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किरण ११]
इसके लिये कोई स्वतन्त्र आवश्यकता है ही नहीं। जिस प्रकार गेहूं की खेती करनेसे तूड़ी-भूसा आदि गेहूं के साथ-साथ अपने-आप पैदा हो जाती हैं उनके लिये अलग खेती करनेकी कोई आवश्यकता नहीं होती, इसी प्रकार धर्म तो आत्मशुद्धिके लिये ही किया जाता है' मगर गेहूं के साथ दूरीकी तरह लौकिक अभ्युदय उसके साथ-साथ अपने-आप फलने वाला है। उसके लिये स्वतन्त्र रूपसे धर्म करनेकी कोई आव श्यकता नहीं ।
लौकिक धर्म और पारमार्थिक धर्म
प्राचीन साहित्य धर्म शब्द अनेक अथोंमें प्रयुक्त हुआ है । उस समय धर्म शब्द अत्यन्त लोकप्रिय था । इसलिये जो कुछ अच्छा लगा उसीको धर्म शब्दसे सम्बोधित कर दिया जाता था। इसीलिये सामाजिक कर्तव्य और व्यवस्था नियमों को भी ऋषि महर्षियोंने धर्म कहकर पुकारा। जैन साहित्य में स्वयं भगवान महावीरने सामाजिक कर्तव्योंके दश प्रकारके निरूपण करते हुए उन्हें धर्म शब्दसे अभिहित किया है। उन्होंने बताया है कि जो ग्रामकी मर्यादाएँ व प्रथाएँ हैं उन्हें निभाना ग्राम-धर्म है। इसी प्रकार नगर-धर्म, राष्ट्र-धर्म आदिका विवेचन किया है । यद्यपि तत्त्वतः धर्म वही है। जिसमें आत्मशुद्धि और आत्म-विकास हो मगर तात्कालिक धर्मशब्द की व्यापकताको देखते हुए सामाजिक रस्मों व रीतिरिवाजोंको भी लौकिक धर्म बताया गया है। लौकिक धर्म और पारमार्थिक धर्म सर्वथा पृथक-पृथक हैं। उनका मिश्रण करना दोनोंको ग़लत व कुरूप बनाना है। इनका प्रध इस तरह समझा जा सकता है कि जहां लौकिक धर्म परिवर्तनशील है वहां पारमार्थिक धर्म सर्वदा सर्वत्र अपरिवर्तनशील व घटल है। याज जिसे हम राष्ट्रधर्म व समाजधर्म कहते हैं वे राष्ट्र एवं समाज की परिवर्तित स्थितियोंके अनुसार कल परिवर्तित हो सकते हैं । स्वतन्त्र होनेके पूर्व भारतमें जो राष्ट्रधर्म माना जाता था । आज वह नहीं माना जाता । श्राज भारतका राष्ट्रधर्म बदल गया है मगर इस तरह पारमार्थिक धर्म कभी और कहीं नहीं बदलता । वह जो कल था वही बाज है और जो आज है वही आगे रहेगा । गोर करिये— श्रहिंसा सत्य स्वरूपमय जो पारमार्थिक धर्म है वह कभी किसी भी स्थिति में बदला क्या ? इसी तरह लौकिक धर्म अलग-अलग राष्ट्रों का अलग-अलग है जबकि पारमार्थिक धर्म राष्ट्रोंके लिये एक समान है। इन कारणोंसे यह कहना
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धर्म और राष्ट्र निर्माण
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चाहिये कि लोकिक धर्म और पारमार्थिक धर्म दो हैं और भिन्न-भिन्न हैं। पारमार्थिक धर्मकी गति जब श्रात्म-विकासकी चीर है तब लौकिक धर्मका तांता संसारसे जुड़ा हुआ
राष्ट्र-निर्माण में धर्म
राष्ट्रनिर्माण में धर्म कहां तक सहायक हो सकता है और इसके लिये धर्म कुछ सूत्रोंका प्रतिपादन करता है । वे हैं श्रम स्वतन्त्रता, आत्म-विजय, अदीन भाव आत्मविकास और आत्म-नियन्त्रण इन सूत्रोंका जितना विकास होगा उतना ही राष्ट्र स्वस्थ, उन्नत और विकसित बनेगा इन सूत्रोंका विकास धर्मके परे नहीं है और न धर्म प्रभावमें इन सूत्रोंका सूत्रपात व उन्नयन हो किया जा सकता है। आज जब राष्ट्रमें धर्मके निस्बत भौतिकवादका वातावरण फैला हुआ है तब राष्ट्रमें दुर्गुणों व अवनतिका विकास हो ही हो, तो इसमें कोई आश्चर्यकी बात नहीं। यही कारण है जहां पदके लिये मनुहारें होतीं थीं फिर भी कहा जाता था कि मुझे पद नहीं चाहिये, मैं इसके योग्य नहीं हूं, तुम्हीं संभालो वहां आज कहा जाता है कि पदका हक मेरा है, तुम्हारा नहीं। पदके योग्य मैं हूं, तुम नहीं। पद पानेके लिये सब अपने-अपने अधिकारोंका वर्णन करते हैं मगर यह कोई नहीं कहता कि पदके योग्य या अधिकारी दूसरा अमुक
यह पद लोलुपताका रोग धर्मको न अपनाने और भौतिकवादको जीवनमें स्थान देनेका ही दुष्परिणाम है। एक वह समय था कि जब पदकी लालसा रखनेवालोंको निंद्य, अयोग्य और अनधिकारी समझा जाता था और पद न चाहनेवालोंको प्रशंस्य, योग्य और अधिकारी । सुभटोंका किस्सा इसी तथ्यपर प्रकाश डालता है । "एक बार किसी देशमें ५०० सुभट आये। मन्त्रीने परीक्षा करनेके लिए रात्रि समय सबको एक विशाल हॉल सौंपा और कहा कि तुममेंसे जो बढ़ा हो यह हॉलके बोचमें बिछे पलंग पर सोये तथा अन्य सब नीचे जमीनपर सोयें सोनेका समय आने पर उनमें बड़ा संघर्ष मचा पलंग पर सोनेके लिये वे अपने-अपने हक, योग्यता और अधिकारोंकी दुहाइयां देने लगे । सारी रात बीत गई किन्तु वे एक मिनट भी न सो पाये । सारी रात कुत्तोंकी तरह आपस में लड़ते-झगड़ते रहे । प्रातः काल मंत्रीने उनका किस्सा सुनकर उन्हें उसी समय वहांसे निकाल दिया। दूसरे दिन दूसरे ५०० सुभट श्राये | मंत्रोने उनके लिये भी वही व्यवस्था की । उनके सामने समस्या यह थी
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