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________________ किरण ११ ] मूलाचार की मौलिकता और उसके रचयिता [३३३ पुरातन-जैभवाक्य-सूची को प्रस्तावनाके १८ वें पृष्ठ पर ध्यायने मुझे बतलाया है कि कनदीमें 'वेट्ट' छोटी पहादीको भाचार्य श्री जुगलकिशोरजी मुख्तारने लिखा है:- और 'केरी' गली या मोहल्लेको कहते हैं। बेलगाव और "xxx इस ( वट्टकेराइरिय ) नामके किसी भी धारवाड़ जिले में इस नामके गांव अब भी मौजूद हैं। प्राचार्यका उल्लेख अन्यत्र गुर्वावलियों, पट्टावलियों शिला- आगे आप लिखते हैं-"पं० सुब्बय्या शास्त्रीसे लेखों तथा ग्रन्थ प्रशस्तियों श्रादिमें कहीं भी देखने में नहीं मालूम हुमा कि श्रवणबेलगोलका भी एक मुहल्ला वेट्टगेरि पाता और इसलिए ऐतिहासिक विद्वानों एवं रिसर्चका- नामसे प्रसिद्ध है। कारिकलके हिरियंगडि बस्तिके पद्मावती लरोंके सामने यह प्रश्न बराबर खड़ा हना है कि ये वट्ट- देवीके मन्दिरके एक स्तम्भ पर शक सं० १३६७ का एक केरादि नामके कौनसे प्राचार्य हैं और कब हुए हैं ?" शिलालेख है जो कनडी भाषामें है । इस लेखमें 'बेट्टकेरि' श्री मुख्तार सा० ने 'वट्टकेराचार्य के सन्धि-विच्छेद- गांवका नाम दो बार पाया है और वह कारिकलके पास द्वारा अर्थ-संगति बिठानेका प्रयाम भी उक्त प्रस्तावनामें ही कहीं होना चाहिए । सो हमारा अनुमान है कि मूला. किया है। वे 'वट्टराइरिय' का वट्टक हरामारिया चारके कर्ता 'वट्टकेरि' भी उक्त नामके गांवोंमेंसे ही किसी ऐसा सन्धि-विच्छेद करते हुए लिखते हैं: गांवके रहने वाले होंगे।" "वट्टक' का अर्थ वर्तक-प्रवर्तक है. 'हरा' गिरावाणी- माजाक इस लखम सु सरस्वतीको कहते हैं, जिसकी वाणी सरस्वती प्रवर्तिका में मुख्तार साहब अपनी उसी प्रस्तावनामें लिखते हैं:हो । जनताको सदाचार एवं सम्मान में लगाने वाली हो- "वेट्टगेरि या बेट्टकेरी नामके कुछ ग्राम तथा स्थान पाये उसे वट्टकेर' समझना चाहिए । दूसरे, वट्टको-प्रवर्तकोंमें जाते हैं. मूलाचारके कर्ता उन्हीं में से किसी वेट्टगेरि या जो इरि = गिरि प्रधान-प्रतिष्ठित हो, अथवा ईरि=समर्थ- बेट्टकेरी प्रामके ही रहने वाले होंगे और उस परसे कौण्डशक्तिशाली हो, उसे 'वट्टकेरि' जानना चाहिए। तीसरे कुण्डादिकी तरह 'बेट्टकेरी' कहलाने लगे होंगे, वह कुछ 'वट्ट' नाम वर्तन-आचरणका है और 'ईरक' प्रेरक तथा संगत नहीं मालूम होता-बेट्ट और वट्ट शब्दोंके रूपमें ही प्रवर्तकको कहते हैं, सदाचारमें जो प्रवृत्ति कराने वाला हो. नहीं, किन्तु भाषा तथा अर्थमें भी बहुत अन्तर है। 'बेट्ट' उसका नाम 'वहरक' है । अथवा 'वट्ट' नाम मार्गका है. शब्द प्रेमीजीके लेखानुसार छोटी पहादीका वाचक कनकी सन्मार्गका जो प्रवर्तक, उपदेशक एवं नेता हो उसे भी भाषाका शब्द है और 'गेरि' उस भाषामें गली-मोहल्लेवहरक कहते हैं। और इसलिए अर्थकी दृटिसे ये वट्टके- को कहते हैं। जबकि 'वट्ट' और वट्टक' जैसे शब्द प्राकृत रादि पद कुन्दकुन्दके लिए बहुत ही उपयुक्त तथा संगत भाषाके उपयुक्त अथके वाचक शब्द हैं और प्रन्थकी मालूम होते हैं। आश्चर्य नहीं, जो प्रवर्तकस्व-गुणकी भाषाके अनुकूल पड़ते हैं। ग्रन्यभरमें तथा उसकी टीकामें विशिष्टताके कारण ही कुन्दकुन्दके लिए 'वट्टकेरकाचाय 'बेट्टगेरि' या 'बेट्टकेरी' रूपका एक जगह भी प्रयोग नहीं (प्रवर्तकाचार्य) जैसे पदका प्रयोग किया गया हो।" पाया जाता और न इस ग्रन्थके कर्तृत्वरूपमें अन्यत्र ही श्री. नाथूरामजी प्रेमीका 'मूलाचारके कर्ता वट्टकेरि' उसका प्रयोग देखने में आता है, जिससे उक्त कल्पनाको शीर्षक लेख जैन सिद्धान्त-भास्करके भाग १२ की किरण कुछ अवसर मिलता।" 1 में प्रकाशित हुआ है, उसमें वे लिखते हैं: । पुरातन जैनवाक्यसूची प्रस्ता० पृ. ११) उपयुक्त दोनों विद्वानोंके कथनोंका समीक्षण करते xxx वट्टकेरि' नाम भी गाँवका बोधक होना हुए मुझे मुख्तार साहबका अर्थ वास्तविक नामकी भोर चाहिए और मूलाचारके कर्ता बेहगेरी या बे केरी प्रामके अधिक संकेत करता हुआ जान पड़ता है। यदि 'वह केरा ही रहने वाले होंगे और जिस तरह कोण्डकुण्डके रहने इरिय' का सन्धि-विच्छेद 'वट्टक+ एरा+पाइरिय' करके वाले प्राचार्य कौण्डकौण्डाचार्य, तथा तुम्बुलुर ग्रामके और संस्कृत-प्राकृतके 'ह-जयोः र-जयोरभेदः' नियमको हने वाले तम्बुलराचार्य कहलाये, उसी तरह ये वट्टकेरा ध्यान में रखकर इसका अर्थ किया जाय, तो सहजमें ही चार्य कहलाने लगे। 'वर्तक+एला+प्राचार्य = वर्तकैलाचार्य नाम प्रगट हो इसी लेखमें भाप लिखते हैं कि 'डा. ए. एन. उपा- जाता है। प्राचार्य कुन्दकुन्दका एक नाम 'एनाचार्य' भी Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.527325
Book TitleAnekant 1954 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJugalkishor Mukhtar
Publication Year1954
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size10 MB
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