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अनेकान्त
[किरण ११ एवं मौलिक विवेचन किया गया है। जिससे इस ग्रंथमें गणधर द्वारा तीर्थंकरदेव (भगवान महावीर) से पूछे गये उस समयके मुनियोंके मूल प्राचारका ही पता नहीं प्रश्नोत्तर वाली दोनों गाथाएँ देकर उनका फल भी चलता, किन्तु उस समयके साधुओंकी चका भी पुरातन बतलाया है:रूप सामने आ जाता है, जिसमें बतलाया गया है कि वे कि यत्नपूर्वक आचरण करने वाले दया-प्रेक्षक भिक्षुके साधु नवकोटिसे शुद्ध, शंकादि दश दोष रहित, नख जतन कर्मबन्ध नहीं होता; किन्तु चिरंतन कर्मबन्धन नष्ट रोमादि चौदह दोषोंसे विशुद्ध माहार दूसरोंके द्वारा दिया हो जाता है। हुमा परघरमें पाणि-पात्रमें लेते थे। और प्रॉशिक,
जदं तु चरमाणस्स दयापेहुस्स भिक्खुणो। क्रीत-खरीदा हुभा-अज्ञात, शंकित अभिघट और सूत्र
णवं ण बज्झदे कम्म पोराणं च विधूयदि ॥१२३ प्रतिकूल अशुद्ध आहार ग्रहण नहीं करते थे। वे साधुचर्या
इसी अधिकारमें पापश्रमणका लक्षण निर्देश करते हुए को जाते समय इस बातका तनिक भी विचार नहीं करते थे कि ये दरिद्र कुल है यह श्रीमंत है और यह समान
बतलाया है कि जो साधु श्राचार्य-कुलको छोड़कर स्वतन्त्र
एकाकी विचरता है, उपदेश देने पर भी ग्रहण नहीं करता, है। वे तो मौनपूर्वक घरोंमें घूमते थे। और शीतल, उष्ण, शुष्क रूक्ष, स्निग्ध, शुद्ध, लोणिद, अलोणित आहारको
वह साधु पापश्रमण कहलाता है। ६३वी गाथामें उदाहरण अनास्वादभावसे ग्रहण करते थे। वे साधु अक्षमृक्षणके
स्वरूप ढोढाचार्य नामक एक ऐसे प्राचार्यका नामोल्लेख समान प्राण धारण और धर्मके निमित्त थोडासा श्राहार लेते
भी किया है। जैसा कि ग्रन्थकी निम्न दो गाथाओंसे थे। यदि कारणवश विधिके अनुसार पाहार नहीं मिलता
प्रकट है:था, तो भी मुनि खेदित नहीं होते थे, किन्तु सुख दुख में
आयरिय कुलं मुच्चा विहरदि समणो य जो दु एगागी। मध्यस्थ और अनाकुल रहते थे। वे दीन वृत्तिके धारक
ण य गेण्हदि उवदेसं पावस्समणो त्ति वुच्चदि दु॥६८ नहीं थे, किन्तु वे नरसिंह सिंहकी तरह गिरि-गुह कन्द
आयरियत्तण तुरिओ पुव्वं सिस्सत्तणं अकाऊणं । रामों में निर्भय होकर वास करते थे। यथाजातमुद्राके
__ हिंडइ ढुंढायरिओ णिरंकुसो मत्तहत्थिव्व ।।६६ धारक थे, अर्थात् दिगम्बर रहते थे। और ध्यान अध्ययन के इन गाथाओंसे स्पष्ट है कि उस समय कुछ साधु साथ अंग पूर्वादिका पाठ करते थे। वस्तुतत्वके अवधारणमें ऐसे भी पाये जाते थे, जिनका प्राचार स्वच्छन्द था-वे समर्थ थे। जिस तरह गिरिराज सुमेरु कल्पान्त कालकी गुरु-परम्पराकी प्राचीन
गरु-परम्पराकी प्राचीन परिपाटीमें चलना नहीं चाहते थे। वायुसे भी नहीं चलता। उसी तरह वे योगीगण भी किन्तु विवेक शून्य होकर स्वच्छन्द एवं अनर्गल सूत्र ध्यानसे विचलित नहीं होते थे। इस अनगार भावना विरुद्ध प्रवृत्तिको अहितकर होते हुए भी हितकर समझते थे। अधिकारकी १२० वी गाथान उस समयके साधुओंके जो
शील गुणाधिकारमें कुल २६ गाथाएं हैं जिनमें शीलपर्याय नाम दिये हैं वे इस प्रकार हैं:
स्वरूपका वर्णन करते हुए शीलके मूलोत्तर भेदोंका वर्णन समणोत्ति संजदोत्ति य रिसि मुणि साधुत्ति वीदरागोत्ति।'
किया है। जिनका प्राचारके साथ गहरा सम्बन्ध है।
२३ 'पर्याप्ति' नामक अधिकारमें पर्याप्ति और णामाणि सुविहिदाणं अणगार भदंत दंतोत्ति ।।१२०। प्रहणी-सिद्धान्तार्थ प्रतिपादक सूत्रों-का ग्रहण किया
यह सब कथन ग्रन्थकी प्राचीनताका ही द्योतक है। गया है। जिनमें पर्याप्ति, देह, संस्थान, काय-इंद्रिय,
समयसार नामका अधिकार भी अत्यन्त व्यवस्थित योनि, पाऊ, प्रमाण, योग, वेद, लेश्या, प्रवीचार, उपपाद और सूत्रात्मक है। समयसारका अर्थ टीकाकार वसुनन्दीने उद्वर्तन, स्थान कुल, अल्पबहुत्व और प्रकृति स्थिति-अनु'द्वादशांगचतुर्दशपूर्वाणां सारं परमतत्त्वं मूलोत्तरगुणा- भाग और प्रदेशबंधरूप सूत्र-पदोंका विवेचन किया है। नां च दर्शनज्ञानचारित्राणां शुद्धिविधानस्य च भिक्षा- इस अधिकारमें कुल २०६ गाथाए पाई जाती हैं। जिनमें शुद्धश्च सारभूतं किया है। जिससे यह स्पष्ट जाना जाता उक्त विषयों पर विवेचन किया गया है। है कि इस अधिकारमें द्वादशांग वाणीका सार खींच कर इस अधिकारमें चर्चित गति-प्रागतिका कथन साररक्खा गया है। इसी अधिकारमें आचारांगसे सम्बन्धित समय अर्थात् ब्याख्या प्रज्ञप्तिमें कहा गया है। व्याख्या
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