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भनेकान्त
अप्रैल १९५४
सम्पादक-मण्डल श्रीजुगलकिशोर मुख्तार 'युगवीर' वा० छोटेलाल जैन M. R.A.S. बा० जय भगवान जैन एडवोकेट पण्डित धर्मदेव जैतली पं० परमानन्द शास्त्री
अनेकान्त वर्ष १२ किरण ११
केशरिया जी (उदयपुर) क. प्रसिद्ध कलापूर्ण दिगम्बर जैन मन्दिर
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बिषय-सूची , चिन्तामणि-पार्श्वनाथ-स्तवन-[ सोमसेन ३२६ ५ वैभवको शृङ्खलाएँ (कहानी) २ मूलाचारको मौलिकता और उसके रचयिता
[ मनु 'ज्ञानार्थी' साहित्यत्न . ३४३ [पं० हीरालालजी सिद्धान्त शास्त्री ३३० ६ धर्म और राष्ट्रनिर्माण-। प्राचार्य तुलली ३४ ३ मार्य और द्रविड़ संस्कृतिक सम्मेलनका उपक्रम- ७ बंकापुर--- [पं० के० भुजवलीजी शास्त्री ३५३
[बा. जयभगवानजी एडवोकेट ३३१ ८ मूलाचार संग्रहग्रन्थ न होकर प्राचाराङ्गके रूपमेमौलिक ४ युगपरिवर्तन (कविता)
ग्रन्थ है-[पं० परमानन्द शास्त्री
३५५ [ मनु 'ज्ञानार्थी' साहित्यरत्न
. विविध विषय महावीर जयन्ती आदि
समाजसे निवेदन 'अनेकान्त' जेन समाजका एक साहित्यिक और ऐतिहासिक सचित्र मासिक पत्र है । उसमें अनेक खोज पूर्ण पठनीय लेख निकलते रहते हैं । पाठकोंको चाहिये कि वे ऐसे उपयोगी मासिक पत्रके ग्राहक बनकर, तथा संरक्षक या सहायक बनकर उसको समर्थ बनाएं । हमें केवल दो सौ इक्यावन तथा एक सौ एक रुपया देकर संरक्षक व सहायक श्रेणी में नाम लिखाने वाले दो सौ सज्जनोंकी आवश्यकता है। आशा है समाजके दानी महानुभाव एक सौ एक रुपया प्रदानकर सहायकश्रेणीमें अपना नाम अवश्य लिखाकर साहित्य-सेवामें हमारा हाथ बंटायंगे।
मैनेजर-'अनेकान्त' ।
.. १ दरियागंज, देहली .
विवाहमें दान अमृतसर निवासी ला० मुन्नीलालजी जैनने अपने सुपुत्र चि० दर्शनकुमारके विवाहोपल चयमें १०१) रु. दानमे दिये हैं।
-जयकुमार जैन अनेकान्तको सहायताके सात मार्ग (1) अनेकान्तके 'संरक्षक' तथा 'सहायक' बनना और बनाना । (२) स्वयं अनेकान्तके ग्राहक बनना तथा दूसरों को बनाना। (३) विवाह-शादी आदि दानके अवसरों पर अनेकान्तको अच्छी सहायता भेजना तथा भिजवाना । (४) अपनी ओर से दूसरोंको अनेकान्त भेंट-स्वरूकर अथवा फ्री भिजवाना: जैसे विद्या-संस्थाओं. लायबेरियों,
सभा-सोसाइटियों और जैन-अजैन विद्वानों।। . (१) विद्यार्थियों आदिको अनेकान्त अर्ध मूल्यमें नेके लिये २५),५०) आदिकी सहायता भेजना । २५ की
सहायतामें १० को अनेकान्त अर्धमूल्यमें भेजा जा सकेगा। (६) अनेकान्तके ग्राहकोंको अच्छे ग्रन्थ उपहारमें देना तथा दिलामा। (७) लोकहितकी साधनामें सहायक अच्छे सुन्दर लेख लिखकर भेजना तथा चित्रादि सामग्रीको प्रकाशनार्थ जुटाना ।
सहायतादि भेजने तथा पत्रव्यवहारका पता:...नोट-दस ग्राहक बनानेवाले सहायकोंको
मैनेजर 'अनेकान्त' -. --'अनेकान्त' एक वर्ष तक भेंटस्वरूप भेजा जायगा।
वीरसेवामन्दिर, १, दरियागंज, देहली।
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वार्षिक मूल्य ६)
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वर्ष १२ किरण ११
विश्व तत्त्व-प्रकाशक
资
ॐ अर्हम
का
| नीतिविरोधध्वंसी लोकव्यवहारवर्तकः सम्यक् । | परमागमस्य बीजं भुवनैकगुरुर्जयत्यनेकान्तः ॥
वीर सेवामन्दिर, १ दरियागंज, दहली चैत्र वीर नि० संवत् २४८० वि० संवत् २०११
सोमसेन-विरचितम्
चिन्तामणि पार्श्वनाथ - स्तवनम्
वस्तु तत्त्व-संधोतर्क
श्रीशारदाssधारमुखारविन्दं सदाऽनवद्यं नतमौलिपादम् । चिन्तामरिंग चिन्तितकामरूपं पार्श्वप्रभ नौमि निरस्तपापम् ॥१॥ निराकृतारातिकृतान्तसङ्गः सन्मण्डली मण्डितसुन्दराङ्गम् । चिन्तामणिं चिन्तितकामरूपं पार्श्वप्रभु नौमि निरस्तपापम् ॥२॥ शशिप्रभा - रीतियशो निवासं समाधिसाम्राज्यसुखावभासम् । चिन्तामणिं चिन्तितकामरूपं पार्श्वप्रभु नौमि निरस्तपापम् ॥३॥ अनल्पकल्याणसुधाब्धिचन्द्र सभावलीसून - सुभाव - केन्द्रम् । चिन्तामरिंग चिन्तितकामरूपं पार्श्वप्रभु नौमि निरस्तपापम् ॥४॥ करालकल्पान्तनिवारकारं कारुण्यपुण्याकर- शान्तिसारम् । चिन्तामणिं चिन्ततकामरूपं पार्श्वप्रभुं नौमि निरस्तपापम् ॥५॥ वाणीरसोल्लासकरीरभूतं निरञ्जनाऽलंकृतमुक्तिकान्तम् । चिन्तामणि चिन्तितकामरूपं पार्श्वप्रभु नौमि निरस्तपापम् ||६|| क्रूरोपसर्ग परिहतु मेकं वाञ्छाविधानं विगताऽपसङ्गम् । चिन्तामणि चिन्तितकामरूपं पार्श्वप्रभु नौमि निरस्तपापम् ॥७॥ निरामयं निर्जितवीरमारं जगद्धितं कृष्णपुरावतारम् ।
चिन्तामणिं चिन्तितकामरूपं पार्श्वप्रभु नौमि निरस्तपापम् ||८|| अविरलकविलक्ष्मीसेनशिष्येन लक्ष्मी-विभरणगुणपूतं सोमसेनेन गीतम् । पठति विगतकामः पार्श्वनाथस्तवं यः सुकृतपदनिधानं स प्रयाति प्रधानम् ॥६॥
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एक किरण का मूल्य II)
अप्रैल
१६५४
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मूलाचारकी मौलिकता और उसके रचयिता
( श्री पं० हीरालाल जी सिद्धान्तशास्त्री ) 'मूलाचार' - जैन साधुनोंके आचार-विचारका निरूपण करने वाला एक बहुत ही महत्वपूर्ण एवं प्रामाणिक ग्रंथ है, जिसे दिगम्बर-सम्प्रदायका श्राचारांगसूत्र माना जाता है और प्रत्येक दिगम्बर जैन साधु इसके अनुसार ही अपने मूलोत्तर गुणोंका श्राचरण करता है ।
मूळाचार के कर्त्ता 'वट्टकेराचार्य माने जाते हैं, पर उनकी स्थिति अनिर्णीत या संदिग्धसी रहने के कारण कुछ विद्वान् इसे एक संग्रह ग्रन्थ समझते हैं और इसी लिये मूलाचार की मौलिक गाथाओंको ग्रन्थान्तरों में पाये जाने मात्र से वे उन्हें वहाँसे लिया हुआ भी कह देते हैं। श्वेताम्बर विद्वान् प्रज्ञाचक्षु पं० सुखलालजी सम्मति प्रकरण के द्वितीय संस्करणकी अपनी गुजराती प्रस्तावना में लिखते
:
• दिगम्बराचार्य वट्टकेरकी मानी जाने वाली कृति 'मुलाचार' ग्रंथका बारीक अभ्यास करनेके बाद हमें खातरी हो गई है कि वह कोई मौलिक ग्रन्थ नहीं है, परन्तु एक संग्रह है । वट्टरने सम्मतिकी चार गाथ ऍ ( २,४०३) मूलाचार के समयसाराधिकार १० ८०-६० ) में ली हैं, इससे अपन इतना कह सकते हैं कि यह ग्रंथ सिद्धसेन के बाद संकलित हुआ है ।"
इसी प्रकार कुछ दिगम्बर विद्वान् भी ग्रन्थकर्तादिकी स्थिति स्पष्ट न होने से इसे संग्रह प्रन्थ मानते श्रा रहे हैं, जिनमें पं० परमानन्दजी शास्त्रीका नाम उल्लेखनीय है । जिन्होंने अनेकान्त वर्ष २ किरण ५ में 'मूलाचार संग्रह ग्रन्थ है' इस शीर्षकसे एक लेख भी प्रगट किया है और उसके अन्त में लेखका उपसंहार करते हुए लिखा है:
"इस सब तुलना और ग्रन्थ के प्रकरणों अथवा अधिकारोंकी उक्त स्थिति परसे मुझे तो यही मालूम होता है कि मूलाचार एक संग्रह ग्रन्थ है और उसका यह संभहत्व अथवा संकलन अधिक प्राचीन नहीं है, क्योंकि टीकाकार वसुनन्दीसे पूर्व के प्राचीन साहित्य में उसका कोई उल्लेख अभी तक देखने तथा सुननेमें नहीं आया ।"
उपरि-लिखित दोनों उद्धारणोंसे यह स्पष्ट है कि ये विद्वान् इसे संकलित और अर्वाचीन ग्रंथ मानते हैं ।
पं० परमानन्दजीने 'मूलाचार' को अधिक प्राचीन न मानने में युक्ति यह दी है कि टीकाकार वसुनन्दोसे पूर्व के
प्राचीन साहित्य में उसका कोई उल्लेख अभी तक देखने व सुनने में नहीं श्राया । यह लेख आपने ८-१-३८ में लिखा था इसलिए बहुत संभव है कि तब तक आपके देखे हुए ग्रन्थोंमें इसका कोई उल्लेख थापको प्राप्त न हुआ हो । पर सन् १९३८ के बाद जो दि० सम्प्रदाय के षट्खंडागम, तिलोय पण्णत्ती आदि प्राचीन ग्रन्थ प्रकाशमें आए हैं, उन तक में इस मूलाचारके उल्लेख मिलते हैं। पाठकोंकी आनकारी के लिए यहाँ उक्त दोनों ग्रन्थोंका एक-एक उल्लेख दिया जाता है :
( १ ) षट्खण्डागम भाग ४ के पृष्ठ ३१६ पर धवला टीकाकार प्राचार्य वीरसेन अपने मतकी पुष्टि करते हुए लिखते हैं :
'तह आया रंगे वि उत्तंपंचत्थिकाया य छज्जीवणिकाय कालदव्त्रमण्णे य । आगेज्मे भावे आणाविचरण विचिणादि ||'
जाती
यह गाथा मूलाचार (१,२०२) में ज्योंकी त्यों पाई । इस उल्लेखसे केवल मूळाचारकी प्राचीनताका ही पता नहीं चलता, बल्कि वीरसेनाचार्य के समय में वह 'आचारांग ' नाम से प्रसिद्ध था, इसका भी पता चलता है । श्रा० वीरसेनकी धवला टीका शक सं० ७३८ में बन कर हुई है।
(२) दूसरा उल्लेख घबलाटीकासे भी प्राचीन ग्रन्थ तिलोयपत्ती में मिलता है, जो कि यतिवृषभकी बनाई हुई है और जिनके समयको विद्वानोंने पाँचवीं शताब्दी माना है । तिलोयपण्णत्तीके आठवे अधिकारकी निम्न दो गाथा
:
में देवियोंकी श्रायुके विषयमें मतभेद दिखाते हुए यतिवृषभाचार्य लिखते हैं :पलिदोवमाणि पंच य सत्तारस पंचवीस पणतीसं । चउसु जुगलेसु श्राऊ यादव्वा इंददेवीणं ॥ ५३१ ॥
रणदुगपरियं तं वड्ढ़ते पंचपल्लाई । मूलारे इरिया एवं णिउणं णिरूर्वेति ॥ ५३२॥
अर्थात् - चार युगलों में इन्द्र-देवियोंकी आयु क्रमसे पांच, सत्तरह, पच्चीस और पैंतीस पत्यप्रमाण जानना चाहिए ॥१३१॥ इसके आगे आरणयुगल तक पांच-पांच
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किरण ११ ] मूलाचार की मौलिकता और उसके रचयिता
[३३१ पल्यकी वृद्धि होती है। ऐसा मूलाचारमें आचार्य स्पष्ट. जो प्रश्न और उत्तर रूपसे दो गाथाएं पाई जाती हैं, वे तासे निरूपण करते हैं ॥१३२॥
भी श्वेता० प्राचारांगमें उपलब्ध नहीं हैं, जब कि वे दोनों यतिवृषभने यहां मूलाचारके जिस मतभेदका उल्लेख गाथाएं मूलाचारके समयसाराधिकारमें पाई जाती हैं किया है. वह वर्तमान मलाचारके बारहवें पर्याप्त्यधिकारकी और इस प्रकार हैं:८०वीं गाथामें उक्त रूपसे ही इस प्रकार पाया जाता है:- कधं चरे कधं चिट्ठ कधमासे कधं सये ? पणयं दस सत्तधियं पणवीसं तीसमेव पंचधियं । कधं भुजेज भासिज कधं पावं ण बज्झदि ॥१२१ चत्तालं पणदालं पण्णाओ पएणपण्णाओ॥८॥ जद चरे जदं चिट्ठ जदमासे जदं सये ।
अर्थात्-देवियोंकी आयु सौधर्म-ईशान कल्पमें पांच जदं भुजेज भासेज एवं पावं ण बज्झइ ॥१२२॥ पल्य, सन कुमार माहेन्द्रकल्पमें सत्तरह पल्य, ब्रह्म ब्रह्मोत्तर
धवला टीकाके उपयुक्त उल्लेखसे तथा हम दोनों कल्पमें पच्चीस पक्ष्य, लान्तव-कापिष्ठ-करूपमें पैंतीस पल्य,
गाथाओंकी उपलब्धिसे वर्तमान मूलाचार ही आचारांग शुक्र-महाशुक्रमें चालीस पल्य, शतार-सहस्रारकल्पमें। पैंतालीस पल्य, श्रानत-प्राणत कल्पमें पचास पस्य और ।
सूत्र है, यह बात भले प्रकार सिद्ध होती है।
अब देखना यह है कि स्वयं मूलाचारकी स्थिति क्या भारण-अच्युत कल्पमें पचवन पल्य है॥
है और वह वर्तमान में जिस रूप में पाया जाता है उसका यतिवृषभाचार्यके इस उल्लेखसे मूलाचारकी केवल
वह मौलिक रूप है या संगृहीत रूप? प्राचीनता ही नहीं, किंतु प्रमाणिकता भी सिद्ध होती है।
मूलाचारकी टीका प्रारम्भ करते हुए प्रा. वसुनन्दीने यहाँ एक बात और भी जानने योग्य है और वह यह
जो उत्थानिका दी है, उससे उक्त प्रश्न पर पर्याप्त प्रकाश कि मूलाचार-कारने देवियोंकी मायुसे सम्बन्ध रखने वाले
पड़ता है अतः उसे यहां उदधृत किया जाता है। वह जहां केवल दो ही मतोंका उल्लेख किया है, वहां तिलोय
उस्थानिका इस प्रकार है:पण्णत्तीकारने देवियोंकी आयु-सम्बन्धी चार मत-भेदोंका उल्लेख किया है। उनमें प्रथम मतभेद तो बारह स्वर्गोंकी
श्रुतस्कन्धाधारभूतमष्टादशपदसहस्रपरिमाणं, मूलमान्यता वालोंका है। तीसरा मतभेद 'लोकायनी' (संभवतः
गुणप्रत्याख्यान-संस्तर-स्तवाराधना-समयाचार-पंचाचार
पिंडशुद्धि-षडावश्यक-द्वादशानुप्रेक्षाऽनगारभावनालोकविभाग) ग्रन्थका है। दूसरा और चौथा मत मूलाचार का है। इससे एक खास निष्कर्ष यह भी फलित होता है
समयसार-शीलगुणप्रस्तार-पर्याप्त्यधिकार-निबद्धमहार्थ
गभीरं, लक्षणसिद्धपदवाक्यवर्णोपचितं, घातिकर्मक्षयोकि मूलाचार-कारके सम्मुख जब दो ही मत-भेद थे. तब
त्पन्नकेवलज्ञानप्रबुद्धाशेषगुणपर्यायखचितषड्द्रव्यनवपतिलोयपण्णत्ती-कारके सम्मुख चार मतभेद थे-अर्थात्
दार्थजिनवरोपदिष्टं, द्वादशविधतपोऽनुष्ठानोत्पन्नानेकतिलोयपण्णत्तीके रचना-कालसे मूलाचारका रचना-काज इतना प्राचीन है कि मूलाचारकी रचना होने के पश्चात् प्रकारद्धिसमन्वितगणधर देवरचितं मूलगुणोत्तरगुणस्वऔर तिलोयपण्णत्तीकी रचना होनेके पूर्व तक अन्तराल- रूपावकल्पापायसाधनसहायफलानरूपणप्र
रूपविकल्पोपायसाधनसहायफलनिरूपणप्रवणमाचारांगवर्ती काल में अन्य और भी दो मत-भेद देवियों की प्रायुके माचार्यपारम्पर्यप्रवर्तमानमल्पबलमेधायु-शिष्यनिमित्तं विषयमें उठ खड़े हुए थे और तिलोयपएणत्तीकारने उन द्वादशाधिकारैरुपसंहतुकामः स्वस्य श्रोतृणां च प्रारब्धसबका संग्रह करना प्रावश्यक समझा ।
कार्यप्रत्यूहनिराकरणक्षमं शुभपरिणामं विदधच्छीवट्ट- इन दो उल्लेखोंसे मूलाचारकी प्राचीनता और मौलि- केराचार्यः प्रथमतरं तावन्मूलगुणाधिकारप्रतिपादनार्थ कता असंदिग्ध हो जाता है।
मंगलपूर्विकां प्रतिज्ञां विधत्ते- यहां एक बात और भी ध्यान देने योग्य यह है कि अर्थात् जो श्रुतस्कन्ध-द्वादशाङ्गरूप श्रुतवृतका आधारधवला टीकामें जो गाथा भाचारांगके नामसे उद्धत है, भूत है, अट्ठारह हजार पद-परिमाण है, मूलगुण वह श्वेत. पाचारांगमें नहीं पाई जाती। इसके अतिरिक्त प्रादि बारह अधिकारोंसे निबद्ध एवं महान् अर्थ-गाम्भीर्यराजवातिक मादिमें भाचारांगके स्वरूपका वर्णन करते हुए से युक्त है, लक्षण-सिद्ध वर्ण, पद और वाक्योंसे सम
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३३२]
न्वित है. घातिकर्मक्षय से उत्पन्न केवलज्ञानके द्वारा जिन्होंने षट् द्रब्यों और नव पदार्थोंके समस्त गुण और पर्यायोंको जान लिया है, ऐसे जिनेन्द्रदेव से उपदिष्ट है, बारह प्रकारके तपोंके अनुष्ठानसे जिनके अनेक प्रकारकी ऋद्धियां उत्पन्न हुई हैं, ऐसे गणधरदेवसे जो रचित है, और जो साधुनोंके मूलगुणों और उत्तरगुणोंके स्वरूप, भेद उपाय, साधन, सहाय और फलका निरूपण करने वाला है, ऐसे आचार्य - परम्परासे प्राये हुए आचाराङ्गको प बल बुद्धि और आयु वाले शिष्योंके लिए द्वादश अधिकारोंसे उपसंहार करने के इच्छुक श्रीवट्टकेराचार्य अपने और श्रोताजनोंके प्रारब्ध कार्य में आने वाले विघ्नोंके निराकरणमें समर्थं ऐसे शुभ परिणामको धारण करते हुए सर्व प्रथम मूलगुणाधिकारके प्रतिपादन करनेके लिए मंगल-पूर्वक प्रतिज्ञा करते हैं
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अनेकान्त
इस उत्थानिकाके द्वारा यह प्रकट किया गया है कि जिनेन्द्र - उपदिष्ट एवं गणधर - रचित, द्वादशांग वाणीका प्राय जो आचारांग सूत्र है वह महान् गम्भीर और अति विशाल है, उसे अल्प बल-बुद्धि वाले शिष्योंके लिए ग्रन्थकार उन्हीं बारह अधिकारों में उपसंहार कर रहे हैं, जिन्हें कि गणधरदेवने रचा था । इस उल्लेखले प्रस्तुत ग्रन्थकी मौलिकता एवं प्रामाणिकता स्वतः सिद्ध है । यह उल्लेख ठीक उसी प्रकारका है, जैसा कि कसायपाहुडके लिए वीरसेनाचार्यने किया है। यथा
' तदो अंगपुडवाणगदेसो चेव श्राहरियपरंपराए श्रागंतूण गुणहराइरियं संपत्ती पुणो तेण गुणहरभडारएण णाणपत्रादपंचमपुब्व-दसमवत्थु तदियक सायपाहुडमहरणवपारएण गंथवोच्छेदभएण पवयणवच्छहलपर वसीकय हियपुण एवं पेज्जदोसपाहुडं सोलसपदसहस्सपमाणं होतं असीदिसदमेत्तगाहाहि उपसंहारिदं ।"
अर्थात् - उक्त अंग-पूर्वोका एक देश ही श्राचार्य परम्परासे आकर गुणधराचार्यक प्राप्त हुआ । पुनः ज्ञानप्रवाद नामक पांचवें पूर्वकी दशवीं वस्तुके तीसरे कसाय पाहुरूप महार्णव के पारको प्राप्त उन गुणधर भट्टारक ने जिनका कि हृदय प्रवचनके वासल्यसे परिपूर्ण था, सोलह हजार पदपूमाण इस पेज्जदोसपाहुडका ग्रन्थ-विच्छेदके भयसे केवल एक अस्सी गाथाओंके द्वारा उपसंहार
किया ।
इस विवेचनसे न केवल मूलाचारको मौलिकता और
[ किरण ११
प्रामाणिकता का ही बोध होता है, अपितु उसके कर्त्ता बट्टकेराचार्य के अगाध श्रुतपांडित्यका भी पता चलता है। उक्त उल्लेख के आधार पर कमसे कम इतना तो निर्विवाद मानना ही पड़ेगा कि उन्हें श्राचार्य - परम्पराले आचारांगका पूर्ण ज्ञान था, वे उसके प्रत्येक अधिकारसे भली भांति परिचित थे और इसीलिए उन्होने उन्हीं बारह अधिकारों में अट्ठारह हजार पदप्रमाण उस विस्तृत श्राचारंगसूत्रका उपसंहार किया है। ठीक वैसे ही, जैसे कि सोलह हजार पदप्रमाण पेज्जदोसपाहुडका गुणधराचार्यने मात्र एक सौ अस्सी गाथाओं में उपसंहार किया है ।
1
मूलाचार एक मौलिक ग्रन्थ है, संग्रह ग्रन्थ नहीं, इसका परिज्ञान प्रत्येक अधिकारके श्राद्य मंगलाचरण और अन्तिम उपसंहार-वचनोंसे भी होता और जो पाठक के हृदय में अपनी मौलिकताकी मुद्राको सहज में ही अंकित करता है । यहाँ यह कहा जा सकता है कि जब यह मौलिक ग्रन्थ है, तो फिर इसके भीतर अन्य ग्रंथोंकी गाथाएँ क्यों उपलब्ध होती हैं ? इस प्रश्न के उत्तर में दो बातें कहीं जा सकती हैं। एक तो यह कि जिन गाथाओंको अन्य ग्रन्थोंकी कहा जाता है, बहुत सम्भव है कि वे इन्हींके द्वारा रचित अन्य ग्रन्थोंकी हों ? और दूसरे यह farai गाथाएँ श्राचार्य - परम्परासे चली आ रही थीं, उन्हें मूलाचारकारने अपने ग्रन्थ में यथास्थान निबद्ध कर दिया । अपने इस निबद्धीकरणका वे प्रस्तुत ग्रन्थमें यथास्थान संसूचन भी कर रहे हैं। उदाहरण के तौर पर यहाँ ऐसे कुछ उल्लेख दिये जाते हैं:
(१) वच्छं सामाचारं समासदो आणुपुव्वीए ( ४, १) (२) वोच्छामि समयसारं सुण संखेवं जहावुत्तं (८, १ ) (३) पज्जती-संगी वोच्छामि जहागुपुव्वीए (१२,१)
तीसरे उद्धरण में आया हुआ 'पज्जत्ती संगहणी' पद. उपर्युक्त शंकाका भली भांति समाधान कर रहा है ।
चाय कौन हैं ?
मूलाचार के कर्त्ताके रूपमें जिनका नाम लिया जाता है, वे वट्टकेराचार्य कौन हैं, इस प्रश्नका अभी तक निर्णय नहीं हो सका है ? विभिन्न विद्वानोंने इसके लिए विभिन श्राचार्योंकी कल्पनाएँ की हैं. परन्तु इस नामके प्राचार्य - का किसी शिलालेखादि में कोई उल्लेखादि न होनेसे 'वट्टकेराइरिय' अभी तक विचारणीय ही बने हुए हैं ।
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किरण ११ ]
मूलाचार की मौलिकता और उसके रचयिता
[३३३
पुरातन-जैभवाक्य-सूची को प्रस्तावनाके १८ वें पृष्ठ पर ध्यायने मुझे बतलाया है कि कनदीमें 'वेट्ट' छोटी पहादीको भाचार्य श्री जुगलकिशोरजी मुख्तारने लिखा है:- और 'केरी' गली या मोहल्लेको कहते हैं। बेलगाव और
"xxx इस ( वट्टकेराइरिय ) नामके किसी भी धारवाड़ जिले में इस नामके गांव अब भी मौजूद हैं। प्राचार्यका उल्लेख अन्यत्र गुर्वावलियों, पट्टावलियों शिला- आगे आप लिखते हैं-"पं० सुब्बय्या शास्त्रीसे लेखों तथा ग्रन्थ प्रशस्तियों श्रादिमें कहीं भी देखने में नहीं मालूम हुमा कि श्रवणबेलगोलका भी एक मुहल्ला वेट्टगेरि पाता और इसलिए ऐतिहासिक विद्वानों एवं रिसर्चका- नामसे प्रसिद्ध है। कारिकलके हिरियंगडि बस्तिके पद्मावती लरोंके सामने यह प्रश्न बराबर खड़ा हना है कि ये वट्ट- देवीके मन्दिरके एक स्तम्भ पर शक सं० १३६७ का एक केरादि नामके कौनसे प्राचार्य हैं और कब हुए हैं ?" शिलालेख है जो कनडी भाषामें है । इस लेखमें 'बेट्टकेरि'
श्री मुख्तार सा० ने 'वट्टकेराचार्य के सन्धि-विच्छेद- गांवका नाम दो बार पाया है और वह कारिकलके पास द्वारा अर्थ-संगति बिठानेका प्रयाम भी उक्त प्रस्तावनामें ही कहीं होना चाहिए । सो हमारा अनुमान है कि मूला. किया है। वे 'वट्टराइरिय' का वट्टक हरामारिया चारके कर्ता 'वट्टकेरि' भी उक्त नामके गांवोंमेंसे ही किसी ऐसा सन्धि-विच्छेद करते हुए लिखते हैं:
गांवके रहने वाले होंगे।" "वट्टक' का अर्थ वर्तक-प्रवर्तक है. 'हरा' गिरावाणी- माजाक इस लखम सु सरस्वतीको कहते हैं, जिसकी वाणी सरस्वती प्रवर्तिका में मुख्तार साहब अपनी उसी प्रस्तावनामें लिखते हैं:हो । जनताको सदाचार एवं सम्मान में लगाने वाली हो- "वेट्टगेरि या बेट्टकेरी नामके कुछ ग्राम तथा स्थान पाये उसे वट्टकेर' समझना चाहिए । दूसरे, वट्टको-प्रवर्तकोंमें जाते हैं. मूलाचारके कर्ता उन्हीं में से किसी वेट्टगेरि या जो इरि = गिरि प्रधान-प्रतिष्ठित हो, अथवा ईरि=समर्थ- बेट्टकेरी प्रामके ही रहने वाले होंगे और उस परसे कौण्डशक्तिशाली हो, उसे 'वट्टकेरि' जानना चाहिए। तीसरे कुण्डादिकी तरह 'बेट्टकेरी' कहलाने लगे होंगे, वह कुछ 'वट्ट' नाम वर्तन-आचरणका है और 'ईरक' प्रेरक तथा संगत नहीं मालूम होता-बेट्ट और वट्ट शब्दोंके रूपमें ही प्रवर्तकको कहते हैं, सदाचारमें जो प्रवृत्ति कराने वाला हो. नहीं, किन्तु भाषा तथा अर्थमें भी बहुत अन्तर है। 'बेट्ट' उसका नाम 'वहरक' है । अथवा 'वट्ट' नाम मार्गका है. शब्द प्रेमीजीके लेखानुसार छोटी पहादीका वाचक कनकी सन्मार्गका जो प्रवर्तक, उपदेशक एवं नेता हो उसे भी भाषाका शब्द है और 'गेरि' उस भाषामें गली-मोहल्लेवहरक कहते हैं। और इसलिए अर्थकी दृटिसे ये वट्टके- को कहते हैं। जबकि 'वट्ट' और वट्टक' जैसे शब्द प्राकृत रादि पद कुन्दकुन्दके लिए बहुत ही उपयुक्त तथा संगत भाषाके उपयुक्त अथके वाचक शब्द हैं और प्रन्थकी मालूम होते हैं। आश्चर्य नहीं, जो प्रवर्तकस्व-गुणकी भाषाके अनुकूल पड़ते हैं। ग्रन्यभरमें तथा उसकी टीकामें विशिष्टताके कारण ही कुन्दकुन्दके लिए 'वट्टकेरकाचाय 'बेट्टगेरि' या 'बेट्टकेरी' रूपका एक जगह भी प्रयोग नहीं (प्रवर्तकाचार्य) जैसे पदका प्रयोग किया गया हो।" पाया जाता और न इस ग्रन्थके कर्तृत्वरूपमें अन्यत्र ही श्री. नाथूरामजी प्रेमीका 'मूलाचारके कर्ता वट्टकेरि'
उसका प्रयोग देखने में आता है, जिससे उक्त कल्पनाको शीर्षक लेख जैन सिद्धान्त-भास्करके भाग १२ की किरण कुछ अवसर मिलता।" 1 में प्रकाशित हुआ है, उसमें वे लिखते हैं:
। पुरातन जैनवाक्यसूची प्रस्ता० पृ. ११)
उपयुक्त दोनों विद्वानोंके कथनोंका समीक्षण करते xxx वट्टकेरि' नाम भी गाँवका बोधक होना
हुए मुझे मुख्तार साहबका अर्थ वास्तविक नामकी भोर चाहिए और मूलाचारके कर्ता बेहगेरी या बे केरी प्रामके
अधिक संकेत करता हुआ जान पड़ता है। यदि 'वह केरा ही रहने वाले होंगे और जिस तरह कोण्डकुण्डके रहने
इरिय' का सन्धि-विच्छेद 'वट्टक+ एरा+पाइरिय' करके वाले प्राचार्य कौण्डकौण्डाचार्य, तथा तुम्बुलुर ग्रामके और संस्कृत-प्राकृतके 'ह-जयोः र-जयोरभेदः' नियमको हने वाले तम्बुलराचार्य कहलाये, उसी तरह ये वट्टकेरा ध्यान में रखकर इसका अर्थ किया जाय, तो सहजमें ही चार्य कहलाने लगे।
'वर्तक+एला+प्राचार्य = वर्तकैलाचार्य नाम प्रगट हो इसी लेखमें भाप लिखते हैं कि 'डा. ए. एन. उपा- जाता है। प्राचार्य कुन्दकुन्दका एक नाम 'एनाचार्य' भी
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३३४]
अनेकान्त
[किरण ११
प्रसिद्ध है। वर्तक या प्रवर्तक यह उनकी उपाधि या पद यही कारण है कि वे शिष्यों-सामान्य साधुजनोंके लिए रहा है, जिसका अर्थ होता है-वर्तन, प्रवर्तन, या पाच- हिदायत देते हुए कहते हैं कि साधुको उस गुरुकुल में रया करानेवाला । मेरे इस कथनकी पुष्टि इसी मूलाचारके नहीं रहना चाहिए, जहाँ पर कि उक्त पांच प्राधार न हों। समाचाराधिकारसे भी होती है. जिसमें साधुको कहाँ पर दूसरे उल्लेखसे भी इसी बातकी पुष्टि होती है. जिसमें नहीं रहना चाहिए. इस बातको बतलाते हुए मूलाचार- कि संघ के अाधारभूत उक्त पांचोंके कृतिकर्म करनेका कार कहते है
विधान किया गया है। तत्थ ण कप्पड़ वासो जत्थ इमे णत्थि पंच आधारा। समाचाराधिकारकी गाथा नं. १५६ के 'संघववनो' पदका
प्रा. वसुनन्दिकृत अर्थ 'संघप्रवर्तकश्चर्यादिभिरुपकारक:' भाइरिय-उवझाया पवत्त थेरा गणधरा य ॥१५५
देखनेसे और स्वयं प्राचारांग शास्त्रके रचयिता होनेसे अर्थात-साधुको उस गुरुकुल में नहीं रहना चाहए,
यह बात सहजमें ही हृदय पर अंकित होती है कि एलाजहां पर कि प्राचार्य, उपाध्याय, प्रवर्तक, स्थविर और
चार्य किसी बहुत बड़े साधु संघके प्रवर्तक पद पर आसीन गणधर, ये पाँच प्राधार न हों।
थे और इसी कारण पश्चाद्वर्ती प्राचार्योंने उन्हें इसी नामप्रा. वसुनन्दी 'पवत्त' पदकी व्याख्या करते हुए
से स्मरण किया । वर्तक एलाचार्यका ही प्राकृतरूप लिखते हैं:-'संघं प्रवर्तयतीति प्रवर्तकः' अर्थात् जो संघ
'बट्टकेराइरिय' है । ऐसा ज्ञात होता है कि मूलाचारकी जो का उत्तम दिशामें प्रवर्तन करे, वह प्रवर्तक कहलाता है।
मूलतियाँ प्रा. वसुनम्दीके सामने रही हैं उनके अन्त स्वयं मूलाचार-कार उपयुक्त पांचों आधारोंका अर्थ
में 'वट्टकेराइरिय विरइय' जैसा पाठ रहा होगा और उसमें इससे भागेकी गाथामें इस प्रकार सूचित करते हैं:
के अन्तिम पद 'पाइरिय' का संस्कृतरूप प्राचार्य करके सिस्साणुग्गहकुसलो धम्मुवदेसो य संघबयो । प्रारंभके 'वट्टकेर' को उन्होंने किसी प्राचार्य विशेषका नाम
समझकर और उसके संस्कृतरूप पर ध्यान न देकर अपनी अर्थात्-जो शिष्योंके अनुग्रहमें कुशल हो, उसे
टीकाके प्रादि व भम्तमें उसके रचयिताका 'वट्टकेराचार्य प्राचार्य कहते हैं जो धर्मका उपदेश दे, वह उपाध्याय
नाम से उल्लेख कर दिया। कहलाता है। जो संघका प्रवर्तक हो. चर्या श्रादिके द्वारा वर्तक-एलाचार्य या कुन्दकुन्द , उपकारक हो उसे प्रवर्तक कहते हैं. जो साधु-मर्यादाका
उक्त विवेचनसे यह तो स्पष्ट हो गया कि मूलाचारके पदेश दे, वह स्थविर है और जो सर्व प्रकारसे गणकी
कर्ता प्रवर्तक एलाचार्य हैं। पर इस नामके अनेक प्राचार्य रक्षा करे उसे गणधर कहते हैं।
हो गये हैं, अत. मूलाचारके कर्ता कौनसे एलाचार्य है ? .. मूलाचार कारने इससे प्रागेके षडावश्यक अधिकारमें
यह सहज में ही प्रश्न उपस्थित होता है । ऐतिहासिक सामायिक करनेके पूर्व किस-किसका कृतिकर्म करना
विद्वानोंने तीन एलाचार्योकी खोज की है। प्रथम कुन्दकुन्द, वाहिए, इस प्रश्नका उत्तर देते हुए कहा है :
जो मूलसंघके प्रवर्तक माने जाते हैं। दूसरे वे, जो धवला आइरिय-उवझायाणं पवत्तय त्थेर-गणधरादीणं।
टीकाकार वीरसेनाचार्यके गुरु थे और तीसरे 'ज्वालिनीमत'
ए॥१४॥ नामक ग्रन्थके श्राद्य प्रणेता। जैसा कि लेखके प्रारम्भमें अर्थात् कर्मोंकी निर्जराके लिए श्राचार्य, उपाध्याय, बताया गया है, धवला टीका मूलाचारके प्राचारांगके प्रवर्तक स्थविर और गणधरादिका कृतिकर्म करना चाहिए। रूपसे और तिलोयपण्णत्तीमें मूलाचारके रूपसे उल्लेख
मूलाचारके इन दोनों उद्धरणोंसे जहां 'प्रवर्तक' पद होने के कारण मूलाचारके कर्ता अन्तिम दोनों एलाचार्य की विशेषता प्रकट होती है, वहां उससे इस बात पर भी नहीं हो सकते हैं, अतः पारिशेषन्यायसे कुन्दकुन्द ही प्रकाश पड़ता है कि मूलाचार-रचयिताके समय तक भनेक एलाचार्यके रूपसे सिद्ध होते हैं। साधु-संघ विशाल परिमाण में विद्यमान थे और उनके मूलाचारकी कितनी ही प्राचीन हस्तलिखित प्रतियोंभीतर उक्त पाँचों पदोंके धारक मुनि-पुंगव भी होते थे। में भी ग्रन्थकर्ताका नाम कुन्दकुन्दाचार्य पाया जाता है।
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किरण ११]
आये और द्रविड़ संस्कृति के सम्मेलन का उपक्रम
[३३५
माणिकचन्द्र ग्रन्थमालासे प्रकाशित मूलाचारके अन्तमें जो होती है कि पं० परमानन्दजीको अब अपने उस पूर्व कथनपुष्पिका पाई जाती है उसमें भी मूलाचारको कुदकुदाचार्य का आग्रह नहीं है, वे कुछ पहलेसे ही मूलाचारको एक प्रणीत लिखा है। वह पुष्पिका इस प्रकार है:- अति प्राचीन मौलिक ग्रन्थ समझने लगे हैं। 'इति मूलाचारविवृतौ द्वादशोऽध्यायः । कुन्दकुन्दाचार्य- पाँचवे श्रतकेवली श्रा. भद्रबाहु के समयमें होने वाले प्रणीतमूलाचाराख्यविवृत्तिः। कृतिरियं वसुनन्दिनः श्रीश्रम- दुर्भिक्षसे जो संघभेद हो गया और इधर रहने वाले णस्य ।' इससे भी उक्त कथनकी पुष्टि होती है। साधुओंके प्राचार-विचारमें जो शिथिलता आई,
श्रा० कुन्दकुन्दके समयसार, प्र.चनसारादि ग्रन्थोंके उसे देखकर ही मानों प्रा० कुन्दकुन्दने साधुओंके साथ मूलाचारका कितना सादृश्य है, यह पृथक् लेख द्वारा प्राचार-प्रतिपादक मूल प्राचारांगका उद्धार कर प्रस्तुत प्रगट किया जायगा । यहाँ पर इस समय इतना ही कहना ग्रन्थकी रचना की, इसी कारणसे इस ग्रन्थका है कि मूलाचारको सामने रखकर कुन्दकुन्दके अन्य ग्रन्थोंका नाम मूलाचार पड़ा और तदनुसार साधु-संघका प्रवर्तन गहरा अभ्यास करने वाले पाठकोंसे यह अविदित नहीं करानेसे उनके संघका नाम भी मलसंघ प्रचलित हुश्रा, ये रहेगा कि मूलाचारके कर्ता प्रा. कुन्दकुन्द ही हैं। ऐसी दोनों ही बातें 'वट्टकेराइरिय' नामके भीतर छिपी हुई हैं हालत में प्रज्ञाचतु पं० सुखलालजीका या पं० परमानंदजी और इस प्रकार हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि मलाशास्त्रीका कथन कितना सार-गर्भित है, यह सहज ही जाना चार अति प्राचीन मौलिक ग्रन्थ है और उसके रचयिता
जा सकता है। यहाँ पर मुझे यह प्रकट करते हुए प्रसन्नता एनाचार्य नाम से प्रख्यात श्रा० कुन्दकुन्द ही हैं।
आर्य और द्रविड़ संस्कृतिके सम्मेलनका उपक्रम
(बाबू जयभगवानजी एडवोकेट) द्रविड़ संस्कृतिकी रूप रेखा
एशियायी पुरातत्त्व व सिन्ध और पंजाबके मोहनजोदड़ों . भारतको हिन्दू संस्कृति दो मुख्य संस्कृतियोंके सम्मे- तथा हड़प्पा नगरोंकी खुदाईसे प्राप्त वस्तुओंसे यह बात तो लनसे बनी है, इनमेंसे एक वैदिक मार्यों को प्राधिदैविक सर्व सम्मत ही है कि वैदिक प्रार्यगण न संस्कृति और दूसरी द्राविड़ लोगोंकी आध्यात्मिक संस्कृति। मध्य एशियाके देशों से होते हुए त्रेतायुगकी प्रादिमें
परन्तु वास्तवमें यदि देखा जाय तो हिंदू संस्कृतिका अधि- लगभग ३००० ई. पूर्वमें इलावर्त और उत्तरपच्छिमके · · कांश भाग बारहसे चौदह पाने तक सब अनार्य है । भार- द्वारसे पंजाब में पाये थे। उस समय पहलेसे ही द्राविक
तीयाका खान-पान (चावल, भात, दाल, सत्त.. , लोग गान्धारसे विदेह तक; और पंचालसे दक्षिणके मयदेश घी, गुड, शक्कर आदि) वेषभूषा (धोती, चादर, पगड़ी) तक अनेक जातियों में बटे हुए अनेक जनपदोंमें बसे हुए थे, रहन-सहन, (ग्राम, नगर. दुर्ग, पत्तन) आचार व्यवहार और सभ्यतामें काफी बढ़े चढ़े थे। ये दुर्ग ग्राम, पुर और
(अहिंसात्मक-सभीके अधिकारों और सुभीतामोंका नगर बनाकर एक सुव्यवस्थित राष्ट्रका जीवन व्यतीत . आदर करना), जीवन आदर्श-(मुक्तिकी खोज), श्रारा- करते थे। ये वास्तुकलामें बड़े प्रवीण थे। ये भूमि खोदध्यदेव (स्यागी, तपस्वी सिद्ध पुरुष ) धर्म मार्ग-(दया, कर बड़े सुन्दर कूप, तालाब, बावड़ी, भवन और प्रासाद दान, दमन, व्रत, उपवास) पूजा-भक्ति तीर्थ गमन भादि बनाना जानते थे२ । इनके नगर और दुर्ग ईंट, पत्थर और सभी बातें द्रविद संस्कृति के सांचे में ढली हैं।
चूने के बने हुए थे। इनके कितने ही दुर्ग लोहा, सोना भारतीय व वैदिक साहित्यके अनुशोजनसे तथा लघु
डा. सुनीतिकुमारचटर्जीका लेख 'कृष्ण पायन 1. (अ) भनेकान्त वर्ष किरण ४-५-लेखक द्वारा व्यास और कृष्ण वासुदेव ।'
लिखित 'भारतकी अहिंसा संस्कृति' शीर्षक लेख। २.(श्र)"रज्जुरिव हि सर्पाःकृपा इव हि सर्पाणामायतनानि (भा) बंगाल रायल एशियाटिक सोसाइटीकी पत्रिका मस्ति वै मनुष्याणां च सर्पाणां च विभ्रातृम्यम्"। भाग संख्या 1 वर्ष ई० १६५० में प्रकाशित
शत. ब्रा०४-४.५-३
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३३६ ]
और चाँदीसे युक्त थे। कृषि पशु पालन, वाणिज्य व्या पार और शिल्पकला इनके मुख्य व्यवसाय थे । ये जहाज चलाने की कला में दक्ष थे । ये जहाजों द्वारा समुद्री मार्ग से लघु एशिया तथा उत्तर पूर्वीय अफ्रीका के दूरवर्ती देशोंके साथ व्यापार करते थे१ |
अनेकान्त
इन्होंने अपने उच्च नैतिक जीवनसे उक्त देशोंके लोगों को काफी प्रभावित किया था और उन्हें अपने बहुत धार्मिक श्राख्यान बतलाये थे । उनमें अपनी श्राध्यात्मिक संस्कृतिका प्रसार भी किया था। उक्त देशों में जन्मने वाले सभी सुमेरी और श्रासुरी सभ्यताओं में जो सृष्टि-प्रलय और सृष्टि पूर्व व्यवस्था सम्बन्धी मृत्यु तम अपवाद पुरुष धारमा असुर-धारय प्रजापति- हिरण्यगर्भवाद. विसृष्टिइथ्श, तपनादिके भ्राण्यान (Mythes) प्रचलित है, वे इन दस्युलोगोंकी ही देन हैं। वे इनके मृत्यु व श्रज्ञानतम श्राच्छादित संसारसागर वाद, संसार-विच्छेदक आदिपुरुष जन्मवाद, ज्ञानात्मक सृष्टिवाद, त्याग तपस्या ध्यान विलीनता द्वारा संसारका प्रलयवाद अन्य अध्यात्मिक आख्यानोंके ही आधिदैविक रूपान्तर हैं; ये श्राख्यान लघु एशिया से चलकर आनेवाले आर्य उनके वैदिक साहित्य में वो काफी भरे हुए हैं; परन्तु मध्यसागर के निकटवर्ती देशों में पीछे से यहूदी, ईसाई, इसलाम आदि जितने भी धर्मोंका विकास हुआ है, उन सभीमें अपने अपने ग्रन्थोंमें उक्त क्यानोंका अतिरूपसे बखान किया है। चूँकि ये सभी आख्यान आध्यात्मिक है और आध्यात्मिक व्याख्याही वे सार्थक ठहरते हैं ! इसलिये आध्यात्मिक परम्परासे विलग हो जाने के कारण जब इनका अर्थ अन्य उक्त देश वालोंने आधिदैविक रीति करना चाहा तो वे सभी विचारकोंके लिये जटिल समस्या बन गये और आज भी थे ईश्वर वादी विचारकोंके लिये एक गहन समस्या हैं।
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1
ये द्रविड़ खोग सर्प चिन्हका टोटका (Totem ) अधिक प्रयोग में लानेके कारण नाग, श्रहि, सर्प आदि नामोंसे विख्यात थे। वाणिज्य व्यापार में कुशल होनेके कारण पाय (वणिक) कहलाते थे । श्यामवर्ण होनेके
ये
(1) [अ] विशेष वनके लिये देखें अनेकान्त वर्ष 11 किरण २ में प्रकाशित लेखकका "मोहनजोदड़ो काखीन और आधुनिक जैन संस्कृति" शीर्षक लेख
[ किरा ११
कारण ये कृष्ण भी कहलाते थे२ । अपनी बौद्धिक प्रतिभा और उच्च आचार-विचारके कारण ये अपनेको दास व दस्यु (चमकदार) नामोंसे पुकारते थे। व्रतधारी व संयमी होने तथा वृत्रके उपासक होनेके कारण ये व्रात्य भी कहलाते थे, ये प्रत्येक विद्याओं के जानकार होनेसे द्राविड़ नामसे प्रसिद्ध थे, संस्कृत विद्याधर शब्द 'द्राविद' शब्दका ही संस्कृत रूपान्तर है- द्वाधिराविद् विद्याधर इसी लिये पिछले पौराणिक व जैनसाहित्य में कथा, रामायण, महाभारत आदि ग्रन्थोंमें इन्हें विशेषतया विन्ध्याच प्रदेशी तथा दक्षिणा बना लोगोंका "विद्याधर शब्दसे ही निर्देश किया गया है । ये बड़े बलिष्ठ, धर्मनिष्ठ, दयालु और अहिंसाधर्मको माननेवाले थे। ये अपने इष्टदेवको वृत्र (अर्थात् सब ओरसे घेर कर रहने वाला अर्थात् सर्वज्ञ) अर्हन् (सर्वभादरणीय) परमेष्ठी (परम सिद्धिके मालिक जिन (संसारके विजेता मृत्युन्जय ) शिव (आनन्दपूर्ण) ईश्वर (महिमापूर्ण) नाम से पुकारते थे। ये श्रात्म-शुद्धि के लिये अहिंसा संयम तप मागके अनुयायी थे। ये केशी (जटाधारी) ( शिशन- देव ) ( नग्नसाधुओं) के उपासक थे । ये नदियों और पर्वतोंको इन योगियोंको तपोभूमि होनेके कारण तीर्थस्थान मानते थे बेयग्रोध, अश्वश्थ, आदि
४
की योगियोंके ध्यान साधनासे सम्बन्धित होने के कारण
पूज्य वस्तु मानते थे ।
द्राविड़ संस्कृतिकी प्राचीनता
द्राविड़ लोगोंकी इस आध्यात्मिक संस्कृतिकी प्राचीनताके सम्बन्धमें इतना कहना ही पर्याप्त होगा कि आर्यजनके आगमन से पूर्व यह संस्कृति भारतमें प्रचलित थी। यहांके विज्ञजन देव-उपासना सत्य-चिन्तन, और कविभावुकता से ऊपर उठकर श्रात्मलच्यकी साधनामें जुट चुके थे। वे सांसारिक अभ्युदयको नीरस और मिथ्या जान अध्यात्म
(२) ऋग्वेद, ८१-१३-१२
(३) रामायण ( वाक्मीकि) सुन्दरकांड सर्ग १२ | माझी संहिता १२-०२-२८ पद्मपुराण स्वर्ग
वोह बाऽइदं सबै वृत्या शिश्यो यदिदमन्तरेण धायासर्वे पृथिवीय यदिदं सर्वं कृत्वा शिश्येतस्माद्वृत्रो नाम । - शतपथ ब्रा० १. १.३. ४
(४)
(2) इसके लिये देखें अनेकान्त वर्ष १२ किरण २ व ३ में लेखकके 'आरव योगियोंका देश है' शीर्षक लेख ।
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किरण ११] आर्य और द्रविड़के संस्कृति सम्मेलन उपक्रम
[३३७ अभ्युदयके लिये स्यागी, भिक्षाचारी श्रोर अरण्यवासी वैदिक आर्योका आदि धर्मबन चुके थे, वे तपस्या द्वारा अहन्, जिन, शिव, ईश्वर, पंजाबमें बसने वाले पार्यगण अपनी फारसी शाखाके परमेष्ठोरूप जीवनके उच्चतम प्रादर्शकी सिद्धि पा स्वयं
समान ही जो फारस (ईरान ) में प्राबाद हो गई थी, सिद्ध बन चुके थे। अरण्यों में इन सिद्धपुरुष के बैठनेके
प्राधिदैविक संस्कृतिके मानने वाले थे । वे मानव चेतनाकी स्थान जो निषद, निषोदि, निषधा, निषीदिका नामोंसे
उस शैशवदशासे अभी ऊपर न उठे थे, जब मनुष्य सम्बोधित होते थे, भारतीय जनके लिए शिक्षा दीक्षा, स्वाभाविक पसन्दके कारण रंगविरंगी चमत्कारिक चीजोंशोध-चिंतन, आराधना उपासनाके केन्द्र बने हुए थे । इन
को देख पाश्चर्य-विभोर हो उठता है, जब वह बाह्यनिषदों परसे प्राप्त होनेके कारण ही प्रार्यजनने पीछे से
तत्वोंके साथ दबकर उन्हें अपने खेल-कूद प्रामोद-प्रमोदका
तो अध्यात्मविद्याको 'उपनिषद्' शब्दसं कहना शुरू किया
साधन बनाता है उनके भोग उपभोगमें वहता हुआ था। ये स्थान प्राजकल जैन लोगोंमें निशिया वा निशि
गायन और नृत्यके लिए प्रस्तुत होता है। जब वह अपनी नामोंसे प्रसिद्ध हैं और इन स्थान को यात्रा करना एक
लघुता व बेवसी प्राकृति शक्तियोंकी व्यापकता और पुण्य कार्य समझा जाता है। उनकी इस जीवन-झांकीसे
स्वच्छन्दताको देख कर दुःखदर्द और कठिनाई के समय यहाँ पर यही अनुमान किया जा सकता है कि ऐहिक
उनमें देवता बुद्धि धारण करता है, उनके सामने नतमस्तक वैभव और दुनियावी भोग विलास वाले शैशव कालसे
हो उनसे सहायतार्थ प्रार्थना करने पर उतारू होता है। उठ कर त्याग और सन्तोषके प्रौढ़ जीवन तक पहुँचते थे, इस दशामें सर्वव्यापक ऊँचा आकाश और उसमें रहने उन्हें क्या कुछ समय न लगा होगा। प्रवृत्ति मार्गस
वाले सूर्य, चन्द्र, नक्षत्र, तारागण तथा नियमबद्ध घूमने निवृत्तिकी ओर मोब खानेसे पहले इन लोगोंने ऐहिक
वाला ऋतुचक्र, अन्तरिक्ष. लोक और उसमें बसने वाले वैभवके सृजन, प्रसार और विलासमें काफी समय बिताया
मेघ, पर्जन्य, विद्युत प्रभंजा, वायु, तथा पृथ्वीलोक, और होगा। बहुत कुछ देवी-देवता अर्चन धर्म पुरुषार्थ अथवा
उस पर टिके हुये समुद्र, पर्वत, क्षितिज, उषा भादि सभी अर्थ काम पुरुषार्थ अथवा वशीकरण यन्त्र-मन्त्रोंके करने
सुन्दर और चमत्कारिक तत्त्व जीवनमें जिज्ञासा, प्रोज, पर भी जब उनको मनोरथकी प्राप्ति न हई होगी. तब ही
स्फूर्ति और विकास करने वाले होते हैं, इसीलिए हम ही तो वे इनको दृष्टिमें मिथ्या और निस्सार जचे होंगे ।
देखते हैं कि शुरू-शुरूमें वैदिक आर्यगण अपनी अन्य इस लम्बे जीवन प्रयोग पर ध्यान देनेसे यह अनुमान __फारसी और हिन्दी योरोपीय शाखाओंकी तरह च स् होता है कि भारतीय संस्कृतिका प्रारम्भिक काल बैदिक
(आकाश वरुण (अाका राका व्यापक देवता) मित्र आर्यजनके आगमनसे कमसे कम १००० वर्ष पूर्व अथात् (श्रासमानी प्रकाश ) सूर्य, महत (अन्तरिक्ष में विचरने ५००० ईसा पूर्वका जरूर होगा । इस अनुमानकी पुष्टि वाला वायु) अग्नि, उषा, अश्विन् (प्रात और सन्ध्या भारतीय अनुश्रुतिसे भी होती है कि सतयुगका धम तप समयकी प्रभा) आदि देवताओंके उपासक थे २।। था, और त्रेता युगमें यज्ञोंका विधान रहा, और द्वापरमें
इस सम्बन्धमें यह बात याद रखने योग्य है कि यज्ञोंका हास होना शुरू हो गया। भारतीय ज्योतिष गण
शैशवकालमें मनुष्यकी मान्यता बाहरी और प्राधिदैविक नाके अनुसार सतयुगका परिमाण ४८००.३ताका ३६००,
क्यों न हो उसके साथ उसकी कामनाओं और वेदनाओंकी द्वापरका २४०. और कलिका १२०० वर्ष है। यदि वैदिक
अनुभूतियोंका घनिष्ठ सम्बन्ध बना रहता है। और यह आर्यजन त्रेतायुगके मध्य में भारतमें पाये हुए माने जाय
स्वाभाविक भी है, क्योंकि जगत् और तत्सम्बन्धि बातोंऔर त्रेताका मध्यकाल ३००० ईस्वी पूर्व माना जाय तो
को जाननेके लिए मनुष्यके पास अपने अनुभूतिके सिवाय द्वाविद संस्कृतिका प्रारम्भिक काल उससे कई हजार वर्ष पूर्वका होना सिद्ध होता है।
(२) (A) S. Radha Krishnan-Indian
philosophy Vol. one-chapter first. (१) मनुस्मृति १.८६, महाभारत शान्तिपर्व अध्याय २३१, (B) Prof. A Macdonell-Vedic My२१-२६ । मुण्डक उपनिषद्-१-२-१
thology VI. 2 and 3
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३३८ ]
और प्रमाण भी कौनसा है। इसीलिये वह जगत् और उसकी शक्तियोंकी व्याख्या सदा अपनी अनुभूतिके अनु रूप ही करता है । यद्यपि श्रधिदैविक पक्ष वालोंकी मान्यता है कि ईश्वरने मनुष्यको अपनी छाया अनुरूप पैदा किया है १ । परन्तु मनोविज्ञान धौर इतिहासवालों का कहना है कि मनुष्य अपनी अनुभूतिके अनुरूप ही जगत्, ईश्वर, और देवताओंकी सृष्टि करता है । और इस तरह मनुष्यका श्रादिधर्मं सदा मानवीय देवतावाद (Anthropomorahism ) होता है।
अनेकान्त
[ किरण ११
नहीं है । दुःखोंकी निवृत्ति और सुखोंकी सिद्धि के लिये यज्ञ ही जीवनका आधार है । देवता स्तुति एक मंत्र ही शब्दविद्या की पराकाष्ठा है । इससे अधिक लाभदायक और कोई वाणी नहीं हो सकती। इसी तरह ब्राह्मण ग्रन्थोंमें कहा गया है कि यज्ञ ही देवताओंका अन है १ । यज्ञ ही धर्मका मूल है२ । यज्ञ ही श्रेष्ठतम कर्म है३ बिना यज्ञ किये मनुष्य अजातके समान है४ । इसीलिये देवतानोंकी प्रार्थना की गई है कि सभी देवता अपनी-अपनी पत्नियों सहित रथोंमें बैठकर आयें और हवि ग्रहण करके सन्तुष्ट होवें ।
इसी तरह वैदिक आर्योंका आदि धर्म भी मानवीय देवतावाद था२ । इनके सभी देवता मानव-समान सजीव सचेष्ट, आकृति-प्रकृतिवास्त्रे थे । वे मानव समान ही खान पान करते और वस्त्राभूषण पहनते थे । वे मानवी राजाओं की तरह ही वाहन, अस्त्र शस्त्र, सेना, मन्त्री आदि राजविभूतियोंसे सम्पन्न थे । वे राजाओं की तरह ही रुष्ट होने पर रोग, मरी, दुभिक्ष, अतिवृष्टि, अनावृष्टि द विपदाओं से दुनियामें तबाही वरपा कर देते हैं और संतुष्ट होने पर वे लोगों को धन-धान्य, पुत्र पौत्र संतानसे मालामाल कर देते हैं ।
इन देवताओंको सन्तुष्ट करने के लिए मनुष्य के पास सिवाय यज्ञ, हवन कुरवानी, प्रार्थना-स्तुतिके और उपाय हो कौनसा है । इसलिए मानव समाज में जहाँ कहीं और जब कभी भी देवतावादका विकास हुआ है तो उसके साथ साथ यज्ञ, हवन, स्तुति, प्रार्थना, मन्त्रोंका भी विस्तार हुआ है । इस तरह देवतावादके साथ स्तोत्रों और याज्ञिक क्रियाकाण्डका घनिष्ठ सम्बन्ध है । ऋग्वेद में इन प्रश्नोंके उत्तर में कि 'पृथ्वीका अंत कौनसा है, संसारकी नाभि कौनसी है, शब्दका परमधाम कौनसा है' कहा गया है कि यज्ञवेदी ही पृथ्वीका अन्त है, यज्ञ ही संसारकी नभ है और ब्रह्म ( मन्त्रस्तोत्र ही ) शब्दका परमधाम ३ है अर्थात् श्रशिन काण्डसे श्रागे कोई कल्याणका स्थान (1) So god created man in his own image. Bible Genesis 1-27
(२) वही Indian Philosophy और Vedic Mythology.
(३) इयं वेदिः परोअंतः पृथिव्या श्रयं यज्ञो भुवनस्य नाभिः । अयं सोमो वृष्णो अश्वस्य रेजो ब्रह्मायं वाचः परमं व्योम ॥ ऋग–१, १६४, ३२,
जब तक मनुष्य को अपनी गरिमा और शोभाका बोध नहीं होता उसकी भावनाएँ भी उसकी बाह्यदृष्टि अनुरूप साधारण ऐहिक भावनाओं तक ही सीमित रहती है। वे धन धान्य समृद्धि पुत्र-पौत्र उत्पत्ति, रोगव्याधि- निवृत्ति, दोघं श्रायु, शत्रुनाशन, आदि तक पहुँचकर रुक जाती है। उसके लिये इन्हींकी सिद्धि जीवनकी पराकाष्ठा है, इनसे श्रागे उसे जीवन-कल्याणका और कोई आदर्श नजर नहीं श्राता । इसलिए स्वभावतः श्राधिदैविकयुगके श्रार्यजन उक्तभावनाओं को लेकर ही देवताओंकी प्रार्थना करते हुए दिखाई पड़ते हैं। ऋग्वेदका अधिकांश भाग इस ही प्रकारकी भावनाओं और प्रार्थनाश्रोंसे भरपूर है६ । इन मन्त्रों में इन्द्रदेवताले जहाँ-जहाँ दस्युग्रोंके सर्वनाश और इनके धन-हरण श्रादिके लिये प्रार्थनाएँ की गई हैं वे उन घोर लड़ाइयोंकी प्रतिध्वनि है जो श्रार्यजनको अपने वर्ण और सांस्कृतिक विभेदोंके कारण दीर्घकाल तक दस्यु लोगोंके साथ लड़नी पड़ी है। इनका ऐतिहासिक तथ्य सिंधुदेश और पंजाब के ५००० वर्ष पुराने मोहनजोदड़ो और हडप्पा सरीखे दस्यु लोगोंके उन समृद्धशाली नगरोंकी बरबादी से समझ में आ सकता है जिनके ध्वंस अवशेष अभी १६२५
(१) यज्ञो वै देवतानाम् अन्नम् ॥ शतपथ ब्राह्मण ८-१-२१० (२) यज्ञो वै ऋतस्य योनिः ॥ शतपथ ब्राह्मण १-३,४-१६ (३) यज्ञो वै श्रेष्ठतमं कर्म ॥ शतपथ ब्राह्मण १-७-१-२ (४) अजातो ह वै तावत्पुरुषो यावन्न भजते स यज्ञेनैव जायते ।
जैमिणि उप. ३-१४८
(२) ऋग - ३.६-६, १-२
(६) ग - २-२ ( पुत्र पौत्र उत्पत्तिके लिये ) ऋग-१०-१८ ( शतवर्ष श्रायुके लिये ) ऋग-१०-२५-१०-२३, ६-११-२ ( दस्यु नाशन के लिये) ।
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किरण ११]
आर्य और द्रबिड़के सस्कृति सम्मेलन उपक्रम
[३३६
के लगभग सरकारी पुरातत्व विमाग द्वारा प्रकाश में उपायों द्वारा मनीषिजन इन देवताओंके नाम उच्चारणके पाये हैं।
.भारसे बचने का प्रयत्न कर रहे थे। बहुदेवतावादका उदय
ये सभी देवता एक समय ही दृष्टिमें न भाये थे. ये
विभिन्न युगोंकी पैदावार थे। शुरू शुरूमें ये सभी देवता ज्यों-ज्या वैदिक ऋषियोंका अनुभव बढ़ा और उनपर
अपने-अपने क्षेत्र में एक दूसरेसे बिल्कुल स्वतन्त्र, बिल्कुल नीचे, दायें-बायें लोककी विभिन्न शक्तियां उनके अवलो
स्वच्छन्द महाशक्तिशाली माने जाते रहे । अपने अपने कनमें भाई, स्यों स्यों इनके अधिनायक देवताओंकी संख्या
विशेष क्षेत्र में प्रत्येक देवता सभी अन्य देवताओंका शासक बढ़ती चली गई। आखिर यह संख्या क्रम प्रायस्त्रिंश अर्थात्
बना था। पीछेसे एक जगह सम्मिश्रण होने पर इसमें तारतैंतीस तक पहुंच गई। । ऋग्वेदकी ३.६ ६ की अति अनु
तम्यता, मुख्यता व गौणताका भाव पैदा होने लगा। सार तो यह संख्या ३३३६ तक भी पहुँच गई थी। इन
इनकी शुरू शुरू वाली स्वच्छन्दताकी विशेषता एक ऐसी ३३ देवों में पाठ वसु (१ अग्नि, २ पृथ्वी, ३ वायु, ४
विशेषता है जो न बहुईश्वरवादसे सूचित की जा सकती है अन्तरिक्ष आदित्य, ६ द्यौ, चन्द्रमा, ८ नक्षत्र )२
और न एकेश्वरवादसे । प्रो० मेक्समूलरने इसके लिये एक ग्यारह रुद्र दश प्राण और एक आत्मा३ । द्वादश भादस्य
नई संज्ञा प्रस्तुत की है Henotheism अर्थात् बारी(द्वादश मास)४ एक इन्द्र, एक प्रजापति, सम्मिलित
बारीसे विभिन्न देवोंकी सर्वोच्च प्रधानता, यह बात तो माने जाने लगे थे । इन देवताओं की संख्या बढ़ती-बढ़ती
सहज मनोविज्ञानकी है कि कोई मनुष्य एक साथ अनेक इतनी बोमल हो गई कि इन्हें समझने और समझानेके
देवताओंको एक समान सर्वोच्च प्रधान होनेकी कल्पना लिये विद्वानोंने इन्हें लोककी अपेक्षा तीन श्रेणियों में
नहीं करता, वह एक समयमें एकको ही प्रधानता देता है। विभक्त करना शुरू किया। द्य स्थानीय, अन्तरिक्ष-स्थानीय
ऋग्वेदमें जो हम सभी देवताओंको बारी-बारीसे सर्वप्रधान और पृथ्वी-स्थानीय६ । इन श्रीणिबद्ध देवताओंमें भी
हुश्रा देखते हैं उसका स्पष्ट तथ्य यही है कि ये सभी च लोकका सूर्य, अन्तरिक्ष लोकका वायु और पृथ्वीलोककी
देवता एक ही जाति और एक ही युगकी कल्पना नहीं अग्नि मुख्य देवता माने जाने लगे, परन्तु इनमें भी देवा
है बल्कि ये भौगोलिक और सांस्कृतिक परिस्थिति अनुसार सुर अथवा प्रार्यदम्यु संग्रामों में अधिक सहायक होनेके
विभिन्न जातियों और विभिन्न युगोंकी कल्पना पर प्राधाकारण वैदिक आर्योन जो महत्ता इन्द्रको प्रदान की वह
रित हैं ! इसलिए ये अपने-अपने वर्ण, युग और क्षेत्र में अन्य देवताओंको हासिल न हई । जब इन देवताओंकी
प्रधानताका स्थान धारण करते रहे हैं। इन सबका उद्गम । पृथक् पृथक् स्तुति और यज्ञ अनुष्ठान करना, मनुष्यकी
इतिहास एक दूसरेसे पृथक् है और उन सूक्तोंसे बहुत पुराना शक्तिसे बाहरका काम हो गया। तब एक ही स्थानमें
है, जिनमें इनका स्तुति गान, किया गया है। इन प्रायविश्वदेवाके उच्चारण द्वारा सबहोका ग्रहण किये जाने
स्त्रिंश देवताओं में सबसे आखिरी दाखला उन देवोंका है जो लगा७ । इन उपरोक्त बातोंसे पता लगता है कि किन-किन
रुद्र संज्ञासे सम्बोधित किए गए हैं। इनमें पुरुषके दश (1) ऋग्वेद ३.६-६, (२) शतपथ ब्राह्मण ११ ६.३.६ प्राण और एक पारमा शामिल है। शतपथ ब्राह्मणकारने बह-उप ३-१.३, (३) शतपथ ब्राह्मण १४-७-५, शतपथ रुद्रशब्दकी व्युत्पत्ति बताते हुए कहा है-कतमे रुद्रा इति? मा० ११-६ ३-७, वृह. उप. ३-६-४ छा. उप. ३.१५-३ दश इमे प्राणा, प्रास्मा एकादश, ते यदा अस्मात् शरीरात् (४) वृह. उप. ३.१-५, (२) श.प्रा. ४.५७ २, (६) मान् उत्क्रान्ति अथ रोदयन्ति तस्मात् रुद्रा इति ।' (अ) ऋग्वेद १-१३६-११, (आ) भास्कराचार्यकृत निरुक्त (शतपथ ब्रा० ११-६-३-७ व श.प्रा.१४-७-५। २., (ड) शौनक-सर्वानुक्रमणी २
अर्थात् रुद्र कौनसे हैं ये दश प्राण, और ग्यारहवाँ (७) ऋग्वेद १-८8 में 'विश्वदेवा' के नामसे सबकी इकट्ठी प्रास्मा, चूंक मृतक शरीरसे ये निकलकर चले जाते हैं स्तुति की गई है। एते वै सर्वे देवा यद्विश्वे देवाः, कौशन- और दुनियावालोको रुलाते हैं, इसलिए ये रुद्र कहलाते हैं। की मा०-१४-५-३ । विश्वे देवाः यत सर्वे देवाः, गोपथ रुद्रदेवता यक्ष-जन व दस्युजनके पुराने देवता है मा० उत्तराई १२.।
और भारतीय योगसाधनाकी संस्कृतिसे घनिष्ठ सम्बन्ध
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किरण ११]
आय और द्रविड़के संस्कृति सम्मेलन उपक्रम
[३४१
यही जीवन समस्त सुख-दुःखाका एक मात्र आधार हो अध्यात्मवादकी ओर गया । और ब्रह्मा, प्रजापति,विश्वकर्मा-आदि नामोंसे निर्देश इस प्रकार वैदिक जिज्ञासा तर्कहीन विश्वाससे होने लगा । परन्तु प्रास्माका प्ररक सत्ताको छोड़कर जो निकल कर एक सतर्क विचारणाकी ओर वह रही थी। समस्त देवतामाका जनक है, जो प्रारम अनुरूपही देव- इनकी इस तर्कयक्त प्राधिदैविक विचारणामेंसे ही आगे ताओंकी सृष्टि करने वाला है, जो समस्त प्रकारके दर्शनों चल कर ईश्वर और सृष्टिप्रलयवाद-मूलक वैशेषिक तथा (Philosphies) विज्ञानों (Since) और कलाओंका नैयायिक दर्शनका जन्म हुआ। इसमेंसे ही सृष्टिपूर्व अवस्था रचयिता है, समस्त रूपोंका सृष्टा है किसी बाह्य अनात्म सत्ता सम्बन्धी सत्-असत्, सदसत् रूप तीन वादोंका भी विकास को संसारका प्रेरक मानने में जो ऋटियाँ बहु देवतावादमें हश्रा, उपरोक्त सिदान्तोंके निर्माणमें यद्यपि उन माध्या मौजूद थी-वही त्रुटियाँ इस एक देवतावादमें भी थी
स्मिक श्राख्यानोंकी गहरी छाप पड़ी है, जो संसार सागरइसीलिये जीवन और जगतके प्रति निरन्तर बढ़ती हुई
वाद, संसारीच्छेदकपुरुष जन्मवाद, ज्ञानात्मक सृष्टिवाद, जिज्ञासा इस एक देवतावादसे भी शान्तन हो सकी। वह
तपध्यानविलीनताख्य प्रलयवादके सम्बन्धमें दस्युलोगोंने प्रश्न करती ही चली गई।
लघुएशियायी देशों में पहिलेसे ही प्रसारित किये हुए थे।
तो भी आधिदैविक रूपमें ढलनेके बाद वे उनकी विचारसृष्टिकालमें विश्वकर्माका प्राश्रय क्या था? कहाँ से और कैसे उसने सृष्टि कार्य प्रारम्भ किया? विश्वदर्शक देव
णाकी स्वाभाविक प्रगतिका ही फल कहे जा सकते हैं। विश्वकर्माने किस स्थान पर रहकर पृथ्वी और आकाशको
परन्तु यह सब कुछ होने पर भी वैदिक विश्व देवता प्रेरित बनाया ? वह कौलमा वन और उसमें कौमसा वृक्ष है.
एक निरर्थक बस्तु और मानव एक शुष्क अस्थिकालसे जिससे सृष्टि कर्ताने द्यावा पृथ्वीको बनाया ? विद्वानों!
श्रागे न बढ़ सका, एक प्रजापतिबादकी ऋग्वेद 1-14,
और १०.८ में किये गये, (क्यों कब और कैसे सृष्टिकी अपने मनको पूछ देखो कि किस पदार्थके ऊपर खड़ा होकर ईश्वर सारे विश्वको धारण करता है। .
रचना हुई)' प्रश्नोंका हल न कर सकी । मस्तिष्क निरन्तर
एक ऐसे अहंकारमय चैतन्य तस्वकी मांग करता रहा, जो ___ "वह कौनसा गर्भ था जो धु लोक, पृथ्वी, असुर देवा अपनी कामनानासे इस विश्वको सार्थक बनादे, और इस के पूर्व जलमे अवस्थित था, जिसमें इन्द्रादि सभी देवता
कंकालको अपनी मादकता और स्फूर्तिसे उद्वीप्त करदें। रहकर समष्टि से देखते थे२ ।
चुनांचे हम आगे चल कर देखते हैं कि इस मांगके . "विद्वान् कहते हैं कि सृष्टिसे पहिले सब ओर अन्ध
भनुरूप ही वैदिक विचारणामें सहसा ही एक ऐसी क्रांतिका कार छाया हुआ था, सभी अज्ञात और जल मग्न था,
उदय हुमा जिसने इसकी दिशाको बाहरसे हटा भीतरकी
ओर मोड़ रिया, उसे देवतावादसे निकाल पात्मवादमें जुटा तपस्याके प्रभावसे वह एक तत्व (प्रजापति ) पैदा हुआ। उसके मनमें सृष्टिकी इच्छा पैदा हुई । परन्तु इन उक्त
दिया। इस क्रान्तिके फलस्वरूप ही उसे प्रथम बार यह भान
हा कि रंगरूप वाला विश्व जिसकी चमत्कारिक अभिबातोंको कौन जानता है। और किसने इन बातोंको जताया?
व्यक्तियोंके माधार पर वह इसे महाशक्ति और बुद्धिमान यह विसृष्टि किस उपादान कारणसे पैदा हुई। देवता लोग तो इस विसृष्टिके बाद ही पैदा हुए । इसलिए
देवताओंसे अनुशासित मानता रहा है, सत् होते भी यह कौन जानता है कि सृष्टि उस प्रकारसे पैदा हुई। यह
असत् है, ऋतवान् होते हुए भी, अनृतसे भरपूर है, विस्टष्टि उसमें से पैदा हुई। जो इसका अध्यक्ष है और
सुन्दर होते भी कर उपद्रवोंका घर है यह रोग-शोक परम व्योमम रहता , वही ये बातें जानता होगा और
और मौतसे व्याप्त है, यह कभी किसीके वशमें नहीं हो सकता है कि वह भी न जानता हो (३)।
- रहता , इसकी ममता, इसका परिग्रहण बहुत दुःखमय
है। अग्नि वायु इन्द्र आदि विश्वदेवताओंमें जो शक्ति दिखाई (1) ऋगवेद १०.८७
देती है, वह उनकी अपनी नहीं है। इन्हें उद्विग्न और (२) ऋग्वेद १०-८२
विलोडित करनेवाली कोई और ही भीतरीही शक्ति है। (३) ऋग्वेद १०-१२
वैदिक विचारणाकी यह क्रान्ति उसकी स्वाभाविक
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३४२ ]
प्रगतिका फल न थी, बल्कि यह भारतकी द्रविड़ संस्कृतिका ही उसे एक अमर देन थी। यही कारण है कि श्रार्यजातिकी अन्य हिन्दी यूरोपीय शाखाएँ जो यूरोपके अन्य देशोंमें जाकर बाद हुई, वे भारतकी दस्युसंस्कृतिका सम्पर्क न मिलने के कारण अध्यात्मिक वैभवमे सदा वंचित ही बनी रही । ईसा पूर्व की छठी सदीसे यूनान देशकी सभ्यता और साहित्य में जो आध्यात्मिक फुट नजर आती है और वहाँ पथ्यगीरस, डायोजिनीस, प्रोटाभोरण, जैना, पलेटो, सुक रात, जैसे अध्यात्मवादी महा दार्शनिक दिखाई पड़ते हैं, उनका एकमध्ये आत्मविद्याके अमरदूत भारतीय संतोंको ही है, जो समय समय पर विशेषतया बुद्ध और महावीरकाल में तथा उनके पीछे अशोक और सम्प्रतिकाल में यूनान, ईराक, सिरिया, फिलिस्तीन, इथोपिया, आदि देशोंमें देशना और धर्मप्रवर्तना के लिए जाते रहे हैं। उन्हीं की दी हुई यह विद्या यूनानसे होती हुई रोमकी और प्रसारित हुई है । परन्तु इस सम्बन्ध में यह बात याद रखने योग्य है कि यद्यपि भारतीय सन्तोंके परिभ्रमण और देशनाके कारण यूनान में आध्यात्मिक विचारोंका उत्कर्ष जरूर हुआ। परन्तु अध्यात्मिक संस्कृतिकी सजीव धाराले अलग रहने के कारण, ये वहाँ फलोभूत न हो सके । वहाँ के लोग
आज जगतके मदिरालयमें, बना मद्यपी पागल मानव आत्मज्ञानसे शून्य हो चला परके दुःखका ज्ञान न करण भर मुख पर तो देवत्व झलकता अन्तर दानवता छाई वचनों में आडम्बर कितना तदनुसार आचार नहीं है ।
देख रहा हूँ युग परिवर्तन,
युग परिवर्त्तन
श्री मनु 'ज्ञानार्थी' साहित्यरत्न, प्रभाकर देख रहा हूँ युग परिवर्त्तन, यहाँ कहाँ पर स्वार्थ नहीं है ?
कान्
किरण ११
इन्हें विदेशी और अपनी परम्परा विरुद्ध समझकर सदा इनका विरोध करते रहे और इन दार्शनिकोंको देवता-द्रोह और अत्याचारका अपराधी ठहरा। इन्हें या तो कारावास में डाल दिया या इन्हें देश छोड़ने पर बाध्य किया । चुनांचे हम देखते हैं कि डायोजिनीस ( ५०० ई० पूर्व ) और प्रोटोगोरस ( ४६० ई० पूर्व) को एथेन्स नगर छोड़ कर विदेश जाना पड़ा और सुकरात ( ४०० ई० पूर्व ) को विष भरा जाम पी अपने प्राणोंसे विदा लेनी पड़ी । इस अध्यात्मविद्या के साथ जो दुर्व्यवहार उक्त कालमें यूनान निवासियोंने किया वही दुर्व्यवहार श्राजले लगभग २००० वर्ष पूर्व फिलिस्तीन निवासी यहूदियोंने प्रभु ईसाकी जान लेकर किया। उन यूनानी दार्शनिकोंके समान प्रभु ईसा पर भारतीय सन्तोंके त्यागी जीवन और उनके उच्च श्रध्यात्मिक विचारोंका गहरा प्रभाव पड़ा था। भारत यात्रा से लौटने पर जब उसने अपने देशवासियों में जीवकी अमरता आत्म-परमात्माकी एकता, श्रहिंसा संयम, तप, त्याग, प्रायश्चित्त आदि शोध मार्गका प्रचार करना शुरू किया तो उस पर ईश्वर-द्रोह और भ्रष्टाचारका अपराध लगा फांसी पर टांग दिया गया।
यहाँ कहाँ पर स्वार्थ नहीं है ?
अपना अहम् बनाये रखना; परका लघु अस्तित्व मिटाना, अपना जीवन हो चिर सुखमय; परके जीवन पर छा जाना, इसी अमूकी मृग-तृष्णामें; छलकी चिर- सचित छलनामें; उलझ रहा है पागल मानव अपने पनका भान नहीं है ।
देख रहा हूँ युग-परिवत्तन,
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यहाँ कहाँ पर स्वार्थ नहीं है ?
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वैभवकी श्रृंखलायें
RALYANTRare
( मनु 'ज्ञानार्थी' साहित्यरत्न, प्रभाकर )
. उन दिनों वणिक्-श्रेष्ठ शूरदत्तका वैभव अपनी शूरमित्रने अनुजकी विकलता देखी । आँखोंसे चरमसीमा पर पहुंच चुका था। मालव-राष्ट्र के प्रिय आँसू वह निकले । वह बोला-भाई ! नौकरीका नृपति शूरसेनने अपनी राजसभामें उन्हें 'राष्ट्र-गौरव' अर्थ है; भाग्यको हमेशा-हमेशाके लिए बेच देना कह कर अनेकों बार सम्मानित किया था पर, अनि- और व्यापारका अर्थ है, भाग्यकी बार-बार परीक्षा त्यता जो संसारी पदार्थों के साथ जुड़ी है, शूरदत्तके करना । देशान्तर चलें, और व्यापर आरम्भ करें,भाग्य वैभवका सूर्य मध्यान्हके बाद धीरे धीरे ढलने लगा। होगा तो पुनः बीते दिन लौट आयेंगे।
आर, शूरदत्तकी मृत्युके बाद तो वैभव कपूरकी तरह दूसरे दिन जब सबेरा होने को ही था, दोनों उड़ गया; विलीन हो गया । लक्ष्मी अपने चंचल चरण भाई माताका आशिष लेकर रथ्यपुरसे प्रस्थान करके रखती हुई न जाने किस ओर बढ़ गई ? विशाल भवन- किसी अनजान पथकी ओर बढ़ चले। में गृहस्वामिनी है, दो पुत्र हैं, एक पुत्री है किन्तु धन- x x
x के अभावमें भवन मानो सूना-सूना है। प्रतिक्षण अनेकों वर्ष व्यतीत हो गये । पद-पद पर भटकते असन्तोष, लज्जा और गत-वैभवका शोक समस्त परि- हुए ये दोनों सिंहलदीप जा पहुंचे। प्रयत्न करते, पर वारमें छाया रहता है।
कुछ हाथ नहीं आता । भाग्य जैसे रूठ गया है। निर्धनताके बादका वैभव मनुष्यके हृदयको विक- लक्ष्मीको पकड़ने के लिए शून्यमें हाथ फैलाते किन्तु सित कर देता है किन्तु वैभवके बादकी दरिद्रता लक्ष्मी जैसे हाथोंमें आना ही नहीं चाहती । उत्साह मनुष्यके मनको सदाके लिए कुम्हला देती है। दोनों और आशा टूटने लगी। देशकी स्मृति दिनों दिन हरी पुत्र व्यथित थे । हीन दशामें पुरजन और परिजनोंसे होने लगी। एक दिन, दिन भरकी थकानके बाद जब निःसंकोच बोलनेका उनमें साहस अंवशेष न था। वे आवासकी ओर लौट हीरहे थे, कि दूर एक प्रकाशरह-रह कर विचार श्राता था देशान्तरमें जानेका, किंतु पुञ्ज दृष्टिगोचर हुआ। समीप जाकर देखा तो कहाँ जाया जाय ?
आश्चर्य और हर्षसे मानों पागल हो गये। प्रकाशशूरमित्र बोला-'प्रिय अनुज ! यहांसे चलना पुञ्ज एक दिव्य-रत्नका था, जिसकी किरणें दिग-दिगंत ही ठीक है।'
में फैल रही थीं। हृदय उमंगोंसे भर गया । भविष्यके . शूरचन्द्र बोला-'पर, कहाँ जानेकी सोच रहे लिए सहस्रों सुखद कल्पनायें उठने लगी। शूरमित्र हो ?' शूरमित्रने दीर्घ निश्वास लेते हुए कहा-'भाई ! मुस्कराते हुए बोला-'क्या सोचते हो चन्द्र ! दिव्य जहाँ स्थान मिल जाय मुंह छुपानेके लिए । एक ओर मणि हाथ आ गया है। बस, एक मणि ही पर्याप्त पिताका वैभव कहता है उच्च स्तरसे रहनेके लिए, है रूठी हुई चञ्चलाको मनानेके लिए । वैभव फिर दूसरी ओर दरिद्रता खींचती है बार-बार हीनताकी लौटेगा, परिजन अपने होंगे, पुरजन अपने होंगे।
ओर । बस, चल दें घरसे । मार्ग मिल ही जायगा। अब उठ जायँगे हम पुनः दुनियाकी दृष्टि में, और ___ शूर चन्द्र बड़े असमंजसमें था। उसका हृदय मालवपतिकी राजसभामें होगा पिता-तुल्य सम्मान । परदेशकी दिक्कतोंकी कल्पना मात्रसे बैठ सा गया चलो, अब देश चलें। माता और बहिन प्रतीक्षामें था । वह अन्यमनस्क होकर बोला-'यहीं कहीं नौकरी होंगी। करलें । लज्जा-लज्जामें पेट पर बन्धन बाँध कर भूखा रहनेसे तो अच्छा है।'
. भविष्यकी मधुर कल्पनाओंमें सहस्रों योजनका
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३४४ ]
मार्ग तय कर लिया गया । धनकी उष्णता मनुष्यको गति देती है, स्फूर्ति देती है । एक दिन चलते-चलते सन्ध्याका समय होने लगा । एक ग्राम समीप ही दृष्टिमें आया । अमूल्य रत्न लेकर ग्राम में जाना उचित न सम्झ कर अनुज बोला- 'भाई ! आप मणि लेकर यहीं ठहरें, मैं भोजनकी सामग्री लेकर शीघ्र ही आता हूँ ।' इतना कह कर वह ग्रामकी और चल दिया |
अनेकान्त
शूरचन्द्र के अदृश्य होते ही शुरमित्र रत्नको देख - देख कर सोचने लगा--'कितना कीमती है मरिण ! म एक है, बांटने वाले हैं दो ? अमूल्य मरिण मरे ही पास क्यों न रहे ? चन्द्रको हिस्सेदार बनाया ही क्यों जाय ? थोड़ा सा प्रयत्न ही तो करना है चन्द्र चिरनिद्रा में सोया कि रत्न एकका हो गया। एकाकी सम्पूर्ण बैभव, एकाकी सम्पूर्ण प्रतिष्ठा और एकाकी सम्पूर्ण कीर्त्तिकी धारा प्रवाहित होगी मेरे नाम पर । नया घर बसेगा, नवीन वधू आयेगी, सन्तान - परम्परा विकसित होगी। समस्त संगीत भरा संसार एकका होगा। दूसरा क्यों रहे मार्ग में बाधक ? पनपने के पूर्व ही बाधाका अंकुर तोड़ ही क्यों न दिया जाय ? काँटा तोड़ने के बाद ही तो फूल हाथ आता है।' लालसा की तीव्रताने विचारों को धीरे-धीरे दृढ़ बनाना प्रारम्भ कर दिया । वैभवका महल अनुजकी लाश पर रखे जानेका उपक्रम होने लगा । कुछ समय बाद अनुज सामने आया । उसकी आकृति पर संकोच था । वह समीप आते ही बोला – 'भाई ! बड़े व्याकुल हो ? देर तो नहीं हुई मुझे भोजन लानेमें ? लो, अब शीघ्र ही भोजन ग्रहण करो ।
का स्वभाविक आत्मीयताने ज्येष्ठके विकारी मनको झकझोर डाला । विरोधी विचार टूट टूट कर गिरने लगे । अनायास ही बाल्यकालका अनोखा प्यार स्मृति-पट पर अति होने लगा। नन्हें से चन्द्रकी लीलाएँ एक-एक करके चित्रोंकी भांति आँखों के सामने आने लगीं । ममतासे हृदय गीला हो चला और अनुजको खींच कर अपने हृदयसे लगाते हुए वह बोला -- " चन्द्र ! यह रत्न अपने पास ही रखो । उनका भार असह्य हो चला है। छोटेसे मशिने मेरे आत्मिक सन्तुलनको नष्ट कर देनेका दुस्साहस
[ किरण ११
किया है ।" इतना कहते-कहते उसने रत्नको अनुजके हाथोंमें सौंप दिया। अनुजकी समझमें यह विचित्र घटना एक पहेली बन कर रह गई । प्रभात होते ही फिर प्रस्थान किया । धीरे धीरे पुनः दिन ढलने लगा । पुनः किसी नगरके समीप वसेरा किया। ज्येष्ठ बोला"मणि सम्हाल कर रखना, मैं भोजन लेकर शीघ्र ही लौहूँगा ।" इतना कह कर वह नगरकी ओर चल दिया ।
शूरमित्रके जानेके बाद शूरचन्द्रने रत्न निकाल कर हथेली पर रखा । उसे ऐसा लगा मानों सारा विश्व ही उसकी हथेली पर नाच रहा हो। कितना कीमती है ? करोड़ स्वर्ण मुद्राओं का होगा ? नहीं, इससे भी अधिकका है । पर मैं क्यों मानता हूँ इसे केवल होगा ज्येष्टका हिस्सा । बांटना, न बांदना मेरे ही अपना ? ज्येष्ट भ्राता का भी तो भाग है इसमें । अंह ! आधीन है आज। पर, कैसे होगा ऐसा ? रास्ते से
ना होगा ? वैभवकी पूर्णताके लिये बड़े-बड़े पुरुषोंने भी पिता का वध किया है। वैभव और प्रतिष्ठाकी राहसे द्वित्वको हटाना ही होता है, पर विभाजन तो उसीके कारण हैं । सारे कृत्योंका श्रय ज्येष्ठको ही मिलता है और अनुज आता है बहुत समय बाद दुनियां की दृष्टिमें । ज्येष्ठ ही वैभव और प्रतिष्ठा पर दीर्घकाल तक छाया रहे, यह कैसे सहन होगा ? सामने ही अन्धकूप है, पानी भरनेको रौद्र विचारोंमें उसके भविष्यका मधुर स्वप्न और भी जायगा । बस, एक ही धक्केका तो काम है ।" इन्हीं रंगीन हो चला ।
"पत्नी आयेगी । भवन किलकारियोंस भर जाएगा। वह भी एकमात्र घरकी अधिस्वामिनी क्यों न होगी ? जेठानीका अंकुश क्यों होगा उसके ऊपर ? वह स्वाधीन होगी, एकमात्र स्वामित्व होगा उसका भृत्य-वर्ग पर ।"
इसी समय शूरमित्रता हुआ दिखाई दिया। शूरचन्द्र भयसे सहसा कांप गया । दुष्कल्पनाओंने उसके मनको विचलित कर दिया। आकृति पर पीलापन छा गया। सोचने लगा- "ज्येष्ठकी आकृति पर हास क्यों ? क्या समझ गया है उसकी विचार धाराको ?”
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किरण ११ ]
बेचैन
शूरमित्र समीप आते ही बोला - चन्द्र! क्यों हो ? कुछ देर तो अवश्य हो गई है। लो; अब जल्दी ही भोजन करो ।" यह कहते-कहते उसने बड़े स्नेहसे अनुज के सामने भोजन सामग्री रख दी ।
वैभव की शृङ्खलाए
अनुजका मन स्नेहके बन्धनमें आने लगा । अपने मानसिक पतन पर रह-रह कर उसे पश्चाताप होने लगा—“ज्येष्ठ भ्राता पिता-तुल्य होता है। कितना नीच हूँ मैं? एक मणिके लिए ज्येष्ठ भ्राताका वध करनेको उद्यत हुआ हूँ ! वाह रे मानव ! क्षुद्र स्वार्थके भीषणतम स्वप्न बनाने लगा ! भ्रातृद्रोही ! तुझे शान्ति न 'मिलेगी । तेरी कलुषित आत्मा जन्म-जन्मान्तर तक भटकती रहेगी । वाह री वैभवकी आग ! अन्तरके स्नेहको जलाने के लिए मैं ही अभागा मिला था तुझे ? अनुज विचारों में खो रहा था और व्येष्ठ उसके मस्तक पर हाथ रखकर सींच रहा था स्नेह । स्नेहकी धारा बहने लगी और बहने लगा उसमें अनुजका विकारी मन | शूरचन्द्र अपने आपको अधिक समय तक न सम्हाल सका, स्नेह से गद्गद् होता हुआ वह, शूरमित्रके चरगों में लोटने लगा । कैसी थी वह आत्मग्लानिकी पीड़ा ? हृदय भीतर ही भीतर छटपटा रहा था। जैसे अन्तर में कोई मुष्टिका प्रहार ही कर रहा हो। अनुज कराह उठा । वह टूटे कण्ठसे बोला- हे ज्येष्ट भ्रात! हे पितातुल्य भ्रात ! लो इस पापी मरिणको । लो इस पतनकी आधार-शलाको । दो हृदयों में दीवार बनाने वाले इस पत्थरको आप ही सम्हालो एक क्षण भी यह भास है ज्येष्ठ !
ज्येष्ठकी आँखोंसे धारा वह रही थी। वह लड़खड़ाते स्वर में बोला- "अनुज ! कैसे रखूँ इसे अपने पास ? सबसे पहले तो पापी मणिने मुझे ही गिराया है मानसिक शुद्धिके मार्गसे। रत्नके दावमें आते ही मैं दानव हो जाता हूँ । तुम इसे रखने में असमर्थ हो, मैं इसे रखने के लिए और भी पहले असमर्थ हूँ । क्या किया जाय इस रत्नका ?"
शूरचन्द्र मौन था ! प्राणोंमें कम्पन तीव्र वेगसे उठने लगा । मौन-भंग करते हुए वह बोला - "क्या करना इस पत्थरका ? फेंक दो बेतवाके प्रवाह में । भाई उतार दो इस जघन्यतम अभिशापको ।” इतना सुनते
[ ३४५
ही शूरमित्रने वह अमूल्य मरिण बेतवाके प्रवाह में इस प्रकार फेंक दिया जैसे चरवाहोंके बच्चे मध्यान्हमें नदीके तीर पर बैठ कर जलमें तरंगे उठाने के लिए कंकड़ फेंकते हैं । रत्नके जलमें विलीन होते ही दोनोंने सुखकी साँस ली, स्नेहका गढ़ अभेद्य हो गया । अब उसमें लालच जैसे प्रबल शत्रुके प्रवेश के लिए कोई मार्ग अवशेष न था । मार्ग तय हो चुका था । स्नेहसे परिपूर्ण दोनों भाई अपने घर जा पहुंचे ।
पुत्र-युगलका मुख देखते ही माताकी ममता उमड़ने लगी । बहिनने दौड़ कर उन्हें हृदयसे लगा लिया ! माँ बोली — कैसा समय बीता परदेशमें ?
शूरमित्र गम्भीरतापूर्वक बोला - माँ ! परदेश तो परदेश है । सुख दुख सब सहन करने पड़ते हैं । जीवन के हर्ष विषाद सामने आए, प्रलोभन आए । सब पर विजय पाकर दोनों उसी स्नेहसे परिपूर्ण आपके सामने हैं ।
माता पुत्रोंके विश्राम और भोजनके प्रबन्धके लिए व्याकुल थी । समस्त छोटी-मोटी बातें रात्रिके लिए छोड़ कर वह बाजार गई और रोहित नामक मछली लेकर घर आ पहुंची। पुत्रीने सारा सामान व्यवस्थित कर ही दिया था । उसने ज्यों ही मछली को थोड़ा चीरा ही था कि हाथ सहसा रुक गये, आश्चदिव्य-मरिण ! हाथ में मरिण लेते ही वह सोचने लगीसे 'मुख विस्फारित होकर रह गया। मछलीके पेट में आज वर्षोंके बाद देखा है ऐसा महार्घ मणि । वर्षोंका दारिद्र नष्ट होनेको है क्षण भर में । पुत्रोंको दिखाऊँ क्या ? ॐह क्या दिखाना है पुत्रोंको । कौन किसका है ? बुढ़ापा आया कि सन्तान उपेक्षाकी दृष्टिसे देखने लगी। भोजन, वस्त्र ही नहीं पानी तकको तरसते हैं, वृद्ध माँ-बाप । बहुऐं नाक-भौंह सिकोड़ती हैं, पुत्र घृणा से मुँह फेर लेते हैं। बुढ़ापेका सहारा मिल गया है । क्यों हाथसे जाने दूं ? पर, कैसे भोग सकूँगी इसे ? मार्ग से हटाना होगा पुत्र-पुत्रीके जंजाल को ? क्यों नहीं, रत्नका प्रतिफल तभी तो पूरा मिलेगा, संसार में पुत्रोंसे नहीं, धनसे मान मिलता है। एक बूदन हलाहलका ही तो काम है ।"
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अनेकान्त
| किरण ११
इसी समय पुत्रीने भोजन-कक्ष में प्रवेश किया। भाइयों की ओर देखने का उस साहस नहीं होता। पाप आते ही वह बोली-'कितना सुहावना लगता है आज जो सिर पर चढ़ कर बाल रहा है। वह फफक-फरक भवनमें । धन भले ही न हो, पुत्र रत्न तो हैं, मनकी कर रो पड़ी। माँका प्यार स्मरण आने लगा। वे शान्तिके लिये । तुम कितनी भाग्यवान हो माँ ! लोरियाँ स्मरण आने जो उसे सुलाने के लिए मां बचपन
पुत्रीके शब्द सुनते ही उसे एक धक्का सा लगा। में गाती रही थी। वे कौतुक याद आने लगे जो बचचेतना पुनः जागृत हुई । मन धीरे-धीरे विवेककी ओर पनमें स्नेह-सिक्त होकर भाइयों के साथ किए थे । छिः मुड़ने लगा । सोचने लगी-"ऋषियोंने कहा है पुत्र, पापिष्ठे ! जन्म दात्री माताका हनन करने चली है ? कुपुत्र हो सकता है पर माता, कुमाता नहीं होती । और वाह री भगिनी ! फूलसे कोमल भाइयोंको मारने चली मैं ? वाह री माता! नौ माह जिन्हें गभेमें धारण किया. है, एक पाषाण-खण्डके लिए? जिनका मुंह देख कर प्रसव पीड़ा भी भल गई, जिनके बहिनकी करुण स्थिति देख कर दोनों भाई सोच मुखको देख-देखकर एक एक क्षण आत्मविस्मृति में रहे थे कितना स्नेह है दोनोंके प्रति बहिनका, सारासमाप्त हश्रा, जिनकी किलकारियोंसे सारा भवन भरा . का सारा स्नेह जैसे आंसुओंकी धारा बन कर वहा जा रहा, आज उसी अपने रक्तको कुचलने चलो है माता रहा है। बस, एक पत्थरके टुकड़े के लिए ? धिक् पापिष्ठे ! मित्रवती भोजन करनेके बाद बहुत समय तक अचेतनके लिये चेतनका व्याघात करने चली है ?" एकान्तमें रोती रही । पश्चातापकी ज्वालामें जलती हुई इतना सोचते हुए उसने अन्यमनस्क भावसे कहा- वह रात्रिके समय भाइयों के कक्ष में जा पहुंची। हृदय"पुत्री ! देखो, यह मूल्यवान रत्न है। सम्हाल कर की समस्त वेदनाको अन्तरमें छुपा कर वह मुस्कराती रखना"
हुई बोली-लो भैया ! एक रत्न है यह मूल्यवान । मित्रवतीने रत्नको हाथमें लिया पर माताकी अन्य- इसे अपने पास रखो । रत्न देखते ही दोनों सारा मनस्कता वह समझ न सकी । धनमें बड़ा नशा है। रहस्य समझ गये । बहिनके रत्न-दानका रहस्य सोच जब यह नशा चढ़ता है तो बेहोश हो जाता है प्राणी। कर उनमें संसारके प्रति एक विचित्र सी अरुचि होने विवेककी आँखें बन्द हो जाती हैं.। अदृश्यपूर्व था लगी। माता भी गृह-कार्यसे निवृत होकर आ पहुंची। रत्न । सोचने लगी-कौन किसका भाई ? कौन-किस- देश विदेशकी चर्चाओंके बाद उन्होंने मातासे कहाकी माँ ? सब स्वार्थके सगे हैं । गरीब बहिनको किसने
'माँ ! दरिद्रता कोई बुरो वस्तु नहीं। दरिद्रतामें व्यक्ति प्यार दिया है ? भाई वैभवके नशेमें चूर रहते हैं और इतना दुःखी नहीं जितना वैभव पानेके बाद । दरिद्रता बहिन दर-दरकी ठोकरें खाती है। क्यों न सलाद व्यक्तिके लिए वरदान है । वैभवकी अपेक्षा दरिद्रतामें सदाके लिए। धनवान युवतीके लिए कल्पनातीत वर शान्ति है, तृप्ति है।' भी तो मिल जाता है । आश्चर्यकी क्या बात है? माँ ने बेटोंकी ओर प्रश्न-सूचक दृष्टिसे देखा।
भोजन तैयार हो चुका था मां बेटोंको लेकर मानों जानना चाहती है कि वैभवमें अशान्ति कैसी ? भोजन-भवनमें आई । शूरमित्र बाला-चन्द्र आज तो शूरमित्र बोला-माँ ! एक रत्न मिला था हम बहिन मित्रवतीके साथ भोजन करेंगे । याद है जब दोनोंका, जिसे संसार सम्पदा मानता है। रत्न हाथ छोटी सी गुड़ियोंकी तरह इसे लिए फिरते थे? चिढ़ाते में आते ही मैंने एकाकी ऐश्वर्यके काल्पनिक सपने थे, रुलाते थे, मनाते थे इसे ।" इता कहते-कहते बना लिए । अनुजको मार कर वैभवकी एकाकी भोगनेउसने मित्रवतीको अपने थालके समीप ही खींच लिया की विषैली महत्वाकांक्षा मनमें भड़कने लगी । भाग्यसे दोनों भाई स्वयं खाते, बहिनको खिलाते, भवनमें मनमें स्नेहकी धारा वह निकली, अन्यथा भ्रातृ-हत्याका आनन्दकी लहर दौड़ गई।
पाप जन्म-जन्ममें लिए भटकता फिरता। शुरचन्द्र पर, मित्रवती तो जसे धरतीमें धंसी जा रही है। बोला-माँ! ज्येष्ठ भ्राताने रत्न मुझे सौप दिया था
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किरण ११ ]
किन्तु कुछ समझ में न आ सका था । धनकी मंदिरा पीते समय कुछ न सोचा। थोड़ी देर में वहीं नशा मुझे भी बेहोश बनाने लगा, जिसका परिणाम ज्येष्ठ भोग चुका था । अन्धकूपमें गिरानेका दृढ़ निश्चय कर लिया । किन्तु स्नेहने विकारी मनको रोक दिया, बाँध दिया ।'बच गया पापके पङ्क में गिरते-गिरते । किंतु माँ ! ज्ञात होता है पापका बीज फिर आगया है इस घर में । मित्रवती द्वारा अर्पित रत्न वही रत्न है, माँ ।
माँ की आकृति पर विषादकी रेखायें गहरी हो चलीं । शूरमित्र बोला — माँ ! अब दुखी होनेसे क्या लाभ ? इस रत्न को अपने पास रखो। माँ ! तुम जन्मदात्री हो, पवित्र हो, गंगा-जलकी भांति । सन्तानके लिए माताके मनमें कल्पना भी नहीं आ सकती, खोटी ।'
वैभवकी शृङ्खल
पुत्रोंकी बात सुन माँका विषाद आँखोंकी राहसे वह निकला । वह भर्रायी हुई ध्वनि में बोली- 'बेटा! वैभवको लालसा बड़ी निष्ठुर है । उसे पानेके लिए माँ भी सन्तानको मारने के लिए कटिबद्ध हो जाय, तो इसमें क्या आश्चयें है ? वैभवकी क्षुधा सर्पिणीकी प्रसव कालीन क्षुधा है जो अपनी सन्तानको निगलने पर ही शान्त होती है । मैंने भी मछलीके पेटको चीरते समय ज्यों ही रत्नं देखा, मित्रवती और तुम दोनोंको मार डालनेके विचार बलवान होने लगे । पर माँकी ममताने विजय पायी और मैंने ही बड़ी ग्लानिसे मित्रवतीको दे दिया था; वह रत्न ।'
मित्रवती बोली- 'माँ ! मैं भी हतबुद्धि हो चली थी रत्न पानेके बाद लालसाने पारीवारिक बन्धन ढीले कर दिये थे । एक विचित्र पागलपन चलने लगा था मस्तिष्क में | सौभाग्य है कि दुर्विचार शांत हो गये हैं ।"
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किसी अदृश्य शक्तिके न्यायालय में चार अपराधी अपना-अपना हृदय खोल कर अचल हो गये थे । चारों ओर स्मशान जैसी भयानक नीरवता थी । पश्चातापकी लपटें सू सू करके पापी हृदयोंका दाहसंस्कार कर रही थीं । एककी ओर देखनेका दूसरे में साहस न था । मस्तक नत थे, वाणी जड़ थी, विवेक गतिमान था ।
शूरमित्र बोला भारी मनसे - 'माँ ! इस संसारके थपेड़े अब सहन नहीं होते । काम, क्रोध, माया और लालसाका ज्वार उठ रहा है पल पलमें। आत्मा क्षतविक्षत हो रही है, आधारहीन भटक रही है जहाँतहाँ । संसारी सुखोंकी मृग-तृष्णामें कब तक छलू अपने आपको । दूर किसी नीरव प्रदेश से कोई आह्वान कर रहा है। कितना मधुर है वह ध्वनि ? कितना संगीत-मय है वह नाद ? अनादि परम्परा विघटित होना चाहती हैं। देव ! अब सहा नहीं जाता। शरण दो, शान्ति दो ।'
शूरमित्र ही नहीं सारे परिवारका वह करुण चीत्कार था; विकलता थी; विरक्ति थी, जो उन्हें कि अज्ञात पथकी ओर खींच रही थी ।
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धरती पर नृत्य करने लगी है। दो युवा पुत्र, पुत्री प्रभातका समय है । दिनकरकी कोमल किरणें और माता मुनिराजके चरणोंमें नतमस्तक हैं । अरहंत शरणं गच्छामि ! धर्मशरणं गच्छामि !! साधु शरणं गच्छामि !!! की ध्वनिसे दिग्-दिगन्त व्याप्त है । वैभवकी श्रृङ्खलायें, जो मानवको पापमें जकड़ देती हैं, खण्ड खण्ड हो गई हैं । उदय-कालीन सूर्यकी रश्मियाँ पल-पल पर उनका अभिषेक कर रही है। आज उनकी आत्मामें अनन्त शान्ति है ।
आवश्यक सूचना
आगामी वर्ष से अनेकान्तका वार्षिक मूल्य छह रुपया कर दिया गया है । कृपया ग्राहक महानुभाव वह रुपया हो भेजने का कष्ट करें।
मैनेजर – 'अनेकान्त'
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धर्म और राष्ट्र निर्माण
. (लेखक-आचार्य श्रीतुलसी) धर्म उत्कृष्ट मंगल है। प्रश्न होता है-कौन सा धर्म? जमा लेना राष्ट-निर्माण है। यदि इन्हींका नाम राष्ट्र-निर्माण क्या जैनधर्म, क्या बौद्धधर्म, क्या वैदिक धर्म ? नहीं यहाँ होता है तो मैं बल पूर्वक कहूँगा-यह राष्ट्र-निर्माण नहीं जो धर्मका स्वरूप बताया गया है वह जैन, बौद्ध या वैदिक बल्कि राष्ट्रका विध्वंस है, विनाश है। ऐसे राष्ट्र के निर्माणमें सम्प्रदायसे सम्बन्धित नहीं। उसका स्वरूप है-अहिंसा, धर्म कभी भी सहायक नहीं हो सकता। ऐसे राष्ट्र-निर्माणसे संयम और तप । जिस व्यक्निमें यह यात्मक धर्म अवतरित धर्मका न कभी सम्बन्ध था और न कभी होना ही चाहिए। हा है उस व्यक्तिके चरणोंमें देव और देवेन्द्र अपने मुकुट यदि किसी धर्मसे ऐसा होता हो तो मैं कहूँगा-वह धर्म, रखते हैं। देवता कोई कपोल-कल्पना नहीं है। वह भी एक धर्म नहीं बल्कि धर्मके नाम पर कलंक है। धर्म राष्ट्रके कलेमनुष्य जैसा ही प्राणी है। यह है एक असाम्प्रदायिक विशुद्ध वरका नहीं उसकी आत्माका निर्माता है । वह राष्ट्रके. जनधर्मका स्वरूप ।
जनमें फैली हुई बुराइयोंको हृदय परिवर्तनके द्वारा मिटाता आप पूछेगे-महाराज ! आप किस सम्प्रदायके धर्मको है। हम जिस धर्मकी विवेचना करना चाहते हैं वह कभी अच्छा मानते हैं ? मैं कहूंगा-सम्प्रदायमें धर्म नहीं है। वे उपरोक्त राष्ट्रके निर्माणमें अपना अणुभर भी सहयोग नहीं दे तो धर्मप्रचारक संस्थायें हैं। वास्तवमें जो धर्म जीवन-शुद्धिका सकता। मार्ग दिखलाता है वही धर्म मुझे मान्य है। फिर चाहे उस धमंसे सब कुछ चाहते हैं धर्मके उपदेष्टा और प्रवर्तक कोई भी क्यों न हो ? जीवन
____ धर्मकी विवेचना करनेके पहले हम यह भी कुछ सोच लें शुध्धात्मक धर्म सनातन और अपरिवर्तनशील है ।वह चाहे
कि धर्मकी आज क्या स्थिति है ? और लोगोंके द्वारा वह कहीं भी हो, मुझे सहर्ष ग्राह्य है।
किस रूपमें प्रयुज्य है ? धर्मके विषयमें आज लोगोंकी सबसे आज जो विषय रखा गया है वह सदाकी अपेक्षा कुछ
। अपहा कुछ बड़ी जो भूल हो रही है वह यह है कि धर्मको अपना उप- . जटिल है। जहाँ हम सब आत्मनिर्माण, व्यक्ति-निर्माण और
कारी समझ कर उसे कोई बधाई दे या न दे परन्तु दुत्कार जननिर्माणको लेकर धर्मकी उपयोगिता और औचित्य पर
आज उसे सबसे पहले ही दी जाती है। अच्छा काम हुआ प्रकाश डाला करते हैं, आज वहाँ राष्ट्रनिर्माणका सवाल जोड़
तो मनुष्य बड़े गर्वसे कहेगा-मैंने किया है। और बुरा काम कर धर्मक्षेत्रकी विशालताकी परीक्षाके लिए उसे कसौटी पर होता
- हो जाता है तो कहा जाता है कि परमात्माकी ऐसी ही मर्जी उपस्थित करना है। इस विषय पर जिन वक्ताओंने आज दिली
थी ? आगे न देखकर चलनेवाला पत्थरसे टक्कर खाने पर खोल कर असंकीर्ण दृष्टिकोणसे अपने विचार प्रकट किये हैं
यही कहेगा कि किस बेवकूफने रास्तेमें पत्थर ला कर रख इस पर मुझे प्रसन्नता है।
दिया । मगर वह इस ओर तो कोई ध्यान ही नहीं देता कि राष्ट्र विध्वंस
यह मेरे देख कर न चलनेका ही परिणाम है । लोगोंकी कुछ विषयमें प्रविष्ट होते ही सबसे पहले प्रश्न यह होता है ऐसी ही आदत पड़ गई है कि वे दोषोंको अपने सिर पर कि राष्ट्र-निर्माण कहते किसे हैं ? क्या राष्ट्रकी दूर-दूर तक लेना नहीं चाहते, दूसरोंके सिर पर ही मढ़ना चाहते हैं। सीमा बढ़ा देना राष्ट्र-निर्माण है ? क्या सेना बढ़ाना राष्ट्र- अहिंसाका उपयुक्त पालन तो स्वयं नहीं करते और अपनी निर्माण है ? क्या संहारके अस्त्र-शस्त्रोंका निर्माण व संग्रह कमजोरियों, भीरुता और कायरताका दोषारोपण करते हैंकरना राष्ट्र-निर्माण है ? क्या भौतिक व वैज्ञानिक नये-नये अहिंसा पर । धर्मके उसूलों पर स्वयं तो चलते नहीं और आविष्कार करना राष्ट्र-निर्माण है ? क्या सोना-चाँदी और भारतकी दुर्दशाका दोष थोपते हैं-धर्म पर । मेरी दृष्टिमें यह रुपये पैसोंका संचय करना राष्ट्र-निर्माण है? क्या अन्याय भी एक भयंकर भूल है कि लोग अच्छा या बुरा सब कुछ शनियों व राष्ट्रोंको कुचल कर उन पर अपनी शक्तिका सिक्का धर्मके द्वारा ही पाना चाहते हैं, मानो धर्म कोई 'कामकुम्भ'
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किरण ११]
धर्म और राष्ट्र निर्माण
[३४६
ही है। कहा जाता है-कामकुम्भसे जो कुछ भी मांगा जाता और प्रसन्न रह सकती है जब कि उसमें धर्मके तत्व घुलेहै वह सब मिल जाता है। मुझे यहाँ नीचेका एक छोटा सा मिले हों। किस्सा याद आता है:
व्यवस्था और धर्म दो हैं "एक बेवकूफको संयोगसे कामकुम्भ मिल गया। उसने सोचा-मकान, वस्त्र, सोना-चाँदी आदि अच्छी चीजें तो
धर्म क्या राष्ट्र और क्या समाज दोनोंका ही निर्माता है, इससे सब मिलती ही हैं पर देखें शराब जैसी बुरी चीज भी
किन्तु जब उसको राज्य-व्यवस्था व समाज-व्यवस्थामें मिला मिलती है या नहीं। ज्योंही शराब माँगी त्योंही शराबसे
दिया जाता है तब राज्य और समाज-दोनोंमें भयंकर गढ़छलाछल भरा प्याला उसके सामने आ गया। अब वह मोनो बड़का सूत्रपात होता है किन्तु इसके साथ-साथ धर्मके प्राण बगा-शराब तो ठीक, मगर इसमें नशा है या नहीं। पीकर
भी संकटमें पड़ जाते हैं। लोगोंकी मनोवृत्ति ही कुछ ऐसी है परीक्षा करूं। पीनेके बाद जब नशा चढ़ा और मस्ती आई
कि यहां साधारणसे साधारण कार्यमें भी धर्मकी मोहर लगा तब वह सोचने लगा–वेश्याओंके नयन-मनोहारी नृत्यके ।
दी जाती है। किसीको जल पिला दिया, या किसीको भोजन विना तो सब कुछ फीका ही है। विलम्ब क्या था। कामकु.
करा दिया, बस इतने मात्रसे आपने बहुत बड़ा धर्मोपार्जन म्भके प्रभावसे वह भी होने लगा। तब उसने सोचा-देखें,
कर लिया ! यह क्या है ? इसमें धर्मकी दुहाई क्यों दी जाती मैं इस कामकुम्भको सिर पर रखकर नाच सकता हूँ या नहीं।
हैं ? और धर्मको ऐसे संकीर्ण धरातल पर क्यों घसीटा जाता आखिर होना क्या था ? कामकुम्भ धरती पर गिरकर चकना
है ? ये सब तो धर्मके धरातलसे बहुत नीचे एक साधारण चूर हो गया। वेश्याओंके नृत्य बन्द हो गए और जब उस
व्यवस्था और नागरिक कर्तव्यकी चीजें हैं। व्यवस्था और बेवकूफकी आँखें खुली तो उस कामकुम्भके फूटे टुकड़ोंके साथ
धर्मको मिलानेसे जहाँ धर्मका अहित होता है वहाँ व्यवस्था साथ उसे अपना भाग्य भी फूटा हुआ मिला।
भी लड़खड़ा जाती है । धर्म, व्यवस्था और सामाजिक कर्त
व्यसे बहुत ऊपर आत्म-निर्माणकी शकिका नाम है। भौतिक ____ कहनेका तात्पर्य यह है कि लोग कामकुम्भकी तरह शकियोंकी अभिवृद्धिके साथ उसका कोई सम्बन्ध नहीं और धर्मसे सब कुछ पाना चाहते हैं। मगर इसके साथ मजेकी न उसका यह लक्ष्य ही है कि वे मिले। आज राजनातक बात यह है कि अगर अच्छा हो जाय तो धर्मको कोई बधाई नेता उस आवाजको बुलन्द अवश्य करने लगा नहीं देता। उसके लिए तो अपना अहंकार प्रदर्शित किया जाता राजनीतिसे परे रखा जाय पर हम तो शताब्दियास यहा है और अगर बुरा हो गया तो फिर धर्म पर दुत्कारोंकी बौछार वाज बलन्द करते पा रहे हैं। मेरा यह निश्चित अभिमत कर उसकी चाम उधेड़ ली जाती है। आप यह निश्चित है कि यदि धर्मको राजनीतिसे अलग नहीं रखा जाएगा तो समझे कि धर्म किसीका बुरा करने या बुरा देनेके लिए है ही जिस प्रकार एक समय 'इस्लाम खतरे' का नारा बुलन्द हुआ नहीं। वह तो प्रत्येक व्यक्तिका सुधार करनेके लिए है और था उसी प्रकार 'कहीं और कोई धर्म खतरेमें ऐसा नारा न उसका इसीलिए उपयोग होना चाहिए ।
गूज उठे । मैं समझता हूँ यदि धार्मिक लोग सजग व सचेत
रहें तो कोई कारण नहीं कि भविष्यमें यह त्रुटी दुहरायी राष्ट्र और धर्म
जाय। अब यह सोचना है कि धमका राष्ट्र-निर्माणसे क्या निरपेक्ष राज्य सम्बन्ध है। वास्तवमें राष्ट्रके आत्मनिर्माणका जहाँ सवाल है वहाँ धर्मका राष्ट्रसे गहरा सम्बंध है। मेरी दृष्टिमें राष्ट्रकी आत्मा भारतीय संविधानमें धर्मको जो धर्म-निरक्षेप राज्य बताया मानव समाजके अतिरिक्त दूसरी सम्भव नहीं। मानव-समाज गया है उसको लेकर भी आज अनेक भ्रान्तियाँ और उलझने व्यकियोंका समूह है और व्यक्ति-निर्माण धर्मका अमर व फैली हुई हैं। कोई इसका अर्थ धर्महीन राज्य करता है तो अमिट नारा है ही। इस दृष्टिसे राष्ट्र-निर्माण धर्मसे सीधा कोई 'नास्तिक राज्य' । कोई आध्यात्मिक राज्य करता है तो सम्बन्ध है । धर्म रहित राष्ट्र राष्ट्र नहीं अपितु प्राण शून्य कोई पापी राज्य । देहली प्रवासमें जब मेरा संविधान विशेषकलेवरके समान है। राष्ट्रकी आत्मा तब ही स्वस्थ मजबूत जोंसे सम्पर्क हा तो मैंने उनसे इस विषयमें चर्चा की।
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उन्होंने बताया — “महाराज ! लोग जैसा अर्थ करते हैं वास्तव में इस शब्दका वह अर्थ नहीं है । इसका मतलब यह है कि यह राज्य किसी धर्म-सम्प्रदाय विशेषका न होकर समस्त धर्म सम्प्रदायोंका राज्य है ।” वास्तवमें यह ठीक ही है जैसे अभी-अभी स्वामीजी (काशी के मण्डलेश्वर ) ने बताया कि भारतमें एक हजार धर्म और सम्प्रदाय प्रचलित हैं। अगर किसी धर्म या सम्प्रदाय विशेषका राज्य स्थापित किया जाय तो मार्ग सम नहीं रहेगा, प्रत्युत बड़ा विषम व कण्टकाकी बन जायगा । इतने धर्म सम्प्रदायोंमें किसी एक धर्म या सम्प्रदाय विशेष पर यह सेहरा बाँधना अनेक जटिल सम स्याओंसे खाली नहीं है। मेरे विचार से ऐसा होना नहीं चाहिए। धर्मको राज्यके संकीर्ण व परिवर्तनशील फंदमें फंसाना राज्यको भयंकर खतरेके मुँहमें उफैलना और धर्म को गन्दा व सड़ीला बनाना है । विनाश कारक बनाना है । ये दो अलग-अलग धारायें हैं और दोनोंका अलग-अलग अस्तित्व महत्त्व और मार्ग है। इनको मिलाकर एक करना न तो बुद्धिमत्ता ही है और न कल्याणकर ही ।
अनेकान्त
[ किरण १|
कर गई है ये सपने में भी कभी आगे नहीं बढ़ सकते। प्रकार घरपर किसी अभ्यागतका तिरस्कार करना भी इसी सूचक है कि असलियत में धर्म अभी धारमामें उतरा नहीं है। धर्म कभी नहीं सिखाता कि किसीके साथ अनुचित व ि ष्टतापूर्वक व्यवहार किया जाय । वास्तवमें भूतकाल में भारत क जो प्रतिष्ठा थी, जो उसका गौरव था वह इसलिये नहीं ? कि भारत एक धनाढ्य व समृद्धिशाली राज्य था और न व इसलिये ही था कि यहां कुछ विस्मयोत्पादक आविष्कार व शक्तिशाली राजा-महाराजा तथा सम्राट् थे। इसका जो गौर था यह इसलिये था कि यहां करा- कमें धर्म, सदाचार, नीति, न्याय और नियन्त्रणको पावन पुनीत धारा बहती रहती थी। सत्य और ईमानदारी यहांके में कूट-कूटकर भरी हुई अणु थी। तभी बाहरके लोग यहांकी धर्मनीतिका अध्ययन करनेके लिये यहां पर श्रानेको विशेष उत्सुक व लालायित रहते थे । श्राज प्रत्येक भारतीयका यह कर्तव्य है कि वह विचार करे कि हम उस समृद्धिशाली विश्वगुरु भारतकी संतानें अपनी मुख पूंजी संभाले हुए हैं या नहीं। यदि भारतीय लोग ही अपनी
पूजीको भूल देगे तो क्या यह उनके लिये विडम्बनाकी बात नहीं है ? कहते हुए खेद होता है कि यहां पर नित्य नये धर्म व सम्प्रदायोंके पैदा होनेके बावजूद भी न तो भारत की कुछ प्रतिष्ठा ही बढ़ी है और न कुछ गौरव ही ! प्रत्युत सत्य तो यह है कि उल्टी प्रतिष्ठा एवं गौरव घटे हैं। अगर अब भी स्थितिने पल्टा नहीं खाया और यह स्थिति मौजूद रही तो मुझे कहने दीजिये कि धार्मिक व्यक्ति अपनी इज्जत और शान दोनों को गंवा 1
संकता नरहे
यह भी आजका एक सवाल है कि अलग-अलग इतनी अधिक संख्यामें सम्प्रदाय क्यों प्रचलित है ? क्या इन सबको मिलाकर एक नहीं किया जा सकता। मैं मानता हूँ कि ऐसा करना असम्भव तो नहीं है फिर भी जो सदासे अलग-अलग विचारधारा चली रही हैं उन सबको खत्मकर एक कर दिया जाय यह बुद्धि और कल्पनासे कुछ परे जैसी बात है । मैं इस विषय में ऐसा कहा करता हूं कि पारस्परिक विचारभेद मिट जाय। जब यह भी संभव नहीं तो ऐसी परिस्थिति में पारस्परिक जो मनोभेद और आपसी विग्रह हैं उनको तो अवश्य मिटाना ही चाहिये उनको मिटाये बिना धार्मिक संस्कारको क्या तो दें और क्या लें इसका निर्णय कैसे करें ? इसलिये इस विभेदकी दीवार किसी धार्मिक व्यक्तिके लिये इष्ट नहीं । यदि परस्पर मिलकर धार्मिक व्यक्ति कुछ विचार विमर्श हो नहीं कर सकते तो वे कहां कैसे जायें ? वे कहां बैठेंगे, हम कहां बैठेंगे। यदि हम लोग ऐसी ही तुच्छ व संकीर्ण बातों में उलते रहे तो मैं कहूंगा ऐसे संकीर्ण धार्मिक व्यक्ति धर्मकी उन्नतिके बदले धर्मकी अवनति ही करनेवाले हैं और वे धर्मके मौलिक तथ्यसे श्रभी कोसों दूर । जिन धार्मिक व्यक्तियोंमें संकीता व असहिष्णुता घर
धम और लौकिक अभ्युदय -
इतने विवेचनके बाद अब मुझे यह बताना है कि वास्तवमें धर्म है क्या ? इसके लिये मैं आपको बहुत थोड़े और सरल शब्दों में बताऊँ तो धर्मकी परिभाषा इस प्रकार की जा सकती है कि जो 'श्रात्मशुद्धि के साधन हैं उन्हींका नाम धर्म है।' इस पर प्रतिप्रश्न उठाया जा सकता है कि फिर लौकिक अभ्युदयकी सिद्धि के साधन क्या है ? जबकि धर्मकी परिभाषा में कहीं-कहीं सीकिक अभ्युदयके साधनों को भी धर्म बताया गया है। मेरी दृष्टिमें लौकिक अभ्युदयका साधन धर्म नहीं है वह तो धर्मका आनुषंगिक फल है। क्योंकि लौकिक अभ्युदय उसीको माना गया है जो आत्मातिरिक्त सामग्रियोंका विकास व प्रापण होता है। गहराई से सोचा जाय तो धर्मकी
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किरण ११]
इसके लिये कोई स्वतन्त्र आवश्यकता है ही नहीं। जिस प्रकार गेहूं की खेती करनेसे तूड़ी-भूसा आदि गेहूं के साथ-साथ अपने-आप पैदा हो जाती हैं उनके लिये अलग खेती करनेकी कोई आवश्यकता नहीं होती, इसी प्रकार धर्म तो आत्मशुद्धिके लिये ही किया जाता है' मगर गेहूं के साथ दूरीकी तरह लौकिक अभ्युदय उसके साथ-साथ अपने-आप फलने वाला है। उसके लिये स्वतन्त्र रूपसे धर्म करनेकी कोई आव श्यकता नहीं ।
लौकिक धर्म और पारमार्थिक धर्म
प्राचीन साहित्य धर्म शब्द अनेक अथोंमें प्रयुक्त हुआ है । उस समय धर्म शब्द अत्यन्त लोकप्रिय था । इसलिये जो कुछ अच्छा लगा उसीको धर्म शब्दसे सम्बोधित कर दिया जाता था। इसीलिये सामाजिक कर्तव्य और व्यवस्था नियमों को भी ऋषि महर्षियोंने धर्म कहकर पुकारा। जैन साहित्य में स्वयं भगवान महावीरने सामाजिक कर्तव्योंके दश प्रकारके निरूपण करते हुए उन्हें धर्म शब्दसे अभिहित किया है। उन्होंने बताया है कि जो ग्रामकी मर्यादाएँ व प्रथाएँ हैं उन्हें निभाना ग्राम-धर्म है। इसी प्रकार नगर-धर्म, राष्ट्र-धर्म आदिका विवेचन किया है । यद्यपि तत्त्वतः धर्म वही है। जिसमें आत्मशुद्धि और आत्म-विकास हो मगर तात्कालिक धर्मशब्द की व्यापकताको देखते हुए सामाजिक रस्मों व रीतिरिवाजोंको भी लौकिक धर्म बताया गया है। लौकिक धर्म और पारमार्थिक धर्म सर्वथा पृथक-पृथक हैं। उनका मिश्रण करना दोनोंको ग़लत व कुरूप बनाना है। इनका प्रध इस तरह समझा जा सकता है कि जहां लौकिक धर्म परिवर्तनशील है वहां पारमार्थिक धर्म सर्वदा सर्वत्र अपरिवर्तनशील व घटल है। याज जिसे हम राष्ट्रधर्म व समाजधर्म कहते हैं वे राष्ट्र एवं समाज की परिवर्तित स्थितियोंके अनुसार कल परिवर्तित हो सकते हैं । स्वतन्त्र होनेके पूर्व भारतमें जो राष्ट्रधर्म माना जाता था । आज वह नहीं माना जाता । श्राज भारतका राष्ट्रधर्म बदल गया है मगर इस तरह पारमार्थिक धर्म कभी और कहीं नहीं बदलता । वह जो कल था वही बाज है और जो आज है वही आगे रहेगा । गोर करिये— श्रहिंसा सत्य स्वरूपमय जो पारमार्थिक धर्म है वह कभी किसी भी स्थिति में बदला क्या ? इसी तरह लौकिक धर्म अलग-अलग राष्ट्रों का अलग-अलग है जबकि पारमार्थिक धर्म राष्ट्रोंके लिये एक समान है। इन कारणोंसे यह कहना
धर्म और राष्ट्र निर्माण
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चाहिये कि लोकिक धर्म और पारमार्थिक धर्म दो हैं और भिन्न-भिन्न हैं। पारमार्थिक धर्मकी गति जब श्रात्म-विकासकी चीर है तब लौकिक धर्मका तांता संसारसे जुड़ा हुआ
राष्ट्र-निर्माण में धर्म
राष्ट्रनिर्माण में धर्म कहां तक सहायक हो सकता है और इसके लिये धर्म कुछ सूत्रोंका प्रतिपादन करता है । वे हैं श्रम स्वतन्त्रता, आत्म-विजय, अदीन भाव आत्मविकास और आत्म-नियन्त्रण इन सूत्रोंका जितना विकास होगा उतना ही राष्ट्र स्वस्थ, उन्नत और विकसित बनेगा इन सूत्रोंका विकास धर्मके परे नहीं है और न धर्म प्रभावमें इन सूत्रोंका सूत्रपात व उन्नयन हो किया जा सकता है। आज जब राष्ट्रमें धर्मके निस्बत भौतिकवादका वातावरण फैला हुआ है तब राष्ट्रमें दुर्गुणों व अवनतिका विकास हो ही हो, तो इसमें कोई आश्चर्यकी बात नहीं। यही कारण है जहां पदके लिये मनुहारें होतीं थीं फिर भी कहा जाता था कि मुझे पद नहीं चाहिये, मैं इसके योग्य नहीं हूं, तुम्हीं संभालो वहां आज कहा जाता है कि पदका हक मेरा है, तुम्हारा नहीं। पदके योग्य मैं हूं, तुम नहीं। पद पानेके लिये सब अपने-अपने अधिकारोंका वर्णन करते हैं मगर यह कोई नहीं कहता कि पदके योग्य या अधिकारी दूसरा अमुक
यह पद लोलुपताका रोग धर्मको न अपनाने और भौतिकवादको जीवनमें स्थान देनेका ही दुष्परिणाम है। एक वह समय था कि जब पदकी लालसा रखनेवालोंको निंद्य, अयोग्य और अनधिकारी समझा जाता था और पद न चाहनेवालोंको प्रशंस्य, योग्य और अधिकारी । सुभटोंका किस्सा इसी तथ्यपर प्रकाश डालता है । "एक बार किसी देशमें ५०० सुभट आये। मन्त्रीने परीक्षा करनेके लिए रात्रि समय सबको एक विशाल हॉल सौंपा और कहा कि तुममेंसे जो बढ़ा हो यह हॉलके बोचमें बिछे पलंग पर सोये तथा अन्य सब नीचे जमीनपर सोयें सोनेका समय आने पर उनमें बड़ा संघर्ष मचा पलंग पर सोनेके लिये वे अपने-अपने हक, योग्यता और अधिकारोंकी दुहाइयां देने लगे । सारी रात बीत गई किन्तु वे एक मिनट भी न सो पाये । सारी रात कुत्तोंकी तरह आपस में लड़ते-झगड़ते रहे । प्रातः काल मंत्रीने उनका किस्सा सुनकर उन्हें उसी समय वहांसे निकाल दिया। दूसरे दिन दूसरे ५०० सुभट श्राये | मंत्रोने उनके लिये भी वही व्यवस्था की । उनके सामने समस्या यह थी
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३५० ]
।
कि पलंग पर कौन सोये। सबमें परस्पर मनुहारें होने लगी। कोई कहता था- मैं इस बड़प्पनके योग्य नहीं। कोई कहता था— मैं अधिक अनुभवी नहीं । कोई कहता था — मुझमें विद्या बुद्धि कम है । श्राखिर किसीने पलंग पर सोना स्वीकार नहीं किया । वे बड़े समझदार थे—उसने विचार किया नींद क्यों नष्ट की जाय ? सबको पलंगको ओर सिर करके सो जाना चाहिए। सबने रात भर खूब श्रानन्दसे नींद लो प्रात-काल मंत्रीने सारा किस्सा सुनकर उनको बड़े सत्कारके साथ बड़े-बड़े पद सोंपकर सम्मान किया ।" जबतक यह स्थिति न हो यानी पदके प्रति आकर्षण कम न हो तब तक राष्ट्र-निर्माण कैसे हो सकता है। देहली प्रवासमें मेरी पं० नेहरूजीसे जब-जब मुलाकात हुई तो मैंने प्रसंगवश कहा“पंडितजी ! लोगोंमें कुर्सीकी इतनी छीनाझपटी क्यों हो रही है ?” उन्होंने खेद भरे शब्दोंमें कहा - "महाराज ! हम इससे बड़े परेशान हैं परन्तु करें क्या ?” जिस राष्ट्रमें यह श्रहंमन्यता, पदलोलुपता और अधिकारोंकी भावनाका बोलबाला है वह राष्ट्र ऊंचे उठनेके स्वप्न कैसे देख सकता है ? वह तो दिन प्रतिदिन दुःखित, पीड़ित और श्रवनत होता जायगा । महाभारत में लिखा है
बहवो यत्र नेतारः सर्वे पंडितमानिनः । सर्वे महत्वमिच्छन्ति, तद्राष्ट्रमवसीदति ।।
[ किरण ११
जिस राष्ट्रमें सब व्यक्ति नेता बन बैठते हैं, सबके स अपने आपको पंडित मानते हैं और सब बड़े बनना चाहते वह राष्ट्र जरूर दुःखी रहेगा । भारतकी स्थिति करीब-कर ऐसी हो रही है इसलिए राष्ट्रकी बुराइयोंको मिटानेके लि सत्य-निष्ठा और प्रामाणिकताकी अत्यन्त आवश्यकता है। जबतक सत्य-निष्ठा और प्रामाणिकता जीवनका मूलमंत्र नह बन जाती तबतक मानवताका सूत्र पहचाना जाय यह कभ भी संभव नहीं और राष्ट्रका निर्माण हो जाय यह भी कभ नहीं हो सकता ।
कान्त
उपसंहार
अन्तमें मैं यही कहूँगा कि लोग धर्मके नामसे चि नहीं। धमं कल्याणका एकमात्र साधन है। उसके नामप फैली हुई बुराइयोंको मिटाना श्रावश्यक है न कि धर्मको मैं चाहता हूँ कि धर्म और राष्ट्रके वास्तविक स्वरूप श्र पृथकत्वको समझकर धर्मके मुख्य अंग श्रहिंसा, सत्य श्रौ सन्तोषकी भित्तिपर राष्ट्रके निर्माणके महान् कार्यको सम्पर किया जाय । मैं समझता हूँ कि यदि ऐसा हुआ तो रा ऊँचा, सुखी, सम्पन्न व विकसित होगा । वहाँ धर्मका भ वास्तविक रूप निखरेगा तथा उससे जन-जनको एक नई प्रेरणा भी प्राप्त हो सकेगी। ( जैन भारतीसे )
'अनेकान्त' की पुरानी फाइलें
'अनेकान्त' की कुछ पुरानी फाइलें वर्ष ४ से ११ वे वर्षतक की अवशिष्ट हैं जिनमें समाजके लब्ध प्रतिष्ठ विद्वानों द्वारा इतिहास, पुरातन्त्र, दर्शन और साहित्यके सम्बन्धमें खोजपूर्ण लेख लिखे गये हैं और अनेक नई खोजों द्वारा ऐतिहासिक गुत्थियोंको सुलझानेका प्रयत्न किया गया है । लेखोंकी भाषा संयत सम्बद्ध और सरल है । लेख पठनीय एवं संग्रहणीय हैं। फाइलें थोड़ी ही रह गई हैं । अतः मंगाने में शीघ्रता करें। फाइलों को लागत मूल्य पर दिया जायेगा । पोस्टेज खर्च अलग होगा ।
मैनेजर - 'अनेकान्त' वीरसेवामन्दिर, १ दरियागंज, दिल्ली ।
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बंकापुर
( विद्याभूषण पं० के० भुजबली शास्त्री, मूडबिद्री )
बंकापुर पूना-बगलूर रेलवे लाइनमें, हरिहर रेलवे स्टेशन के समीपवर्ती हावेरि रेलवे स्टेशनसे १५ मील पर, धारवाड जिले में है । यह वह पवित्र स्थान है, जहां पर प्रातः स्मरणीय आचार्य गुणभद्रने सं० ८२०
अपने गुरु भगवज्जिनसेनके विश्रुत महापुराणांतर्गत उत्तर पुराणको समाप्त किया था + | आचार्य जिनसेन और गुणभद्र जैन संसारके ख्याति प्राप्त महाकवियोंमें से हैं । इस बातको साहित्य-संसार अच्छी तरह जनता हैं । संस्कृत साहित्य में महापुराण वस्तुतः एक अनूठा रत्न है । इसका विशेष परिचय और किसी लेखमें दिया जायगा । उत्तरपुराण के समाप्ति काल में बंकापुरसे जैन वीरकेका सुयोग्य पुत्र लोकादित्य विजय नगरके यशस्वी एवं प्रतापी शासक अकालवर्ष या . कृष्णराज (द्वितीय) के सामंतके रूपमें राज्य करता था । लोकादित्य महाशूर तेजस्वी और शत्रु-विजयी था । इसके ध्वजमें मयूरका चिन्ह अङ्कित था । और यह चेल्लध्वजका अनुज और चेल्लकेत ( बंकेय ) का पुत्र था । उस समय समूचो वनवास (वनवासि ) प्रदेश लोकादित्य के ही वशमें रहा । उत्तरपुराणकी प्रशस्ति देखें ।
उपयुक्त. कापूर श्रद्धय पिता वीर बंकेयके नाम
*शक संवत् ८२० श्राचार्य गुणभद्रके उत्तर पुराणका समाप्ति काल नहीं है किन्तु वह उनके शिष्य मुनि लोकसेनकी प्रशस्तिका पद्य है जिसमें उसकी पूजाके समयका उल्लेख किया गया है । - परमानन्द जैन
+ उत्तर पुराणकी प्रशस्ति देखें।
+ उत्तर पुराणकी प्रशस्ति में दिया हुआ "चेलपताके" वाक्य में चेल्ल शब्दका अर्थ श्रमरकोष और विश्वलांचन कोष में चील (पक्षी विशेष ) पाया जाता है । अतः लोकादित्यकी ध्वजामें चीलका चिन्ह था न कि मोरका ।
से लोकादित्यके द्वारा स्थापित किया गया था । और उस जमाने में इसे एक समृद्धिशाली जैन राजधानी होनेका सौभाग्य प्राप्त था । बंकेय भी सामान्य व्यक्ति नहीं था । राष्ट्रकूट नरेश नृपतुङ्गके लिये राज्य कार्योंमें जैन वीर बंकेय ही पथ प्रदर्शक था । मुकुलका पुत्र एरकोरि, एरकोरिका पुत्र घोर और घोरका पुत्र बँके था । बंकेयका पुत्रपितामह मुकुल शुभतुङ्ग कृष्णराज - का पितामह एरकोरि शुभतुङ्गके पुत्र ध्रुवदेवका एवं पिता घोर चक्री गोविन्दराजका राजकार्य सारथि था । इससे सिद्ध होता है कि लोकादित्य और बंकेय ही नहीं; इनके पितामहादि भी राज्य कार्य पटु तथा महाशूर थे ।
अस्तु, नृपतुङ्गको बंकेय पर अटूट श्रद्धा थी । यही कारण है कि एक लेख में नृपतुङ्गने बंकेयके सम्बन्ध में “ वितत ज्योतिर्निशितासिरि वा परः" यों कहा है । पहले बंकेय नृपतुङ्गके आप्त सेनानायकके रूपमें अनेक युद्धों में विजय प्राप्तकर नरेशके पूर्ण कृपापात्र बनने के फल स्वरूप बाद में वह विशाल वनवास या वनवासिप्रांतका सामन्त बना दिया गया था । सामन्त बँकेने ही गंगराज राजमल्लको एक युद्धमें हराकर बन्दी बना लिया था । बल्कि इस विजयोपलक्ष्य में भरी सभा में वीर बंकेयका नृपतुङ्गके द्वारा जब कोई अभीष्ट वर मांगनेकी आज्ञा हुई तब जिनभक्त बंकेचने सगद्गद महाराज नृपतुरंगने यह प्रार्थना की कि 'महाराज, अब मेरी कोई लौकिक कामना बाकी नहीं रही। अगर आपको कुछ देना ही अभीष्ट हो तो कोलनूर में मेरे द्वारा निर्माणित पवित्र जिनमंदिर के लिये सुचारु रूपसे पूजादिकार्य संचालनार्थ एक भूदान प्रदान कर सकते हैं। बस, ऐसे ही किया गया । यह उल्लेख एक विशाल प्रस्तर खण्डमें शासनके रूपमें आज भी उपलब्ध होता है । बंकेय के असीम धर्म-प्रेम
के लिये यह एक उदाहरण ही पर्याप्त है । इस प्रसंग- परमानन्द जैन में यह उल्लेख कर देना भी आवश्यक है कि वीर
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३५४ ]
अनेकान्त
[किरण ११ बंकेयकी धर्मपत्नी विजया बड़ी विदुषी रही। इसने बगल में उन्नत एवं विशाल मैदानमें एक ध्वंवसावशिष्ट संस्कृतमें एक काव्य रचा है। इस काव्यका एक पद्य पुराना किला है । इस किलेके अंदर १२ एकड़ जमीन श्रीनान वेंकटेश भीमराव आलूर, बी० ए०, एल० एल० है। यह किला बम्बई सरकारके वशमें है। यहाँ पर इस बी० ने 'कर्नाटकगतवैभव' नामक अपनी सुन्दर रचना समय सरकारने एक डेरी फार्म खोल रखा है। जहाँमें उदाहरणके रूपमें उद्धृत किया है ।
तहाँ खेती भी होती है। राजमहलका स्थान ऊँचा है - बंकेयके सुयोग्य पुत्र लोकादित्यमें भी पूज्य पिता- और इसके चारों ओर विशाल मैदान है । यह मैदान के समान धर्म-प्रेमका होना सर्वथा स्वाभाविक ही है। इन दिनों में खेतोंके रूप में दृष्टिगोचर होता है। इन साथ ही साथ लोकादित्य पर 'उत्तर पुराण' के रच- विशाल खेतोंमें आजकल ज्वार, बाजरा, उख, गेहूँ, यिता श्री गुणभद्राचार्यका प्रभाव भी पर्याप्त था। इसमें चावल, उड़द, मूग, चना, तुबर, कपास और मूंगसंदेह नहीं है कि धर्मधुरीण लोकादित्यके कारण बंका फली आदि पैदा होते हैं । स्थान बड़ा सुन्दर सुयोग्य पुर उस समय जैनधर्मका प्रमुख केन्द्र बन गया था। अपनी समृद्धिके जमाने में वह स्थान वस्तुतः देखने ही यद्यपि लोकादित्य राष्ट्रकूट राजाओंका सामंत था । लायक रहा होगा । मुझे तो बड़ी देर तक यहाँ से हटफिर भी राष्ट्रकूट शासकोंके शासन कालमें यह एक नेकी इच्छा ही नहीं हुई। किलेके अन्दर इस समय. . वैशिष्ट्य था कि उनके सभी सामंत स्वतन्त्र रहे। एक सुन्दर जिनालय अवशिष्ट है। यहाँ वाले इसे आचार्य गुणभद्रजीके शब्दोंमें लोकादित्य शत्ररूपी 'अरवत्तमूरूकबंगल बस्ति' कहते हैं। इसका हिन्दी अन्धकारको मिटाने वाला एक ख्याति प्राप्त प्रतापी
अर्थ ६३ खम्भोंका जैन मन्दिर होता है । मेरा अनुभव शासक ही नहीं था, साथ ही साथ श्रीमान भी। उस है कि यह मन्दिर जैनोंका प्रसिद्ध शान्तिनाथ मन्दिर जमानेमें बंकापुरमें कई जिन मन्दिर थे। इन मंदिरोंको और इसके ६३ खंभ जैनोंके त्रिषष्ठिशलाका पुरुषोंका चालुक्यादि शासकोंसे दान भी मिला था। बकापुर स्मृति-चिन्ह होना चाहिये। एक प्रमुख केन्द्र होनेसे यहाँ पर जैनाचार्योंका वास मन्दिर बड़ा सुन्दर है । मन्दिर वस्तुतः सर्वोच्च अधिक रहता था। यही कारण है कि इसकी गणना कलाका एक प्रतीक है । खंभोंका पालिश इतना सुन्दर एक पवित्र क्षेत्रके रूपमें होती थी। इसीलिये ही गंग
है कि इतने दिनोंके बाद, आज भी उनमें आसानीसे नरेश नारसिंह जैसा प्रतापी शासकने यहीं आकर प्रातः मुख देख सकते हैं । मन्दिर चार खण्डोंमें विभक्त है। स्मरणीय जैन गुरुओंके पादमूलमें सल्लेखनाव्रत संपन्न गर्भ गृह विशेष बड़ा नहीं है । इसके सामनेका खण्ड किया था। दंडाधिप हल्लने यहाँ पर कैलास जैसा गर्भगृहसे बड़ा है । तीसरा खण्ड दूसरेसे बड़ा है । उत्तंग एक जिन मन्दिर निर्माण कराया था। इतना ही अंतिम वा चतुर्थ खण्ड सबसे बड़ा है। यह इतना नहीं, प्राचीन कालमें यहाँ पर एक दो नहीं, पाँच महा
विशाल है कि इसमें कई सौ आदमी आरामसे बैठ विद्यालय मौजूद थे। ये सब बीती हुई बातें हुई।
सकते हैं। छत और दीवालों परकी सुन्दर कलापूर्ण वर्तमान काल में बंकापुरकी स्थिति कैसी है, इसे भी
मूर्तियां निर्दयी विध्वंसकोंके द्वारा नष्ट की गई हैं । इस
मन्दिरको देख कर उस समयकी कला, आर्थिक स्थिति विज्ञ पाठक एक बार अवश्य सुन लें। सरकारी रास्तेके
और धार्मिक श्रद्धा आदिको आज भी विवेकी परख * "सरस्वतीव कर्णाटी विजयांका जयत्यसो। सकता है। खेद है कि बंकापुर आदि स्थानोंके इन
या वैदर्भगिरां वासः कालीदासादनन्तरम् ॥" प्राचीन महत्वपूर्ण जैन स्मारकोंका उद्धार तो दूर रहा । x'बम्बई प्रान्तके प्राचीन जैन स्मारक देखें। जैन समाज इन स्थानोंको जानती भी नहीं है।
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नम्का
मूलाचार संग्रह ग्रन्थ न होकर आचारांगके रूपमें मौलिक ग्रन्थ है
( पं० परमानन्द जैन शास्त्री ) सन् १९३८ में मैंने 'मूलाचार संग्रह ग्रन्थ है। इस रखने के लिए उक्त मूल प्राचारके प्रवर्तक बहुश्रुत दिगशीर्षकसे एक लेख लिखा था। उस समय मूलाचारकी कुछ म्बराचार्यने मूल आचारांग सूत्रका १२ अधिकारों में संलिप्त गाथाओंके श्वेताम्बरीय आवश्यकनियुक्ति आदि ग्रन्थोंमें रूपसे सार स्वींचकर इस ग्रन्थकी रचना की है। उपलब्ध होनेसे मैंने यह समझ लिया था कि ये गाथाएँ प्राचार्य वसुनन्दी सैद्धान्तिकने इस प्रन्य पर लिखी मूलाचारके कर्ताने वहांसे ली हैं और उनके सम्बन्धमें अपनी 'प्राचारवृत्ति' की उत्थानिकामें स्पष्ट लिखा है कि विशेष विचारका अवसर न पाकर उक्त लेखमें उसे एक अठारह हजार पद प्रमाण भाचारांगसूत्रको मूलगुणा'संग्रहग्रन्थ' बतला दिया था । साथ ही, उसके बारहवं धिकारसे लेकर पर्याप्ति अधिकार पर्यन्त १२ अधिकारों में पर्याप्ति नामक अधिकारको असम्बद्ध भी लिख दिया था। उपसंहार किया हैउस लेखके प्रकाशित, होनेके बादसे मेरा अध्ययन उस
वाधारभूतमष्टादशपदसहस्रपरिमाणं, मूलविषय पर बराबर चलता रहा। दूसरे प्राचीन दिगम्बर गुण - प्रत्याख्यान-संस्तर-स्तवाराधना-समयाचार-पंचाग्रंथोंको भी देखनेका अवसर प्राप्त हुआ जो उस समय चार-पिंडशुद्धि - षडावश्यक-द्वादशानुप्रेक्षानागारभावनामुझे उपलब्ध न थे। तुलनात्मक अध्ययन करते हुए मैने समयसार-शीलगुण प्रस्तार-पर्याप्त्यधिकार निबद्धममूलाचार और उसकी टीका 'आचारवृत्ति' का गहरा मनन हार्थगभीरं लक्षणसिद्धपदवाक्यवर्णोपचितं, घातिकर्मकिया और अधिक वाचन चिन्तनके फलस्वरूप मेरा बह क्षयोत्पन्नकेवलज्ञानप्रबुद्धाशेषगुणपर्यायखचितषडद्रव्यअभिमत स्थिर नहीं रहा, अब मेरा यह दृढ़ निश्चय हो नवपदार्थजिनवरोपदिष्टं, द्वादशविधतपोनुष्ठानोत्पन्नागया है कि मूलाचार संग्रह ग्रन्थ न हाकर एक व्यवस्थित नेकप्रकारद्धिसमन्वितगणधरदेवरचितं, मूलगुणोत्तर प्राचीन मौलिक ग्रन्थ है। इस लेख द्वारा अपने इन्हीं गुणस्वरूपविकल्पोपायसाधनसहायफलनिरूपणप्रवणमाविचारों को स्पष्ट करने का प्रयत्न कर रहा हूँ।
चाराङ्गमाचार्यपारम्पयंप्रवतमानमल्पबलमेधायःशिष्ययह ग्रंथ दिगम्बर जैन परंपराका एक मौलिक प्राचार निमित्तं द्वादशाधिकारैरुपसंहर्तुकामः स्वस्य श्रोतृणां प्रन्थ है, उसकी गहरी विचार-धारा और विषयका विवेचन च प्रारब्धकार्यप्रत्यूहनिराकरणक्षमं शुभपरिणामं विदधबड़ा ही समृद्ध और प्राचीनताका उन्नायक है। इतना ही च्छीवट्टकेराचार्यः प्रथमतरं तावन्मूलगुणाधिकार-प्रतिनहीं; किन्तु भगवान महावीरकी वह उस मूल परम्पराका पादनार्थे मंगलपूर्विकां प्रतिज्ञां विधत्तेसबसे पुरातन श्राचार विषयका ग्रन्थ है जिसका भगवान ग्रन्थको बनाते समय प्राचार्य प्रवरने इस बातका महावीर द्वारा कथित और गणधर इन्द्रभूति द्वारा प्रथित खास तौरसे ध्यान रक्खा मालूम होता है कि इस ग्रन्थमें द्वादशांगश्रतके प्राचारांग नामक सूत्र ग्रन्थसे सीधा संबंध आचारांगसूत्र-विषयक मूलपरम्पराका कोई भी अंश जान पड़ता है। इस ग्रन्थकी रचना उस समय हुई है जब छूटने न पावे । चुनांचे हम देखते हैं कि ग्रन्थकर्ताने प्रत्येक द्वादश वर्षीय दुर्भिक्षके कारण भगवान महावीर द्वारा निर्दिष्ट अधिकारमें मंगलाचरण कर उसके कहनेकी प्रतिज्ञा की प्राचार मार्गमें विचार-शौथिल्यका समाबेश प्रारम्भ होने है और अन्तमें उसका प्रायः उपसंहार भी किया है। लगा था। कुछ साधुजन अपने आचार-विचारमें शिथि- जैसा कि मूलाचारके 'सामाचार नामक अधिकार' अधिलताको अपनानेका उपक्रम करने लगे थे और अचेलकताके कारकी श्रादि अन्तिम गाथासे स्पष्ट है:खिलाफ वस्त्र धारण करने लगे थे । परन्तु उस समय तक तेल्लोक पूयणीए अरहंते वंदिऊण तिविहेण । अचेलकताके नग्नता अर्थ में कोई विकृति नहीं आई थी, वोच्छं समाचारं समासदो आणपुव्वीयं ॥१२२॥ जिसका अर्थ बादको बिगाड़कर 'अल्पचेन' किया जाने
गानxx लगा। उस समय मूल परम्परागत प्राचारको सुरक्षित एवं सामाचारो बहुभेदो वरिणदो समासेण ।
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३५६]
अनेकान्त
[करण ११
वित्थारसमावएणो वित्थरिदव्यो बुहजणेहिं ॥१७॥ प्राप्त हुआ है । चुनांचे श्वेताम्बरीय प्राचारांगमें यहाँ तक
इस प्रकरण में उक्त अन्तिम गाथासे पूर्व निम्न गाथा विकार भागया है कि वहाँ पिण्ड एषणाके साथ पात्र एषणा और भी दी हुई है जिसमें विषयका उपसंहार करते हुए और वस्त्र एषणाको और भी जोड़ा गया है। जिससे यह बतलाया गया है कि जो साधु और आर्यिका ग्रन्थमें उल्लि- साफ ध्वनित होता है कि 'मूलाचार' में द्वादश वर्षीय : खित प्राचारमार्गका अनुष्ठान करते हैं वे जगत्पूज्य, कीर्ति दुर्भिक्षके कई शताब्दी बाद वस्त्र एषणा और पात्र एषणकी और सुखको प्राप्त कर सिद्धिको प्राप्त करते हैं
कल्पना कर उन्हें एषणा समितिके स्वरूपमें जोड़ दिया है। एवं विधाणचरियं चरितं जे साधवो य अज्जाओ। इससे साफ ध्वनित होता है कि मूल आचारांगकी रचना इन ते जगपुज्जं कित्तिं सुहं लभ्रूण सिझति ॥१६ ॥ सब कल्पनाओंसे पूर्व की है। अन्यथा कल्पनामोंके रूढ़ होने ___इसी तरह 'पिण्डविशुद्धि' अधिकारमें पिण्ड विशुद्धि- पर उनका विरोध अवश्य किया जाता। का कथन करते हुए जिन साधुओंने उसकालमें क्रोध, मान, षडावश्यक अधिकारमें कायोत्सर्गका स्वरूप बतलाते माया और लोभ रूप चार प्रकारके उत्पादन दोषसे दूषित हुए कथन किया है कि जो साधुमोक्षार्थी हैं, जागरणशील भिक्षा ग्रहणकी है उनका उल्लेख भी बतौर उदाहरणके है निद्राको जीतने वाला है, सूत्रार्थ विशारद है, करण निम्न गाथामें अकित किया है
शुद्ध है, आत्मबल वीर्यसे युक्त उसे विशुद्धारमा कायोकोधो य हत्थिकप्पे माणो वेणायडम्मि एयरम्मि। स्सर्गी जानना चाहिए। माया वाणारसिए लोहोपुण रासियाणम्मि ।।४५५ मुक्खट्ठी जिदणिहो सुत्तत्त्थ विसारदो करणसुद्धो। ___ इस अधिकार में बतलाया गया है कि जो साधु भिक्षा आद-बल-विरिय-जुत्तो काउस्सग्गो विसुद्धप्पा ॥६५६।। अथवा चर्या में प्रवृत्ति करता है वह मनागुप्ति, वचनगुप्ति यहाँ यह बात खास तौरसे ध्यान देने योग्य है और कार्यगुप्ति के संरक्षणके साथ मूलगुण और शीलसंयमा- वह यह कि मूलाचारके कर्ताने षडावश्यक अधिकारकी दिककी रक्षा करता है तथा संसार, शरीर और संग (परिग्रह) चूलिकाका उपसंहार करते हुए यह स्पष्ट रूपसे उल्लेख निवेदभाव देखता हुमा वीतरागकी प्राज्ञा और उनके किया है कि मैंने यह नियुक्तिकी नियुक्ति संक्षेपसे कही शासनकी रक्षा करता है। अनवस्था (स्वेच्छा प्रवृत्ति) है इसका विस्तार अनुयोगसे जाननी चाहिए। मिथ्यावाराधना और संयम विराधना रूप चर्याका परिहार णिज्जुत्ती णिजत्ती एसा कहिदा मए समासेण । करता है
अह वित्थारपसंगोऽणियोगदो होदिणादव्यो ॥६६४ भिक्खा चरियाए पुण गुत्तीगुणसील संजमादीणं । रक्खंतो चरदि मुणी णिव्वेदतिगं च पेच्छंतो॥७४||
समस्त जैनवाङ्मय चार अनुयोगामें विभक्त है, आणा अणवत्थाविय मिच्छत्ताराहणादणासो य ।
प्रथमानुयोग, चरणानुयोग, करणानुयोग द्रव्यानुयोग । संजम विराधणाविय चरियाए परिहरेदव्वा ।।७।।
इन चार अनुयोगोंमेंसे प्राचार विषयक विस्तृत कथन
चरणानुयोगमें समाविष्ट है। यहाँ प्रन्यकर्ता प्राचार्यका पिण्ड शब्दका अर्थ है आहार (भोज्य योग्य वस्तुओंका समूह रूप ग्रास) या पिण्ड | जो साधुओंको पाणिपात्रमें
अभिप्राय 'अनुयोग' से चरणानुयोगका है इसीलिए उसके
देखमेकी प्रेरणा की गई है। दिया जाता था और आज भी दिया जाता है। इस अधि
मूलाचारके कर्ताने जिन नियुक्तियों परसे सार लेकर कारमें चर्या सम्बन्धि विशुद्धिका विशदवर्णन किया गया है।
षडावश्यक नियुक्तिका निर्माण किया है। वे नियुक्तियाँ मूलाचारमें एषणा समितिके स्वरूप कथन में एषणाको
वर्तमानमें अनुपलब्ध हैं और वे इस प्रन्थ रचनासे केवल माहार के लिए प्रयुक्त किया गया है और बतलाया
पूर्व बनी हुई थीं, जिन्हें ग्रन्थकर्ताक गमकगुरु भद्रबाहुगया है कि जो साधु उद्गम, उत्पादन और एषणादि रूप
श्रतकेवलीने बनाया था। उन्हींका संक्षिप्त प्रसार मूलाचारदोषोंसे शुद्ध, कारण सहित नवकोटिसे विशुद्ध, शीतष्णादि भचय पदार्थों में राग द्वेषादि रहित सम भुक्ति ऐसी 'अहऽनया काल परिहाणि दोसेणं तामो णिज्जुत्तिपरिशुद्ध अत्यन्त निर्मल एषणा समिति है। यह इस भास-चुन्नीग्रो वुग्छिनाओ। एषणा समितिका प्राचीन मूल रूप है, जो बाद में विकृतिको
- महानिशीथ सूत्र अध्याय
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किरण ११]
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के इस षडावश्यक अधिकार में पाया जाता है। अतः कुछ गाथाएँ उपलब्ध श्वेताम्बरीय नियुक्तियों में पाये जानेके कारण संग्रह ग्रंथ होने की जो कल्पना की थी वह ठीक नहीं है; क्योंकि वे नियुक्तियाँ विक्रमकी छठी शताब्दी से पूर्वको बनी हुई नहीं जान पड़ती + हैं और मूलाचार उनसे कई सौ वर्ष पूर्वका बना हुआ है; क्योंकि उसका समुल्लेख विक्रमकी पांचवी शताब्दीके आचार्ययतिवृषभन अपनी 'तिलोयपण्णत्ती' के आठवें अधिकार की ५३२वीं गाथामें 'मूलायारे' वाक्यके साथ किया है जिससे मूलाचार की प्राचीनता पर अच्छा प्रकाश पड़ता है । उसके बाद आचार्यकल्प पण्डित श्राशाधरजीने अपनी 'अनगारधर्मामृत टीका' ( वि० सं० १३००) में 'उक्तं च मूलाधारे' वाक्यके साथ उसकी निम्नगाथा उद्धृत की है जो मूलाचार में ५१६ नं० पर उपलब्ध होती है । सम्मत्तणाण संजम तवेहि जं तं पसत्थ समगमणं । समयं तु तं तु भणिदं तमेव सामाइयं जाणे ।।
- अनगारधर्मामृत टी० पृ० ६०५
इनके सिवाय, आचार्य वीरसेननं अपनी धवला टीका में 'तह प्रयरंगे विबुत्तं' वाक्यके साथ 'पंचस्थिकाया' नाम की जो गाथा समुह त की है वह उक्त श्राचारांग नं ४०० नं० पर पाई जाती है। वर्तमान में उपलब्ध श्वेताम्बरीय आचारांग में नहीं है । इससे स्पष्ट है कि इस ग्रन्थकी प्रसिद्धि पुरातन काल से मूलाचार और आचारांग दोनों नामोंसे रही है ।
आचार्य वीरनन्दी ने जो मेधचन्द्र त्रैविद्यदेवके शिष्य एवं पुत्र थे, और जिनका स्वर्गवास शक संवत् १०३७ ( वि० सं० ११७२ ) में हुआ था । अतः यही समय (विक्रमकी १२वीं शताब्दी) श्राचार्य वीरनन्दीका है । आचार्य बीरनम्दीने अपने श्राचारसार में मूलाचार की गाथाओं का प्रायः अर्थशः अनुवाद किया है X। श्राचार्य वसुनन्दी ने उक्त मूलाचार पर 'अचारवृत्ति' नामकी टीका लिखी है जिसका उल्लेख ऊपर किया जा चुका विक्रमको १५ वीं शताब्दी के प्रसिद्ध महारक सकलकीर्तिने
I
मूलाचार संग्रह ग्रन्थ न होकर आचाराङ्गनके रूपमें मौलिक ग्रन्थ है।
+ देखो, अनेकान्त वर्ष ३ कि० १२ में प्रकाशित 'भद्रबाहुस्वामी' नामका लेख ।
x देखो, 'वीरननन्दी और उनका आचारसार' नामका मेरा लेख, चैन सि० भास्कर भा० ६ किरण १
[३५७
अपने मूलाचार प्रदीप' नामक ग्रन्थ में भी मूलाधारकी गाथाओं का सार दिया है। इन सब उबलेखोंसे दिगम्बर समाज में मूलाचारके प्रचार के साथ उसकी प्राची
ताका इतिवृत्त पाया जाता है, जो इस बातका द्योतक है कि यह मूलग्रन्थ दिगम्बर परम्पराका मौलिक आचारांग सूत्र है, संग्रह ग्रन्थ नहीं हूँ ।
अतः श्वे० नियुक्तियों परसे 'मूलाचार' में कुछ गाथाओंके संग्रह किये जानेकी जो कल्पना की गई थी, वह समुचित प्रतीत नहीं होती; क्योंकि वीर शासनकी जो श्रुत सम्पत्ति दिगम्बर- श्वेताम्बर सम्प्रदायोंमें परम्परासे दुभिक्षादि मतभेदके कारण बटी, वह पूर्व परम्परासे दोनोंके पास बराबर चली आ रही थी । भद्रबाहु श्रुतकेवली तक दिगम्बर श्वेताम्बर जैसे भेदों की कोई सृष्टि नहीं हुई थी, उस समय तक भगवान महावीरका शासन यथाजात मुद्रारूप में ही चल रहा था। उनके द्वारा रची गई नियुक्तियाँ उस समय साधु सम्प्रदाय में प्रचलित थीं, खास कर उनके शिष्य-प्रशिष्यों में उनका पठन-पाठन बराबर चल रहा था। ऐसी हालत में मूलाचार में कुछ गाथाओंकी समानता परसे आदान-प्रदानकी कल्पना करना संगत नहीं जान पड़ती ।
मूलाचारके कर्त्ताने 'अनगार भावना' नामके अधिकारका प्रारम्भ करते हुए मंगलाचरणमें त्रिभुवन जबक्षी तथा मंगलसंयुक्त अर्थात् सर्वकर्मके जलाने में समर्थ पुण्यसे युक्त, कंचन, पिरंगु, विद्रुम, घण, कुन्द और मृणाल रूप वर्णविशेष वाले जिनवरोंको नमस्कार कर नागेन्द्र, नरेन्द्र और इन्द्रसे पूजित अनगार महषियोंके विविध शास्त्रोंके सारभूत महंत गुणवाले 'भावना' सूत्रको कहनेका उपक्रम किया है । यथा
वंदित्तु जिणवराणं तिहुयण जय मंगलो व बेदाणं । कंचरण-पियंगु-विद्रम-घण-कुंद - मुणाल लवणाणं ।। अणयार महरिसिगं खाईंद गरिंदं इंद महिदाणं । वोच्छामि विवहसारं भावणसुत्त गुणमहतं ॥
इस अधिकारमें लिंगशुद्धि, वशुद्धि, वसतिशुद्धि भिक्षाशुद्धि, ज्ञानशुद्धि, उज्मनशुद्धि - शरीरादिकसे ममत्वका त्याग - स्त्रीकवादिरहित वाक्यशुद्धि, तपशुद्धि - पूर्वकर्म रूप मलके शोधन में समर्थ अनुष्ठान – ध्यान शुद्ध एका चिन्तानिरोधरूपप्रवृत्ति- इन दश अधिकारोंका सुन्दर
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अनेकान्त
[किरण ११ एवं मौलिक विवेचन किया गया है। जिससे इस ग्रंथमें गणधर द्वारा तीर्थंकरदेव (भगवान महावीर) से पूछे गये उस समयके मुनियोंके मूल प्राचारका ही पता नहीं प्रश्नोत्तर वाली दोनों गाथाएँ देकर उनका फल भी चलता, किन्तु उस समयके साधुओंकी चका भी पुरातन बतलाया है:रूप सामने आ जाता है, जिसमें बतलाया गया है कि वे कि यत्नपूर्वक आचरण करने वाले दया-प्रेक्षक भिक्षुके साधु नवकोटिसे शुद्ध, शंकादि दश दोष रहित, नख जतन कर्मबन्ध नहीं होता; किन्तु चिरंतन कर्मबन्धन नष्ट रोमादि चौदह दोषोंसे विशुद्ध माहार दूसरोंके द्वारा दिया हो जाता है। हुमा परघरमें पाणि-पात्रमें लेते थे। और प्रॉशिक,
जदं तु चरमाणस्स दयापेहुस्स भिक्खुणो। क्रीत-खरीदा हुभा-अज्ञात, शंकित अभिघट और सूत्र
णवं ण बज्झदे कम्म पोराणं च विधूयदि ॥१२३ प्रतिकूल अशुद्ध आहार ग्रहण नहीं करते थे। वे साधुचर्या
इसी अधिकारमें पापश्रमणका लक्षण निर्देश करते हुए को जाते समय इस बातका तनिक भी विचार नहीं करते थे कि ये दरिद्र कुल है यह श्रीमंत है और यह समान
बतलाया है कि जो साधु श्राचार्य-कुलको छोड़कर स्वतन्त्र
एकाकी विचरता है, उपदेश देने पर भी ग्रहण नहीं करता, है। वे तो मौनपूर्वक घरोंमें घूमते थे। और शीतल, उष्ण, शुष्क रूक्ष, स्निग्ध, शुद्ध, लोणिद, अलोणित आहारको
वह साधु पापश्रमण कहलाता है। ६३वी गाथामें उदाहरण अनास्वादभावसे ग्रहण करते थे। वे साधु अक्षमृक्षणके
स्वरूप ढोढाचार्य नामक एक ऐसे प्राचार्यका नामोल्लेख समान प्राण धारण और धर्मके निमित्त थोडासा श्राहार लेते
भी किया है। जैसा कि ग्रन्थकी निम्न दो गाथाओंसे थे। यदि कारणवश विधिके अनुसार पाहार नहीं मिलता
प्रकट है:था, तो भी मुनि खेदित नहीं होते थे, किन्तु सुख दुख में
आयरिय कुलं मुच्चा विहरदि समणो य जो दु एगागी। मध्यस्थ और अनाकुल रहते थे। वे दीन वृत्तिके धारक
ण य गेण्हदि उवदेसं पावस्समणो त्ति वुच्चदि दु॥६८ नहीं थे, किन्तु वे नरसिंह सिंहकी तरह गिरि-गुह कन्द
आयरियत्तण तुरिओ पुव्वं सिस्सत्तणं अकाऊणं । रामों में निर्भय होकर वास करते थे। यथाजातमुद्राके
__ हिंडइ ढुंढायरिओ णिरंकुसो मत्तहत्थिव्व ।।६६ धारक थे, अर्थात् दिगम्बर रहते थे। और ध्यान अध्ययन के इन गाथाओंसे स्पष्ट है कि उस समय कुछ साधु साथ अंग पूर्वादिका पाठ करते थे। वस्तुतत्वके अवधारणमें ऐसे भी पाये जाते थे, जिनका प्राचार स्वच्छन्द था-वे समर्थ थे। जिस तरह गिरिराज सुमेरु कल्पान्त कालकी गुरु-परम्पराकी प्राचीन
गरु-परम्पराकी प्राचीन परिपाटीमें चलना नहीं चाहते थे। वायुसे भी नहीं चलता। उसी तरह वे योगीगण भी किन्तु विवेक शून्य होकर स्वच्छन्द एवं अनर्गल सूत्र ध्यानसे विचलित नहीं होते थे। इस अनगार भावना विरुद्ध प्रवृत्तिको अहितकर होते हुए भी हितकर समझते थे। अधिकारकी १२० वी गाथान उस समयके साधुओंके जो
शील गुणाधिकारमें कुल २६ गाथाएं हैं जिनमें शीलपर्याय नाम दिये हैं वे इस प्रकार हैं:
स्वरूपका वर्णन करते हुए शीलके मूलोत्तर भेदोंका वर्णन समणोत्ति संजदोत्ति य रिसि मुणि साधुत्ति वीदरागोत्ति।'
किया है। जिनका प्राचारके साथ गहरा सम्बन्ध है।
२३ 'पर्याप्ति' नामक अधिकारमें पर्याप्ति और णामाणि सुविहिदाणं अणगार भदंत दंतोत्ति ।।१२०। प्रहणी-सिद्धान्तार्थ प्रतिपादक सूत्रों-का ग्रहण किया
यह सब कथन ग्रन्थकी प्राचीनताका ही द्योतक है। गया है। जिनमें पर्याप्ति, देह, संस्थान, काय-इंद्रिय,
समयसार नामका अधिकार भी अत्यन्त व्यवस्थित योनि, पाऊ, प्रमाण, योग, वेद, लेश्या, प्रवीचार, उपपाद और सूत्रात्मक है। समयसारका अर्थ टीकाकार वसुनन्दीने उद्वर्तन, स्थान कुल, अल्पबहुत्व और प्रकृति स्थिति-अनु'द्वादशांगचतुर्दशपूर्वाणां सारं परमतत्त्वं मूलोत्तरगुणा- भाग और प्रदेशबंधरूप सूत्र-पदोंका विवेचन किया है। नां च दर्शनज्ञानचारित्राणां शुद्धिविधानस्य च भिक्षा- इस अधिकारमें कुल २०६ गाथाए पाई जाती हैं। जिनमें शुद्धश्च सारभूतं किया है। जिससे यह स्पष्ट जाना जाता उक्त विषयों पर विवेचन किया गया है। है कि इस अधिकारमें द्वादशांग वाणीका सार खींच कर इस अधिकारमें चर्चित गति-प्रागतिका कथन साररक्खा गया है। इसी अधिकारमें आचारांगसे सम्बन्धित समय अर्थात् ब्याख्या प्रज्ञप्तिमें कहा गया है। व्याख्या
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किरण ११]
मूलाचार संग्रह ग्रन्थ न होकर आचाराङ्गके रूपमें मौलिक ग्रन्थ है।
[३५६
प्रज्ञप्ति' नामका एक सूत्र ग्रन्थ दिगम्बर सम्प्रदायमें था। कर्मनोकर्मनिर्मोक्षादात्मा शुद्धात्मतां व्रजेत् ॥ जिसका उल्लेख धवला-जयधवला टीकामें पाया जाता है।
-आचारसार-११,१८६ षट् खण्डागमका 'गति-प्रागति' नामका यह अधिकार अतः जीवस्थान और उनके प्रकारोंको जाने बिना व्याख्याप्रज्ञप्तिसे निकला है+ अन्य दूसरे ग्रन्थों में भी साधु हिंस्य, हिंसक हिंसा और उसके फल या परिणामसे यह कथन उपलब्ध होता है। इस अधिकारके सम्बन्धमे बच नहीं सकता । उनका परिज्ञान ही उनकी रक्षाका कारण जो मैंने यह कल्पना पहलेकी थी कि इस अधिकारका कथन है। अतएव अपनेको अहिंसक बनानेके लिए उनका जानप्राचारशास्त्रके साथ कोई खास सम्बन्ध नहीं रखता, वह ना अत्यन्त आवश्यक है। ठीक नहीं है क्योंकि साधुको प्राचार मार्गके साथ जीवो
इस विवेचनसे स्पष्ट है कि मुलाचारके उक्क अधिकार त्पत्तिके प्रकारों, उनकी अवस्थिति, योनि और आयु काय
का वह सब कथन सुसम्बद्ध और सुग्यवस्थित है। प्राचार्य आदिका भले प्रकार ज्ञान न हो तो फिर उनकी संयममें
महोदयने इस अधिकारमें जिन-जिन बातोंके कहनेका उपठीक रूपसे प्रवृत्ति नहीं बन सकती, और जब ठीक रूपमें
क्रम किया है उन्हींका विवेचन इस ग्रन्थमें किया गया है। प्रवृत्ति नहीं होगी, तब वह साधु षटकायके जीवोंकी रक्षामें
इस कारण इस अधिकारका सब कथन सुव्यवस्थित और तत्पर कैसे हो सकेगा। अतः जीवहिंसाको दूर करने अथवा
सुनिश्चित है और व्याख्याप्रज्ञप्ति जैसे सिद्धान्त ग्रंथसे सार उससे बचनेके लिए उस साधुको जीवस्थान आदिका परि
रूपमें गृहीत कथनकी प्राचीनताको ही प्रकट करता है। ज्ञान होना ही चाहिए । जैसा कि प्राचार्य पूज्यपाद अपर
इस तरह मूलाचार बहुत प्राचीन ग्रन्थ है। वह दिगनाम देवनन्दीकी 'तत्त्वार्थवृत्ति' के और प्राचार्य वीरनंदीके निम्न वाक्योंसे प्रकट है:
म्बर परम्पराका एक प्रामाणिक प्राचार ग्रन्थ है, भाचारांग
रूपसे उल्लेखित है। अतः वह संग्रह प्रन्थ न होकर मौलिक "ता एताः पंच समितयो विदितजीवस्थानादि ग्रन्थ है । इस ग्रन्थके कर्ता भद्रबाहुके शिष्य कुन्दकुन्दाविधेमुनेः प्राणि-पीडापरिहाराभ्युपाया वेदितव्याः" चार्य ही हैं। प्राचार्य कुन्दकुन्दके दूसरे प्रन्योंको सामने
रख कर मूलाचारका तुलनात्मक अध्ययन करनेसे अनेक -तत्त्वार्थवृत्ति-अ०६, ५.
गाथाओंका साम्य ज्योंके-त्यों रूपमें अथवा कुछ थोडेसे पाठजीवकर्मस्वरूपज्ञो विज्ञानातिशयान्वितः ।
भेदके साथ पाया जाता है। कथन शैली में भी बहुत कुछ
सादृश्य है जैसा कि मैंने पहले 'क्या कुनकुन्द ही मुला+'वियाह पण्णात्तीदो गदिरागदिणिग्गदा।
चारके कर्ता हैं' नामके लेख में प्रकट किया था। धवला भाग १ पृ. १३० ॐ देखो, तत्त्वार्थ राजवार्तिक ६.५ पृ. ३२१
देखो अनेकान्त वर्ष २ किरण ३ पृ० २२१ -:xxx:
अनेकान्तके ग्राहकोंसे .. अगली किरणके साथ १२वें वर्षके ग्राहकोंका मूल्य कमसे कम आठ आनेकी बचत होगी और अनेकान्तसमाप्त हो जाता है । आगामी वर्षसे अनेकान्तका मूल्य का प्रथमाङ्क समय पर मिल सकेगा तथा कार्यालय भी
वी० पी० की झंझटोंसे बच जायगा। छः रुपया कर दिया गया है । अतः प्रेमी ग्राहकोंसे १ निवेदन है कि वे ६) रुपया मनीआर्डरसे भेजकर
मैनेजर 'अनेकान्त' अनुगृहीत करें । मूल्य मनाआर्डरसे भेज देनेसे उन्हें
१ दरियागंज, देहली
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— जयन्तीमें अबकी बार अनेक विद्वानों के महत्वपूर्ण धवलादि सिद्धांत ग्रन्थोंका फोटो
श्री महावीर जयन्ती
अभिनन्दन समारोह इस वर्ष देहलीमें भगवान महावीरकी जन्म-जयन्ती- ता० १५ अप्रैलको भगवान् महावीरकी जयंतीके शुभ का उत्सव बहुत ही उत्साहपूर्वक मनाया गया। सब्जीमंडी, अवसर पर भारतके उपराष्ट्रपति डा. राधा कृष्णननके बोदीरोड, पहादीधीरज, म्यू देहली और परेडके मैदानमें हायसे समाज सेविका ब्रह्मचारिणी श्रीमती पंडिता चन्दा. बनायें हुए विशाल पंडाल में जैनमित्रमंडल की ओरसे मनाया बाईजी को उनकी सेवाओंके उपलक्ष्यमें देहली महिला गया। तालको पहादी धीरजसे एक विशाल जलस समाजकी ओरसे अभिनन्दन ग्रन्थ भेटमें दिया गया। चाँदनी चौक होता हमा परेडके मैदान में पहुंचा और वहाँ श्रीमती व्रजवालादेवी पाराने बाईजीका जीवन परिचय भारत सरकारसे निवेदन किया गया कि भगवानकी जन्म- कराया। ता. १६ को भारत वर्षीय दि. जैन महासभाकी अयंतीकी छही अवश्य होनी चाहिए। इस वर्ष देहलीको जन- ओरसे सर सेठ भागचन्दजी सोनी अजमेरके हाथ से एक ताने अपना सबकारोबार बंद रक्खा। भारत सरकारको चाहिये अभिनन्दन पत्र भेंट किया गया । उस समय कई विद्वानांने कि जब उसने इसरे धर्मवालोंकी जयन्तियोंकी छट्टी स्वीकृत आपकी कार्यक्षमता और जीवन घटनाओं पर प्रकाश डाला। की। तब सिाके अवतार महावीरकी जन्म जयन्तीकी चन्दाबाईजी जैन समाजको विभूति हैं, हमारी हार्दिक
ही देना उसका स्वयं कर्तव्य हो जाता है। प्राशा है कामना है कि वे शतवर्ष जीवी हों ताकि समाज और देशकी भारत सरकार इस पर जरूर विचार करेगी, भागामी वर्ष और भी अधिक सेवा कर सकें। महावीर जयन्तीकी छुट्टी देकर अनुगृहीत करेगी।
-परमानन्द जैन शास्त्री - जयन्ती में अबकी बार अनेक विद्वानोंके महत्व माषण हुए ! उन भाषणों में भारतके उपराष्ट्रपति डा. सर राधाकृष्णनका भाषण बढ़ा ही गौरवपूर्ण इमा। पाठकोंको यह जान कर हर्ष होगा कि वीर-सेवाआपने अहिंसाकी व्याख्या करते हुए बताया कि अहिंसा मन्दिरके सतत प्रयत्नसे मुडविद्रीके भण्डार में विराजजैनोंका ही परमधर्म नहीं है बल्कि वह भारतीय धर्म है। मान श्रीधवला (तीनों प्रतियाँ), श्री जयधवला तथा अहिंसाकी प्रतिष्ठासे धैर-विरोधका अभाव हो जाता है और महा
महाधवला (महाबन्ध) की ताड़पत्रीय प्रतियोंके भास्मा प्रशान्त अवस्थाको पा लेता है। इसमें सन्देह नहीं।
फोटो ले लिये गए हैं। वहांके विस्तृत समाचार तथा महावीरने अपनी अहिंसाकी अमिट छाप दसरे धर्मों पर मूल प्रतियों के कुछ पृष्टोंके फोटो अगली किरणमें दिए जमाई और उन्होंने उसे वैदिक क्रिया काण्डके विरुद्ध
जावेंगे। स्थान दिया और कहा :
इस महान कार्यमें उप्रतपस्वी श्री १०८ आचार्य
नमिसागरजी तथा श्री १०५ पूज्य क्षुल्लक पं० गणेशयूपं बध्वा पशून हत्वा कृत्वा रुधिरकर्दमम् । प्रसाद जी वणींके शुभाशीर्वाद प्राप्त हैं। यदैव गम्यते स्वर्ग नरके केन गम्यते ।।
-राजकृष्ण जैन यज्ञस्तंभसे पांच कर, पशुओंको मारकर और रुधिरकी कीचड़ बहाकर यदि प्राण। स्वर्गमें जाता है तो फिर नरक में कौनजायगा । अतः हिंसा पाप है, नरकका द्वार है । अहिसा खतौली जि० मुजफ्फर नगर निवासी ला० बलवन्तही परम धर्म और उससे ही सुख-शान्ति मिल सकतो हे सिंह माम चन्द्रजीने अपने सुपुत्र चि. बा. हेमचन्द्र के मापने अहिंसाके साथ जैनियोंके अनेकांतवाद सिद्धा- शुभ विवाहोपलक्ष्यमें वीरसेवामन्दिरको १०१) रुपया मतका भी युक्तिपूर्ण विवेचन किया । हा युद्धवीरसिंहका प्रदान किये हैं। इसके लिये दातार महोदय धन्यवादके भाषण भी अच्छा और प्रभावक था । इसतरह महावीर जयन्तीका यह उत्सब भारतके कोने-कोने में सोत्साह मनाया
राजकृष्ण जैनगया है।
व्यवस्थापक वीरसेवा मन्दिर
वीरसेवामन्दिरको सहायता
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वीरसेवामन्दिरके सुरुचिपूर्ण प्रकाशन
(१) पुरातन-जैनवाक्य-सूची - प्राकृतके प्राचीन ६४ मूल ग्रन्थोंकी पद्यानुक्रमणी, जिसके साथ ४८ टीकादिग्रन्थों में उद्धत दूसरे पद्योंकी भी अनुक्रमणी लगी हुई है । सब मिलाकर २५३५३ पद्य वाक्योंकी सूची । संयोजक और सम्पादक मुख्तार श्रीजुगलकिशोरजी की गवेषणापूर्ण महत्वकी १७० पृष्ठकी प्रस्तावनासे श्रलंकृत, डा० कालीदास नागर एम. ए., डी. लिट् के प्राक्कथन ( Foreword) और डा० ए. एन. उपाध्याय एम. ए. डी. लिट् की भूमिका (Introduction) से भूषित है, शोध-खोजके विद्वानों के लिये श्रतीव उपयोगी, बड़ा साइज, सजिल्द ( जिसकी प्रस्तावनादिका मूल्य अलग से पांच रुपये है ) १५) (२) प्राप्त - परीक्षा - श्रीविद्यानन्दाचार्यकी स्वोपज्ञ सटीक श्रपूर्वकृति प्राप्तोंकी परीक्षा द्वारा ईश्वर-विषयके सुन्दर सरस और सजीव विवेचनको लिए हुए, न्यायाचार्य पं० दरबारीलालजी के हिन्दी अनुवाद तथा प्रस्तावनादिसे युक्त, सजिल्द । (३) न्यायदीपिका - न्याय-विद्याकी सुन्दर पोथी, न्यायाचार्य पं० दरबारीलालजी के संस्कृतटिप्पण, हिन्दी अनुवाद, विस्तृत प्रस्तावना और अनेक उपयोगी परिशिष्टोंसे श्रलंकृत, सजिल्द । (४) स्वयम्भू स्तोत्र - समन्तभद्रभारतीका अपूर्व ग्रन्थ, मुख्तार श्रीजुगलकिशोरजीके विशिष्ट हिन्दी अनुवाद छन्दपरि चय, समन्तभद्र - परिचय और भक्तियोग, ज्ञानयोग तथा कर्मयोगका विश्लेषण करती हुई महत्वकी गवेषणापूर्ण १०६ पृष्ठकी प्रस्तावनासे सुशोभित । (५) स्तुतिविद्या - स्वामी समन्तभद्रकी अनोखी कृति, पापोंके जीतनेकी कला, सटीक, सानुवाद और श्रीजुगलकिशोर
...
मुख्तारक महत्वकी प्रस्तावनादिसे श्रलंकृत सुन्दर जिल्द- सहित । 111) (६) अध्यात्मकमलमार्तण्ड - पंचाध्यायीकार कवि राजमल्लकी सुन्दर श्राध्यात्मिक रचना, हिन्दी अनुवाद- सहित • श्रर मुख्तार श्रीजुगलकिशोर की खोजपूर्ण ७८ पृष्ठकी विस्तृत प्रस्तावनासे भूषित । 911) (७) युक्त्यनुशासन - तत्त्वज्ञानसे परिपूर्ण समन्तभद्रकी असाधारण कृति, जिसका अभी तक हिम्दी अनुवाद नहीं हुआ था । मुख्तारश्रीके विशिष्ट हिन्दी अनुवाद और प्रस्तावनादिले अलंकृत, सजिल्द । (८) श्रीपुरपाश्वनाथस्तोत्र - श्राचार्य विद्यानन्दरचित, महत्वकी स्तुति, हिन्दी अनुवादादि सहित । (६) शासनचतुस्त्रिशिका - ( तीर्थपरिचय ) मुनि मनकीतिंकी १३ वीं शताब्दीकी सुन्दर रचना, हिन्दी
1)
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II)
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अनुवादादि सहित | (१० सत्साधू - स्मरण - मंगलपाठ - श्रीवीर वर्द्धमान और उनके बाद के २१ महान् श्राचार्यों के १३७ पुण्य स्मरणांका महत्वपूर्ण संग्रह, मुख्तारश्रीके हिन्दी अनुवादादि सहित ।
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(११) विवाह समुद्देश्य - मुख्तारश्रीका लिखा हुआ विवाहका सप्रमाण मार्मिक और तात्विक विवेचन (१२) अनेकान्त-रस लहरी — अनेकान्त जैसे गुढ़ गम्भीर विषयको अवती सरलतासे समझने- समझानेकी कुंजी, मुख्तार श्रीजुगलकिशोर-लिखित ।
८)
...
(१३) श्रनित्यभावना - प्रा० पद्मनन्दी की महत्वकी रचना, मुख्तार श्रीके हिन्दी पद्यानुवाद और भावार्थ सहित 1 )
(१४) तत्त्वार्थसूत्र - ( प्रभाचन्द्रीय ) - मुख्तारश्रीके हिन्दी अनुवाद तथा व्याख्यासे युक्त ।
(१५, श्रवणबेलगोल और दक्षिण के अन्य जैनतोर्थ क्षेत्र -ला० राजकृष्ण जैनको सुन्दर सचित्र रचना भारतीय पुरातत्व विभाग के डिप्टी डायरेक्टर जनरल डा०टी०एन० रामचन्द्रन की महत्व पूर्ण प्रस्तावनासे अलंकृत १ ) नोट- ये सब ग्रन्थ एकसाथ लेनेवालोंको ३८ ॥ ) की जगह ३० ) में मिलेंगे ।
व्यवस्थापक 'वीर सेवामन्दिर - ग्रन्थमाला' वीर सेवामन्दिर, १ दरियागंज, देहली
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३४०]
अनेकान्त
[किरण ११
रखते हैं। सभी तांत्रिक, पौराणिक और जैनसाहित्यमें "इन विभक्त देवोंमें वह कौनसा देवाधिदेव है जो इनकी मान्यता सुरक्षित है। भारतीय अनुश्रति-अनुसार सबसे पहले पैदा हुआ. जो सब भूतोंका पति है, जो द्य ये मृत्युको हिलानेवाले घोर तपस्वी ग्यारह महायोगियोंके और पृथ्वीका माधार है, जो जीवन और मृत्युका मालिक नाम हैं। महाभारतमें इनके नाम निम्न प्रकार बतलाए है, इनमेंसे हम किसके लिये हवि प्रदान करें३ ?" गए हैं-१ मृगव्याध, २ सर्प, ३ निऋति, ४ अजैकपाद्, “जिस समय अस्थिरहित प्रकृतिमे अस्थियुक्त संसारको
महिर्बुध्न्य पिनाकी. . दहन, ८ ईश्वर, कपाली धारण किया, उस समय प्रथम उत्पन्नको किसने देखा था। ' १० स्थाणु, ११ भग। इसमेंसे अजैकपाद, अहिन्य, मान लो पृथ्वीसे प्राण और रक्त उत्पन्न हुए परन्तु प्रारमा भग, स्थाणु आदि कई रुद्रोंका उपरोक्त नामोंसे ऋग्वेदके कहाँ से पैदा हुआ । इस रहस्यके जानकारके पास कौन कितने ही सूत्रों में बखान किया गया है। ये देवता प्राय- इस विषयकी जिज्ञासा लेकर गया था?" जनने इलावर्त और सप्तसिन्धु देश में प्रवेश होनेके साथ ही इस उठती हुई शंका लहरीने इन्द्र को भी अछूता न साथ वहाँ के निवासी यक्ष और गन्धर्व जातियोंसे ग्रहण छोड़ा। होते-होते वैदिक ऋषि अपने उस महान् देवता इंद्र किये हैं। इस तरह यद्यपि भारत • प्रवेशके साथ इनके के प्रति भी सशंक हो उठे। जो सदा देवासुर. और देवता-मण्डल में 'प्रास्मा' नामके देवताका समावेश जरूर आर्य-दम्यसंग्रामोंमें आर्यगणका अग्रणी नायक बना हो गया, पर अभी प्रात्मीय वस्तु न होकर देवता ही रहा। जिसने वृत्रको मारकर सप्तसिन्धु देश आर्य-जनके बना रहा। इस 'श्रात्मा' देवताको प्रात्मीय तत्व में प्रवृत्त करो
ीय तत्त्वमे प्रवृत्त वसने के लिये युद्ध कराया, जिसने दस्युओंका विध्वंस करके करने में प्रार्यजनको बहुत-सी मंजिलों से निकलना पड़ा है।
उनके दुर्ग, नगर, धन, सम्पत्ति, आर्यजनमें वितरण की,
जो अपने उक्त पराक्रमके कारण महाराजा, महेन्द्र, विश्वबहुदेवतावादका ह्रास
कर्मा आदि नामोंसे विख्यात हुआ। इस बढती हुई संख्याके साथ ही साथ देवतावादका
एक देवतावादकी स्थापनाहास भी शुरू हो गया और यह एक स्वाभाविक प्रवृत्ति
यह प्रश्नावली निरन्तर उन्हें एक देवतावादकी ओर थी। आखिर बुद्धि इन देवताओंके अव्यवस्थित भारको
प्रेरणा दे रही थी। आखिरकार भीतरसे यह घोषणा कब तक सहन करती। जहाँ शिशु-जीवन विस्मयसे प्रेरा
सुनाई देने लगीहुमा, सामान्यसे विशेषताकी ओर, एकसे अनेकताकी ओर
इन्द्रं वरुणं मित्रंमग्निमाहरथो दिन्यः स सुपर्णो गरुत्मान् । छटपटाता है, वहाँ सन्तुष्टि जाम होने पर प्रौढ़ हृदय बाहुल्यता और विभिन्नतासे हटकर एकता और व्यवस्था
एकं सद्विप्रा बहुधा वदन्त्यग्नि यमं मातरिश्वामाह ॥
॥ऋग-१ १६४-४६ की राह दूढ़ता है। स्वभावतः बुद्धि में किसी एक ऐसे
मेधावी लोग जिसे आज तक इन्द्र, मित्र, वरुण, स्थायो, अविनाशी, सर्वव्यापी सत्ताकी तलाश करनी शुरू
अग्नि आदि अनेक नामोंसे पुकारते चले माये हैं की जिसमें तमाम देवताओंका समावेश हो सके । शंका ही
वह एक अलौकिक सुन्दर पक्षी के समान (स्वतन्त्र) दर्शनशास्त्रको जननी है, इस उक्तिके अनुसार एकताका
है। वह अग्नि, यम, मातरिश्वा आदि अनेक रूप नहीं दर्शन होने से पहले इन देवताओंके प्रति ऋषियोंके मन में
है । वह तो एक रूप है। इस भावनाके परिपक्व अनेक प्रकारकी शंकाएँ पैदा होना शुरू हुई।
होने पर अनेक देवताओंकी जगह यह एक देवता "ये प्राकाशमें घूमनेवाला सप्तऋषिचक्र दिनके समय संसारकी समस्त शक्तियोंका सृष्टा वा संचालक बन गया। कहाँ चला जाता है।" ___ "ध और पृथ्वीमें पहले कौन पैदा हा कौन पोनी (३) कस्म देवाय हविषा विधेम-ऋग १०-१२१. ये किसलिए पैदा हुए. यह बात कौन जानता है (२)"
(४) ऋग. 1-1६४-४, (२) ऋग १०८६-१-२-१२-२,
(६) इन्द्र के इस विवेचनके लिये देखें 'अनेकान्त' वर्ष" महाभारत पादिपर्व १६,८,३।
किरण २ में लेखकका मोहनजोदड़ों कालीन और (1) ऋग् । २४-१०, (२) ऋग १-१८५-१,
माधुनिक जैनसंस्कृति "शीर्षक लेख ।
भी शुरू
हुन देवता
जीवन
और
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________________ Regd. No. D.211 अनेकान्तके संरक्षक और सहायक COCCCC संरक्षक 101) बा० मोतीलाल मक्खनलालजी, कलकत्ता 1500) बा० नन्दलालजी सरावगी, कलकत्ता 101) बा० बद्रीप्रसादजी सरावगी, 251) बा० छोटेलालजी जैन सरावगी, 101) बा० काशीनाथजी, ... 251) बा० सोहनलालजी जैन लमेचू , 101) बा० गोपीचन्द रूपचन्दजी 251) ला० गुलजारीमल ऋषभदासजी , 101) बा० धनंजयकुमारजी ) बा० ऋषभचन्द (B.R.C. जैन 101) बा जीतमलजी जैन 251) बा० दीनानाथजी सरावगी 101) बा० चिरंजीलालजी सरावगी 251) बा० रतनलालजी झांझरी 101) बा० रतनलाल चांदमलजी जैन, राँचो 251) बा० बल्देवदासजी जैन सरावगी 101) ला० महावीरप्रसादजी ठेकेदार, देहली 251) सेठ गजराजजी गंगवाल 101) ला० रतनलालजी मादीपुरिया, देहली 251) सेठ सुआलालजी जैन 101) श्री फतेहपुर जैन समाज, कलकत्ता 251) बा० मिश्रीलाल धर्मचन्दजी 101) गुप्तसहायक, सदर बाजार, मेरठ 251) सेठ मांगीलालजी 101) श्री शीलमालादेवी धर्मपत्नी डा०श्रीचन्द्रजी, एटा 251) सेठ शान्तिप्रसादजी जैन 101) ला० मक्खनलाल मोतीलालजी ठेकेदार, देहली 251) बा० विशनदयाल रामजीवनजी. परलिया 101) बा० फूलचन्द रतनलाल जी जैन, कलकत्ता 251) ला० कपूरचन्द धूपचन्दजी जैन, कानपुर 101) बा० सुरेन्द्रनाथ नरेन्द्रनाथजी जैन, कलकत्ता 251) बा० जिनेन्द्रकिशोरजी जैन जौहरी, देहली 101) बा० वंशीधर जुगलकिशोरजी जैन, कलकत्ता 251) ला० राजकृष्ण प्रेमचन्दजी जैन, देहली 101) बा० बद्रीदास आत्मारामजी सरावगी, पटना 251) बा० मनोहरलाल नन्हेंमलजी, देहली 101) ला० उदयराम जिनेश्वरदासजी सहारनपुर 251) ला० त्रिलोकचन्दजी, सहारनपुर 101) बा० महावीरप्रसादजी एडवोकेट, हिसार 7251) सेठ छदामीलालजी जैन, फीरोजाबाद। 101) ला० बलवन्तसिंहजो, हांसी जि० हिसार 251) ला० रघुवीरसिंहजी, जैनावाच कम्पनी, देहली 101) कुवर यशवन्त सिंहजी, हांसी जि. हिसार 251) रायबहादुर सेठ हरखचन्दजी जैन, रांची 181) सेठ जोखीराम बैजनाथ सरावगी, कलकत्ता 251) सेठ वधीचन्दजी गंगवाल, जयपुर 101) श्री ज्ञानवतीदेवी ध.० सहायक वैद्य आनन्ददास देहली 101) बा० राजेन्द्रकुमारजी जैन, न्यू देहली 101) बाबू जिनेन्द्रकुमार जैन, सहारनपुर 101) ला० परसादीलाल भगवानदासजी पाटनी. देहली 101) वद्यराज कन्हैयालालजी चाँद औषधालय,कानपुर 101) बा० लालचन्दजी बी० सेठी, उज्जैन 101) रतनलालजी जैन कालका वाले देहली 101) बा० घनश्यामदास बनारसीदासजी, कलकत्ता अधिष्ठाता 'वीर-सेवामन्दिर' 101) बा० लालचन्दजी जैन सरावगी . सरसावा, जि. सहारनपुर प्रकाशक-परमानन्दजी जैन शास्त्री, दरियागंज देहली / मुद्रक-रूप-वाणी प्रिटिंग हाऊस 23, दरियागंज, देहली For Personals Private Lisonly