत्कारिक अभिबातोंको कौन जानता है। और किसने इन बातोंको जताया? व्यक्तियोंके माधार पर वह इसे महाशक्ति और बुद्धिमान यह विसृष्टि किस उपादान कारणसे पैदा हुई। देवता लोग तो इस विसृष्टिके बाद ही पैदा हुए । इसलिए देवताओंसे अनुशासित मानता रहा है, सत् होते भी यह कौन जानता है कि सृष्टि उस प्रकारसे पैदा हुई। यह असत् है, ऋतवान् होते हुए भी, अनृतसे भरपूर है, विस्टष्टि उसमें से पैदा हुई। जो इसका अध्यक्ष है और सुन्दर होते भी कर उपद्रवोंका घर है यह रोग-शोक परम व्योमम रहता , वही ये बातें जानता होगा और और मौतसे व्याप्त है, यह कभी किसीके वशमें नहीं हो सकता है कि वह भी न जानता हो (३)। - रहता , इसकी ममता, इसका परिग्रहण बहुत दुःखमय है। अग्नि वायु इन्द्र आदि विश्वदेवताओंमें जो शक्ति दिखाई (1) ऋगवेद १०.८७ देती है, वह उनकी अपनी नहीं है। इन्हें उद्विग्न और (२) ऋग्वेद १०-८२ विलोडित करनेवाली कोई और ही भीतरीही शक्ति है। (३) ऋग्वेद १०-१२ वैदिक विचारणाकी यह क्रान्ति उसकी स्वाभाविक Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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