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वैभवकी श्रृंखलायें
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( मनु 'ज्ञानार्थी' साहित्यरत्न, प्रभाकर )
. उन दिनों वणिक्-श्रेष्ठ शूरदत्तका वैभव अपनी शूरमित्रने अनुजकी विकलता देखी । आँखोंसे चरमसीमा पर पहुंच चुका था। मालव-राष्ट्र के प्रिय आँसू वह निकले । वह बोला-भाई ! नौकरीका नृपति शूरसेनने अपनी राजसभामें उन्हें 'राष्ट्र-गौरव' अर्थ है; भाग्यको हमेशा-हमेशाके लिए बेच देना कह कर अनेकों बार सम्मानित किया था पर, अनि- और व्यापारका अर्थ है, भाग्यकी बार-बार परीक्षा त्यता जो संसारी पदार्थों के साथ जुड़ी है, शूरदत्तके करना । देशान्तर चलें, और व्यापर आरम्भ करें,भाग्य वैभवका सूर्य मध्यान्हके बाद धीरे धीरे ढलने लगा। होगा तो पुनः बीते दिन लौट आयेंगे।
आर, शूरदत्तकी मृत्युके बाद तो वैभव कपूरकी तरह दूसरे दिन जब सबेरा होने को ही था, दोनों उड़ गया; विलीन हो गया । लक्ष्मी अपने चंचल चरण भाई माताका आशिष लेकर रथ्यपुरसे प्रस्थान करके रखती हुई न जाने किस ओर बढ़ गई ? विशाल भवन- किसी अनजान पथकी ओर बढ़ चले। में गृहस्वामिनी है, दो पुत्र हैं, एक पुत्री है किन्तु धन- x x
x के अभावमें भवन मानो सूना-सूना है। प्रतिक्षण अनेकों वर्ष व्यतीत हो गये । पद-पद पर भटकते असन्तोष, लज्जा और गत-वैभवका शोक समस्त परि- हुए ये दोनों सिंहलदीप जा पहुंचे। प्रयत्न करते, पर वारमें छाया रहता है।
कुछ हाथ नहीं आता । भाग्य जैसे रूठ गया है। निर्धनताके बादका वैभव मनुष्यके हृदयको विक- लक्ष्मीको पकड़ने के लिए शून्यमें हाथ फैलाते किन्तु सित कर देता है किन्तु वैभवके बादकी दरिद्रता लक्ष्मी जैसे हाथोंमें आना ही नहीं चाहती । उत्साह मनुष्यके मनको सदाके लिए कुम्हला देती है। दोनों और आशा टूटने लगी। देशकी स्मृति दिनों दिन हरी पुत्र व्यथित थे । हीन दशामें पुरजन और परिजनोंसे होने लगी। एक दिन, दिन भरकी थकानके बाद जब निःसंकोच बोलनेका उनमें साहस अंवशेष न था। वे आवासकी ओर लौट हीरहे थे, कि दूर एक प्रकाशरह-रह कर विचार श्राता था देशान्तरमें जानेका, किंतु पुञ्ज दृष्टिगोचर हुआ। समीप जाकर देखा तो कहाँ जाया जाय ?
आश्चर्य और हर्षसे मानों पागल हो गये। प्रकाशशूरमित्र बोला-'प्रिय अनुज ! यहांसे चलना पुञ्ज एक दिव्य-रत्नका था, जिसकी किरणें दिग-दिगंत ही ठीक है।'
में फैल रही थीं। हृदय उमंगोंसे भर गया । भविष्यके . शूरचन्द्र बोला-'पर, कहाँ जानेकी सोच रहे लिए सहस्रों सुखद कल्पनायें उठने लगी। शूरमित्र हो ?' शूरमित्रने दीर्घ निश्वास लेते हुए कहा-'भाई ! मुस्कराते हुए बोला-'क्या सोचते हो चन्द्र ! दिव्य जहाँ स्थान मिल जाय मुंह छुपानेके लिए । एक ओर मणि हाथ आ गया है। बस, एक मणि ही पर्याप्त पिताका वैभव कहता है उच्च स्तरसे रहनेके लिए, है रूठी हुई चञ्चलाको मनानेके लिए । वैभव फिर दूसरी ओर दरिद्रता खींचती है बार-बार हीनताकी लौटेगा, परिजन अपने होंगे, पुरजन अपने होंगे।
ओर । बस, चल दें घरसे । मार्ग मिल ही जायगा। अब उठ जायँगे हम पुनः दुनियाकी दृष्टि में, और ___ शूर चन्द्र बड़े असमंजसमें था। उसका हृदय मालवपतिकी राजसभामें होगा पिता-तुल्य सम्मान । परदेशकी दिक्कतोंकी कल्पना मात्रसे बैठ सा गया चलो, अब देश चलें। माता और बहिन प्रतीक्षामें था । वह अन्यमनस्क होकर बोला-'यहीं कहीं नौकरी होंगी। करलें । लज्जा-लज्जामें पेट पर बन्धन बाँध कर भूखा रहनेसे तो अच्छा है।'
. भविष्यकी मधुर कल्पनाओंमें सहस्रों योजनका
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