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किरण ११]
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के इस षडावश्यक अधिकार में पाया जाता है। अतः कुछ गाथाएँ उपलब्ध श्वेताम्बरीय नियुक्तियों में पाये जानेके कारण संग्रह ग्रंथ होने की जो कल्पना की थी वह ठीक नहीं है; क्योंकि वे नियुक्तियाँ विक्रमकी छठी शताब्दी से पूर्वको बनी हुई नहीं जान पड़ती + हैं और मूलाचार उनसे कई सौ वर्ष पूर्वका बना हुआ है; क्योंकि उसका समुल्लेख विक्रमकी पांचवी शताब्दीके आचार्ययतिवृषभन अपनी 'तिलोयपण्णत्ती' के आठवें अधिकार की ५३२वीं गाथामें 'मूलायारे' वाक्यके साथ किया है जिससे मूलाचार की प्राचीनता पर अच्छा प्रकाश पड़ता है । उसके बाद आचार्यकल्प पण्डित श्राशाधरजीने अपनी 'अनगारधर्मामृत टीका' ( वि० सं० १३००) में 'उक्तं च मूलाधारे' वाक्यके साथ उसकी निम्नगाथा उद्धृत की है जो मूलाचार में ५१६ नं० पर उपलब्ध होती है । सम्मत्तणाण संजम तवेहि जं तं पसत्थ समगमणं । समयं तु तं तु भणिदं तमेव सामाइयं जाणे ।।
- अनगारधर्मामृत टी० पृ० ६०५
इनके सिवाय, आचार्य वीरसेननं अपनी धवला टीका में 'तह प्रयरंगे विबुत्तं' वाक्यके साथ 'पंचस्थिकाया' नाम की जो गाथा समुह त की है वह उक्त श्राचारांग नं ४०० नं० पर पाई जाती है। वर्तमान में उपलब्ध श्वेताम्बरीय आचारांग में नहीं है । इससे स्पष्ट है कि इस ग्रन्थकी प्रसिद्धि पुरातन काल से मूलाचार और आचारांग दोनों नामोंसे रही है ।
आचार्य वीरनन्दी ने जो मेधचन्द्र त्रैविद्यदेवके शिष्य एवं पुत्र थे, और जिनका स्वर्गवास शक संवत् १०३७ ( वि० सं० ११७२ ) में हुआ था । अतः यही समय (विक्रमकी १२वीं शताब्दी) श्राचार्य वीरनन्दीका है । आचार्य बीरनम्दीने अपने श्राचारसार में मूलाचार की गाथाओं का प्रायः अर्थशः अनुवाद किया है X। श्राचार्य वसुनन्दी ने उक्त मूलाचार पर 'अचारवृत्ति' नामकी टीका लिखी है जिसका उल्लेख ऊपर किया जा चुका विक्रमको १५ वीं शताब्दी के प्रसिद्ध महारक सकलकीर्तिने
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मूलाचार संग्रह ग्रन्थ न होकर आचाराङ्गनके रूपमें मौलिक ग्रन्थ है।
+ देखो, अनेकान्त वर्ष ३ कि० १२ में प्रकाशित 'भद्रबाहुस्वामी' नामका लेख ।
x देखो, 'वीरननन्दी और उनका आचारसार' नामका मेरा लेख, चैन सि० भास्कर भा० ६ किरण १
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अपने मूलाचार प्रदीप' नामक ग्रन्थ में भी मूलाधारकी गाथाओं का सार दिया है। इन सब उबलेखोंसे दिगम्बर समाज में मूलाचारके प्रचार के साथ उसकी प्राची
ताका इतिवृत्त पाया जाता है, जो इस बातका द्योतक है कि यह मूलग्रन्थ दिगम्बर परम्पराका मौलिक आचारांग सूत्र है, संग्रह ग्रन्थ नहीं हूँ ।
अतः श्वे० नियुक्तियों परसे 'मूलाचार' में कुछ गाथाओंके संग्रह किये जानेकी जो कल्पना की गई थी, वह समुचित प्रतीत नहीं होती; क्योंकि वीर शासनकी जो श्रुत सम्पत्ति दिगम्बर- श्वेताम्बर सम्प्रदायोंमें परम्परासे दुभिक्षादि मतभेदके कारण बटी, वह पूर्व परम्परासे दोनोंके पास बराबर चली आ रही थी । भद्रबाहु श्रुतकेवली तक दिगम्बर श्वेताम्बर जैसे भेदों की कोई सृष्टि नहीं हुई थी, उस समय तक भगवान महावीरका शासन यथाजात मुद्रारूप में ही चल रहा था। उनके द्वारा रची गई नियुक्तियाँ उस समय साधु सम्प्रदाय में प्रचलित थीं, खास कर उनके शिष्य-प्रशिष्यों में उनका पठन-पाठन बराबर चल रहा था। ऐसी हालत में मूलाचार में कुछ गाथाओंकी समानता परसे आदान-प्रदानकी कल्पना करना संगत नहीं जान पड़ती ।
मूलाचारके कर्त्ताने 'अनगार भावना' नामके अधिकारका प्रारम्भ करते हुए मंगलाचरणमें त्रिभुवन जबक्षी तथा मंगलसंयुक्त अर्थात् सर्वकर्मके जलाने में समर्थ पुण्यसे युक्त, कंचन, पिरंगु, विद्रुम, घण, कुन्द और मृणाल रूप वर्णविशेष वाले जिनवरोंको नमस्कार कर नागेन्द्र, नरेन्द्र और इन्द्रसे पूजित अनगार महषियोंके विविध शास्त्रोंके सारभूत महंत गुणवाले 'भावना' सूत्रको कहनेका उपक्रम किया है । यथा
वंदित्तु जिणवराणं तिहुयण जय मंगलो व बेदाणं । कंचरण-पियंगु-विद्रम-घण-कुंद - मुणाल लवणाणं ।। अणयार महरिसिगं खाईंद गरिंदं इंद महिदाणं । वोच्छामि विवहसारं भावणसुत्त गुणमहतं ॥
इस अधिकारमें लिंगशुद्धि, वशुद्धि, वसतिशुद्धि भिक्षाशुद्धि, ज्ञानशुद्धि, उज्मनशुद्धि - शरीरादिकसे ममत्वका त्याग - स्त्रीकवादिरहित वाक्यशुद्धि, तपशुद्धि - पूर्वकर्म रूप मलके शोधन में समर्थ अनुष्ठान – ध्यान शुद्ध एका चिन्तानिरोधरूपप्रवृत्ति- इन दश अधिकारोंका सुन्दर
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