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उन्होंने बताया — “महाराज ! लोग जैसा अर्थ करते हैं वास्तव में इस शब्दका वह अर्थ नहीं है । इसका मतलब यह है कि यह राज्य किसी धर्म-सम्प्रदाय विशेषका न होकर समस्त धर्म सम्प्रदायोंका राज्य है ।” वास्तवमें यह ठीक ही है जैसे अभी-अभी स्वामीजी (काशी के मण्डलेश्वर ) ने बताया कि भारतमें एक हजार धर्म और सम्प्रदाय प्रचलित हैं। अगर किसी धर्म या सम्प्रदाय विशेषका राज्य स्थापित किया जाय तो मार्ग सम नहीं रहेगा, प्रत्युत बड़ा विषम व कण्टकाकी बन जायगा । इतने धर्म सम्प्रदायोंमें किसी एक धर्म या सम्प्रदाय विशेष पर यह सेहरा बाँधना अनेक जटिल सम स्याओंसे खाली नहीं है। मेरे विचार से ऐसा होना नहीं चाहिए। धर्मको राज्यके संकीर्ण व परिवर्तनशील फंदमें फंसाना राज्यको भयंकर खतरेके मुँहमें उफैलना और धर्म को गन्दा व सड़ीला बनाना है । विनाश कारक बनाना है । ये दो अलग-अलग धारायें हैं और दोनोंका अलग-अलग अस्तित्व महत्त्व और मार्ग है। इनको मिलाकर एक करना न तो बुद्धिमत्ता ही है और न कल्याणकर ही ।
अनेकान्त
[ किरण १|
कर गई है ये सपने में भी कभी आगे नहीं बढ़ सकते। प्रकार घरपर किसी अभ्यागतका तिरस्कार करना भी इसी सूचक है कि असलियत में धर्म अभी धारमामें उतरा नहीं है। धर्म कभी नहीं सिखाता कि किसीके साथ अनुचित व ि ष्टतापूर्वक व्यवहार किया जाय । वास्तवमें भूतकाल में भारत क जो प्रतिष्ठा थी, जो उसका गौरव था वह इसलिये नहीं ? कि भारत एक धनाढ्य व समृद्धिशाली राज्य था और न व इसलिये ही था कि यहां कुछ विस्मयोत्पादक आविष्कार व शक्तिशाली राजा-महाराजा तथा सम्राट् थे। इसका जो गौर था यह इसलिये था कि यहां करा- कमें धर्म, सदाचार, नीति, न्याय और नियन्त्रणको पावन पुनीत धारा बहती रहती थी। सत्य और ईमानदारी यहांके में कूट-कूटकर भरी हुई अणु थी। तभी बाहरके लोग यहांकी धर्मनीतिका अध्ययन करनेके लिये यहां पर श्रानेको विशेष उत्सुक व लालायित रहते थे । श्राज प्रत्येक भारतीयका यह कर्तव्य है कि वह विचार करे कि हम उस समृद्धिशाली विश्वगुरु भारतकी संतानें अपनी मुख पूंजी संभाले हुए हैं या नहीं। यदि भारतीय लोग ही अपनी
पूजीको भूल देगे तो क्या यह उनके लिये विडम्बनाकी बात नहीं है ? कहते हुए खेद होता है कि यहां पर नित्य नये धर्म व सम्प्रदायोंके पैदा होनेके बावजूद भी न तो भारत की कुछ प्रतिष्ठा ही बढ़ी है और न कुछ गौरव ही ! प्रत्युत सत्य तो यह है कि उल्टी प्रतिष्ठा एवं गौरव घटे हैं। अगर अब भी स्थितिने पल्टा नहीं खाया और यह स्थिति मौजूद रही तो मुझे कहने दीजिये कि धार्मिक व्यक्ति अपनी इज्जत और शान दोनों को गंवा 1
संकता नरहे
यह भी आजका एक सवाल है कि अलग-अलग इतनी अधिक संख्यामें सम्प्रदाय क्यों प्रचलित है ? क्या इन सबको मिलाकर एक नहीं किया जा सकता। मैं मानता हूँ कि ऐसा करना असम्भव तो नहीं है फिर भी जो सदासे अलग-अलग विचारधारा चली रही हैं उन सबको खत्मकर एक कर दिया जाय यह बुद्धि और कल्पनासे कुछ परे जैसी बात है । मैं इस विषय में ऐसा कहा करता हूं कि पारस्परिक विचारभेद मिट जाय। जब यह भी संभव नहीं तो ऐसी परिस्थिति में पारस्परिक जो मनोभेद और आपसी विग्रह हैं उनको तो अवश्य मिटाना ही चाहिये उनको मिटाये बिना धार्मिक संस्कारको क्या तो दें और क्या लें इसका निर्णय कैसे करें ? इसलिये इस विभेदकी दीवार किसी धार्मिक व्यक्तिके लिये इष्ट नहीं । यदि परस्पर मिलकर धार्मिक व्यक्ति कुछ विचार विमर्श हो नहीं कर सकते तो वे कहां कैसे जायें ? वे कहां बैठेंगे, हम कहां बैठेंगे। यदि हम लोग ऐसी ही तुच्छ व संकीर्ण बातों में उलते रहे तो मैं कहूंगा ऐसे संकीर्ण धार्मिक व्यक्ति धर्मकी उन्नतिके बदले धर्मकी अवनति ही करनेवाले हैं और वे धर्मके मौलिक तथ्यसे श्रभी कोसों दूर । जिन धार्मिक व्यक्तियोंमें संकीता व असहिष्णुता घर
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धम और लौकिक अभ्युदय -
इतने विवेचनके बाद अब मुझे यह बताना है कि वास्तवमें धर्म है क्या ? इसके लिये मैं आपको बहुत थोड़े और सरल शब्दों में बताऊँ तो धर्मकी परिभाषा इस प्रकार की जा सकती है कि जो 'श्रात्मशुद्धि के साधन हैं उन्हींका नाम धर्म है।' इस पर प्रतिप्रश्न उठाया जा सकता है कि फिर लौकिक अभ्युदयकी सिद्धि के साधन क्या है ? जबकि धर्मकी परिभाषा में कहीं-कहीं सीकिक अभ्युदयके साधनों को भी धर्म बताया गया है। मेरी दृष्टिमें लौकिक अभ्युदयका साधन धर्म नहीं है वह तो धर्मका आनुषंगिक फल है। क्योंकि लौकिक अभ्युदय उसीको माना गया है जो आत्मातिरिक्त सामग्रियोंका विकास व प्रापण होता है। गहराई से सोचा जाय तो धर्मकी
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