Book Title: Anekant 1954 04
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Jugalkishor Mukhtar

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Page 18
________________ किरण ११ ] बेचैन शूरमित्र समीप आते ही बोला - चन्द्र! क्यों हो ? कुछ देर तो अवश्य हो गई है। लो; अब जल्दी ही भोजन करो ।" यह कहते-कहते उसने बड़े स्नेहसे अनुज के सामने भोजन सामग्री रख दी । वैभव की शृङ्खलाए अनुजका मन स्नेहके बन्धनमें आने लगा । अपने मानसिक पतन पर रह-रह कर उसे पश्चाताप होने लगा—“ज्येष्ठ भ्राता पिता-तुल्य होता है। कितना नीच हूँ मैं? एक मणिके लिए ज्येष्ठ भ्राताका वध करनेको उद्यत हुआ हूँ ! वाह रे मानव ! क्षुद्र स्वार्थके भीषणतम स्वप्न बनाने लगा ! भ्रातृद्रोही ! तुझे शान्ति न 'मिलेगी । तेरी कलुषित आत्मा जन्म-जन्मान्तर तक भटकती रहेगी । वाह री वैभवकी आग ! अन्तरके स्नेहको जलाने के लिए मैं ही अभागा मिला था तुझे ? अनुज विचारों में खो रहा था और व्येष्ठ उसके मस्तक पर हाथ रखकर सींच रहा था स्नेह । स्नेहकी धारा बहने लगी और बहने लगा उसमें अनुजका विकारी मन | शूरचन्द्र अपने आपको अधिक समय तक न सम्हाल सका, स्नेह से गद्गद् होता हुआ वह, शूरमित्रके चरगों में लोटने लगा । कैसी थी वह आत्मग्लानिकी पीड़ा ? हृदय भीतर ही भीतर छटपटा रहा था। जैसे अन्तर में कोई मुष्टिका प्रहार ही कर रहा हो। अनुज कराह उठा । वह टूटे कण्ठसे बोला- हे ज्येष्ट भ्रात! हे पितातुल्य भ्रात ! लो इस पापी मरिणको । लो इस पतनकी आधार-शलाको । दो हृदयों में दीवार बनाने वाले इस पत्थरको आप ही सम्हालो एक क्षण भी यह भास है ज्येष्ठ ! ज्येष्ठकी आँखोंसे धारा वह रही थी। वह लड़खड़ाते स्वर में बोला- "अनुज ! कैसे रखूँ इसे अपने पास ? सबसे पहले तो पापी मणिने मुझे ही गिराया है मानसिक शुद्धिके मार्गसे। रत्नके दावमें आते ही मैं दानव हो जाता हूँ । तुम इसे रखने में असमर्थ हो, मैं इसे रखने के लिए और भी पहले असमर्थ हूँ । क्या किया जाय इस रत्नका ?" शूरचन्द्र मौन था ! प्राणोंमें कम्पन तीव्र वेगसे उठने लगा । मौन-भंग करते हुए वह बोला - "क्या करना इस पत्थरका ? फेंक दो बेतवाके प्रवाह में । भाई उतार दो इस जघन्यतम अभिशापको ।” इतना सुनते Jain Education International [ ३४५ ही शूरमित्रने वह अमूल्य मरिण बेतवाके प्रवाह में इस प्रकार फेंक दिया जैसे चरवाहोंके बच्चे मध्यान्हमें नदीके तीर पर बैठ कर जलमें तरंगे उठाने के लिए कंकड़ फेंकते हैं । रत्नके जलमें विलीन होते ही दोनोंने सुखकी साँस ली, स्नेहका गढ़ अभेद्य हो गया । अब उसमें लालच जैसे प्रबल शत्रुके प्रवेश के लिए कोई मार्ग अवशेष न था । मार्ग तय हो चुका था । स्नेहसे परिपूर्ण दोनों भाई अपने घर जा पहुंचे । पुत्र-युगलका मुख देखते ही माताकी ममता उमड़ने लगी । बहिनने दौड़ कर उन्हें हृदयसे लगा लिया ! माँ बोली — कैसा समय बीता परदेशमें ? शूरमित्र गम्भीरतापूर्वक बोला - माँ ! परदेश तो परदेश है । सुख दुख सब सहन करने पड़ते हैं । जीवन के हर्ष विषाद सामने आए, प्रलोभन आए । सब पर विजय पाकर दोनों उसी स्नेहसे परिपूर्ण आपके सामने हैं । माता पुत्रोंके विश्राम और भोजनके प्रबन्धके लिए व्याकुल थी । समस्त छोटी-मोटी बातें रात्रिके लिए छोड़ कर वह बाजार गई और रोहित नामक मछली लेकर घर आ पहुंची। पुत्रीने सारा सामान व्यवस्थित कर ही दिया था । उसने ज्यों ही मछली को थोड़ा चीरा ही था कि हाथ सहसा रुक गये, आश्चदिव्य-मरिण ! हाथ में मरिण लेते ही वह सोचने लगीसे 'मुख विस्फारित होकर रह गया। मछलीके पेट में आज वर्षोंके बाद देखा है ऐसा महार्घ मणि । वर्षोंका दारिद्र नष्ट होनेको है क्षण भर में । पुत्रोंको दिखाऊँ क्या ? ॐह क्या दिखाना है पुत्रोंको । कौन किसका है ? बुढ़ापा आया कि सन्तान उपेक्षाकी दृष्टिसे देखने लगी। भोजन, वस्त्र ही नहीं पानी तकको तरसते हैं, वृद्ध माँ-बाप । बहुऐं नाक-भौंह सिकोड़ती हैं, पुत्र घृणा से मुँह फेर लेते हैं। बुढ़ापेका सहारा मिल गया है । क्यों हाथसे जाने दूं ? पर, कैसे भोग सकूँगी इसे ? मार्ग से हटाना होगा पुत्र-पुत्रीके जंजाल को ? क्यों नहीं, रत्नका प्रतिफल तभी तो पूरा मिलेगा, संसार में पुत्रोंसे नहीं, धनसे मान मिलता है। एक बूदन हलाहलका ही तो काम है ।" For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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