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________________ ३३८ ] और प्रमाण भी कौनसा है। इसीलिये वह जगत् और उसकी शक्तियोंकी व्याख्या सदा अपनी अनुभूतिके अनु रूप ही करता है । यद्यपि श्रधिदैविक पक्ष वालोंकी मान्यता है कि ईश्वरने मनुष्यको अपनी छाया अनुरूप पैदा किया है १ । परन्तु मनोविज्ञान धौर इतिहासवालों का कहना है कि मनुष्य अपनी अनुभूतिके अनुरूप ही जगत्, ईश्वर, और देवताओंकी सृष्टि करता है । और इस तरह मनुष्यका श्रादिधर्मं सदा मानवीय देवतावाद (Anthropomorahism ) होता है। अनेकान्त [ किरण ११ नहीं है । दुःखोंकी निवृत्ति और सुखोंकी सिद्धि के लिये यज्ञ ही जीवनका आधार है । देवता स्तुति एक मंत्र ही शब्दविद्या की पराकाष्ठा है । इससे अधिक लाभदायक और कोई वाणी नहीं हो सकती। इसी तरह ब्राह्मण ग्रन्थोंमें कहा गया है कि यज्ञ ही देवताओंका अन है १ । यज्ञ ही धर्मका मूल है२ । यज्ञ ही श्रेष्ठतम कर्म है३ बिना यज्ञ किये मनुष्य अजातके समान है४ । इसीलिये देवतानोंकी प्रार्थना की गई है कि सभी देवता अपनी-अपनी पत्नियों सहित रथोंमें बैठकर आयें और हवि ग्रहण करके सन्तुष्ट होवें । इसी तरह वैदिक आर्योंका आदि धर्म भी मानवीय देवतावाद था२ । इनके सभी देवता मानव-समान सजीव सचेष्ट, आकृति-प्रकृतिवास्त्रे थे । वे मानव समान ही खान पान करते और वस्त्राभूषण पहनते थे । वे मानवी राजाओं की तरह ही वाहन, अस्त्र शस्त्र, सेना, मन्त्री आदि राजविभूतियोंसे सम्पन्न थे । वे राजाओं की तरह ही रुष्ट होने पर रोग, मरी, दुभिक्ष, अतिवृष्टि, अनावृष्टि द विपदाओं से दुनियामें तबाही वरपा कर देते हैं और संतुष्ट होने पर वे लोगों को धन-धान्य, पुत्र पौत्र संतानसे मालामाल कर देते हैं । इन देवताओंको सन्तुष्ट करने के लिए मनुष्य के पास सिवाय यज्ञ, हवन कुरवानी, प्रार्थना-स्तुतिके और उपाय हो कौनसा है । इसलिए मानव समाज में जहाँ कहीं और जब कभी भी देवतावादका विकास हुआ है तो उसके साथ साथ यज्ञ, हवन, स्तुति, प्रार्थना, मन्त्रोंका भी विस्तार हुआ है । इस तरह देवतावादके साथ स्तोत्रों और याज्ञिक क्रियाकाण्डका घनिष्ठ सम्बन्ध है । ऋग्वेद में इन प्रश्नोंके उत्तर में कि 'पृथ्वीका अंत कौनसा है, संसारकी नाभि कौनसी है, शब्दका परमधाम कौनसा है' कहा गया है कि यज्ञवेदी ही पृथ्वीका अन्त है, यज्ञ ही संसारकी नभ है और ब्रह्म ( मन्त्रस्तोत्र ही ) शब्दका परमधाम ३ है अर्थात् श्रशिन काण्डसे श्रागे कोई कल्याणका स्थान (1) So god created man in his own image. Bible Genesis 1-27 (२) वही Indian Philosophy और Vedic Mythology. (३) इयं वेदिः परोअंतः पृथिव्या श्रयं यज्ञो भुवनस्य नाभिः । अयं सोमो वृष्णो अश्वस्य रेजो ब्रह्मायं वाचः परमं व्योम ॥ ऋग–१, १६४, ३२, Jain Education International जब तक मनुष्य को अपनी गरिमा और शोभाका बोध नहीं होता उसकी भावनाएँ भी उसकी बाह्यदृष्टि अनुरूप साधारण ऐहिक भावनाओं तक ही सीमित रहती है। वे धन धान्य समृद्धि पुत्र-पौत्र उत्पत्ति, रोगव्याधि- निवृत्ति, दोघं श्रायु, शत्रुनाशन, आदि तक पहुँचकर रुक जाती है। उसके लिये इन्हींकी सिद्धि जीवनकी पराकाष्ठा है, इनसे श्रागे उसे जीवन-कल्याणका और कोई आदर्श नजर नहीं श्राता । इसलिए स्वभावतः श्राधिदैविकयुगके श्रार्यजन उक्तभावनाओं को लेकर ही देवताओंकी प्रार्थना करते हुए दिखाई पड़ते हैं। ऋग्वेदका अधिकांश भाग इस ही प्रकारकी भावनाओं और प्रार्थनाश्रोंसे भरपूर है६ । इन मन्त्रों में इन्द्रदेवताले जहाँ-जहाँ दस्युग्रोंके सर्वनाश और इनके धन-हरण श्रादिके लिये प्रार्थनाएँ की गई हैं वे उन घोर लड़ाइयोंकी प्रतिध्वनि है जो श्रार्यजनको अपने वर्ण और सांस्कृतिक विभेदोंके कारण दीर्घकाल तक दस्यु लोगोंके साथ लड़नी पड़ी है। इनका ऐतिहासिक तथ्य सिंधुदेश और पंजाब के ५००० वर्ष पुराने मोहनजोदड़ो और हडप्पा सरीखे दस्यु लोगोंके उन समृद्धशाली नगरोंकी बरबादी से समझ में आ सकता है जिनके ध्वंस अवशेष अभी १६२५ (१) यज्ञो वै देवतानाम् अन्नम् ॥ शतपथ ब्राह्मण ८-१-२१० (२) यज्ञो वै ऋतस्य योनिः ॥ शतपथ ब्राह्मण १-३,४-१६ (३) यज्ञो वै श्रेष्ठतमं कर्म ॥ शतपथ ब्राह्मण १-७-१-२ (४) अजातो ह वै तावत्पुरुषो यावन्न भजते स यज्ञेनैव जायते । जैमिणि उप. ३-१४८ (२) ऋग - ३.६-६, १-२ (६) ग - २-२ ( पुत्र पौत्र उत्पत्तिके लिये ) ऋग-१०-१८ ( शतवर्ष श्रायुके लिये ) ऋग-१०-२५-१०-२३, ६-११-२ ( दस्यु नाशन के लिये) । For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.527325
Book TitleAnekant 1954 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJugalkishor Mukhtar
Publication Year1954
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size10 MB
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