Book Title: Anekant 1954 04
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Jugalkishor Mukhtar

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Page 35
________________ ३४०] अनेकान्त [किरण ११ रखते हैं। सभी तांत्रिक, पौराणिक और जैनसाहित्यमें "इन विभक्त देवोंमें वह कौनसा देवाधिदेव है जो इनकी मान्यता सुरक्षित है। भारतीय अनुश्रति-अनुसार सबसे पहले पैदा हुआ. जो सब भूतोंका पति है, जो द्य ये मृत्युको हिलानेवाले घोर तपस्वी ग्यारह महायोगियोंके और पृथ्वीका माधार है, जो जीवन और मृत्युका मालिक नाम हैं। महाभारतमें इनके नाम निम्न प्रकार बतलाए है, इनमेंसे हम किसके लिये हवि प्रदान करें३ ?" गए हैं-१ मृगव्याध, २ सर्प, ३ निऋति, ४ अजैकपाद्, “जिस समय अस्थिरहित प्रकृतिमे अस्थियुक्त संसारको महिर्बुध्न्य पिनाकी. . दहन, ८ ईश्वर, कपाली धारण किया, उस समय प्रथम उत्पन्नको किसने देखा था। ' १० स्थाणु, ११ भग। इसमेंसे अजैकपाद, अहिन्य, मान लो पृथ्वीसे प्राण और रक्त उत्पन्न हुए परन्तु प्रारमा भग, स्थाणु आदि कई रुद्रोंका उपरोक्त नामोंसे ऋग्वेदके कहाँ से पैदा हुआ । इस रहस्यके जानकारके पास कौन कितने ही सूत्रों में बखान किया गया है। ये देवता प्राय- इस विषयकी जिज्ञासा लेकर गया था?" जनने इलावर्त और सप्तसिन्धु देश में प्रवेश होनेके साथ ही इस उठती हुई शंका लहरीने इन्द्र को भी अछूता न साथ वहाँ के निवासी यक्ष और गन्धर्व जातियोंसे ग्रहण छोड़ा। होते-होते वैदिक ऋषि अपने उस महान् देवता इंद्र किये हैं। इस तरह यद्यपि भारत • प्रवेशके साथ इनके के प्रति भी सशंक हो उठे। जो सदा देवासुर. और देवता-मण्डल में 'प्रास्मा' नामके देवताका समावेश जरूर आर्य-दम्यसंग्रामोंमें आर्यगणका अग्रणी नायक बना हो गया, पर अभी प्रात्मीय वस्तु न होकर देवता ही रहा। जिसने वृत्रको मारकर सप्तसिन्धु देश आर्य-जनके बना रहा। इस 'श्रात्मा' देवताको प्रात्मीय तत्व में प्रवृत्त करो ीय तत्त्वमे प्रवृत्त वसने के लिये युद्ध कराया, जिसने दस्युओंका विध्वंस करके करने में प्रार्यजनको बहुत-सी मंजिलों से निकलना पड़ा है। उनके दुर्ग, नगर, धन, सम्पत्ति, आर्यजनमें वितरण की, जो अपने उक्त पराक्रमके कारण महाराजा, महेन्द्र, विश्वबहुदेवतावादका ह्रास कर्मा आदि नामोंसे विख्यात हुआ। इस बढती हुई संख्याके साथ ही साथ देवतावादका एक देवतावादकी स्थापनाहास भी शुरू हो गया और यह एक स्वाभाविक प्रवृत्ति यह प्रश्नावली निरन्तर उन्हें एक देवतावादकी ओर थी। आखिर बुद्धि इन देवताओंके अव्यवस्थित भारको प्रेरणा दे रही थी। आखिरकार भीतरसे यह घोषणा कब तक सहन करती। जहाँ शिशु-जीवन विस्मयसे प्रेरा सुनाई देने लगीहुमा, सामान्यसे विशेषताकी ओर, एकसे अनेकताकी ओर इन्द्रं वरुणं मित्रंमग्निमाहरथो दिन्यः स सुपर्णो गरुत्मान् । छटपटाता है, वहाँ सन्तुष्टि जाम होने पर प्रौढ़ हृदय बाहुल्यता और विभिन्नतासे हटकर एकता और व्यवस्था एकं सद्विप्रा बहुधा वदन्त्यग्नि यमं मातरिश्वामाह ॥ ॥ऋग-१ १६४-४६ की राह दूढ़ता है। स्वभावतः बुद्धि में किसी एक ऐसे मेधावी लोग जिसे आज तक इन्द्र, मित्र, वरुण, स्थायो, अविनाशी, सर्वव्यापी सत्ताकी तलाश करनी शुरू अग्नि आदि अनेक नामोंसे पुकारते चले माये हैं की जिसमें तमाम देवताओंका समावेश हो सके । शंका ही वह एक अलौकिक सुन्दर पक्षी के समान (स्वतन्त्र) दर्शनशास्त्रको जननी है, इस उक्तिके अनुसार एकताका है। वह अग्नि, यम, मातरिश्वा आदि अनेक रूप नहीं दर्शन होने से पहले इन देवताओंके प्रति ऋषियोंके मन में है । वह तो एक रूप है। इस भावनाके परिपक्व अनेक प्रकारकी शंकाएँ पैदा होना शुरू हुई। होने पर अनेक देवताओंकी जगह यह एक देवता "ये प्राकाशमें घूमनेवाला सप्तऋषिचक्र दिनके समय संसारकी समस्त शक्तियोंका सृष्टा वा संचालक बन गया। कहाँ चला जाता है।" ___ "ध और पृथ्वीमें पहले कौन पैदा हा कौन पोनी (३) कस्म देवाय हविषा विधेम-ऋग १०-१२१. ये किसलिए पैदा हुए. यह बात कौन जानता है (२)" (४) ऋग. 1-1६४-४, (२) ऋग १०८६-१-२-१२-२, (६) इन्द्र के इस विवेचनके लिये देखें 'अनेकान्त' वर्ष" महाभारत पादिपर्व १६,८,३। किरण २ में लेखकका मोहनजोदड़ों कालीन और (1) ऋग् । २४-१०, (२) ऋग १-१८५-१, माधुनिक जैनसंस्कृति "शीर्षक लेख । भी शुरू हुन देवता जीवन और Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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