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किरण ११ ]
किन्तु कुछ समझ में न आ सका था । धनकी मंदिरा पीते समय कुछ न सोचा। थोड़ी देर में वहीं नशा मुझे भी बेहोश बनाने लगा, जिसका परिणाम ज्येष्ठ भोग चुका था । अन्धकूपमें गिरानेका दृढ़ निश्चय कर लिया । किन्तु स्नेहने विकारी मनको रोक दिया, बाँध दिया ।'बच गया पापके पङ्क में गिरते-गिरते । किंतु माँ ! ज्ञात होता है पापका बीज फिर आगया है इस घर में । मित्रवती द्वारा अर्पित रत्न वही रत्न है, माँ ।
माँ की आकृति पर विषादकी रेखायें गहरी हो चलीं । शूरमित्र बोला — माँ ! अब दुखी होनेसे क्या लाभ ? इस रत्न को अपने पास रखो। माँ ! तुम जन्मदात्री हो, पवित्र हो, गंगा-जलकी भांति । सन्तानके लिए माताके मनमें कल्पना भी नहीं आ सकती, खोटी ।'
वैभवकी शृङ्खल
पुत्रोंकी बात सुन माँका विषाद आँखोंकी राहसे वह निकला । वह भर्रायी हुई ध्वनि में बोली- 'बेटा! वैभवको लालसा बड़ी निष्ठुर है । उसे पानेके लिए माँ भी सन्तानको मारने के लिए कटिबद्ध हो जाय, तो इसमें क्या आश्चयें है ? वैभवकी क्षुधा सर्पिणीकी प्रसव कालीन क्षुधा है जो अपनी सन्तानको निगलने पर ही शान्त होती है । मैंने भी मछलीके पेटको चीरते समय ज्यों ही रत्नं देखा, मित्रवती और तुम दोनोंको मार डालनेके विचार बलवान होने लगे । पर माँकी ममताने विजय पायी और मैंने ही बड़ी ग्लानिसे मित्रवतीको दे दिया था; वह रत्न ।'
मित्रवती बोली- 'माँ ! मैं भी हतबुद्धि हो चली थी रत्न पानेके बाद लालसाने पारीवारिक बन्धन ढीले कर दिये थे । एक विचित्र पागलपन चलने लगा था मस्तिष्क में | सौभाग्य है कि दुर्विचार शांत हो गये हैं ।"
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किसी अदृश्य शक्तिके न्यायालय में चार अपराधी अपना-अपना हृदय खोल कर अचल हो गये थे । चारों ओर स्मशान जैसी भयानक नीरवता थी । पश्चातापकी लपटें सू सू करके पापी हृदयोंका दाहसंस्कार कर रही थीं । एककी ओर देखनेका दूसरे में साहस न था । मस्तक नत थे, वाणी जड़ थी, विवेक गतिमान था ।
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शूरमित्र बोला भारी मनसे - 'माँ ! इस संसारके थपेड़े अब सहन नहीं होते । काम, क्रोध, माया और लालसाका ज्वार उठ रहा है पल पलमें। आत्मा क्षतविक्षत हो रही है, आधारहीन भटक रही है जहाँतहाँ । संसारी सुखोंकी मृग-तृष्णामें कब तक छलू अपने आपको । दूर किसी नीरव प्रदेश से कोई आह्वान कर रहा है। कितना मधुर है वह ध्वनि ? कितना संगीत-मय है वह नाद ? अनादि परम्परा विघटित होना चाहती हैं। देव ! अब सहा नहीं जाता। शरण दो, शान्ति दो ।'
शूरमित्र ही नहीं सारे परिवारका वह करुण चीत्कार था; विकलता थी; विरक्ति थी, जो उन्हें कि अज्ञात पथकी ओर खींच रही थी ।
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धरती पर नृत्य करने लगी है। दो युवा पुत्र, पुत्री प्रभातका समय है । दिनकरकी कोमल किरणें और माता मुनिराजके चरणोंमें नतमस्तक हैं । अरहंत शरणं गच्छामि ! धर्मशरणं गच्छामि !! साधु शरणं गच्छामि !!! की ध्वनिसे दिग्-दिगन्त व्याप्त है । वैभवकी श्रृङ्खलायें, जो मानवको पापमें जकड़ देती हैं, खण्ड खण्ड हो गई हैं । उदय-कालीन सूर्यकी रश्मियाँ पल-पल पर उनका अभिषेक कर रही है। आज उनकी आत्मामें अनन्त शान्ति है ।
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