Book Title: Anekant 1954 04
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Jugalkishor Mukhtar

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Page 13
________________ किरण ११] आर्य और द्रबिड़के सस्कृति सम्मेलन उपक्रम [३३६ के लगभग सरकारी पुरातत्व विमाग द्वारा प्रकाश में उपायों द्वारा मनीषिजन इन देवताओंके नाम उच्चारणके पाये हैं। .भारसे बचने का प्रयत्न कर रहे थे। बहुदेवतावादका उदय ये सभी देवता एक समय ही दृष्टिमें न भाये थे. ये विभिन्न युगोंकी पैदावार थे। शुरू शुरूमें ये सभी देवता ज्यों-ज्या वैदिक ऋषियोंका अनुभव बढ़ा और उनपर अपने-अपने क्षेत्र में एक दूसरेसे बिल्कुल स्वतन्त्र, बिल्कुल नीचे, दायें-बायें लोककी विभिन्न शक्तियां उनके अवलो स्वच्छन्द महाशक्तिशाली माने जाते रहे । अपने अपने कनमें भाई, स्यों स्यों इनके अधिनायक देवताओंकी संख्या विशेष क्षेत्र में प्रत्येक देवता सभी अन्य देवताओंका शासक बढ़ती चली गई। आखिर यह संख्या क्रम प्रायस्त्रिंश अर्थात् बना था। पीछेसे एक जगह सम्मिश्रण होने पर इसमें तारतैंतीस तक पहुंच गई। । ऋग्वेदकी ३.६ ६ की अति अनु तम्यता, मुख्यता व गौणताका भाव पैदा होने लगा। सार तो यह संख्या ३३३६ तक भी पहुँच गई थी। इन इनकी शुरू शुरू वाली स्वच्छन्दताकी विशेषता एक ऐसी ३३ देवों में पाठ वसु (१ अग्नि, २ पृथ्वी, ३ वायु, ४ विशेषता है जो न बहुईश्वरवादसे सूचित की जा सकती है अन्तरिक्ष आदित्य, ६ द्यौ, चन्द्रमा, ८ नक्षत्र )२ और न एकेश्वरवादसे । प्रो० मेक्समूलरने इसके लिये एक ग्यारह रुद्र दश प्राण और एक आत्मा३ । द्वादश भादस्य नई संज्ञा प्रस्तुत की है Henotheism अर्थात् बारी(द्वादश मास)४ एक इन्द्र, एक प्रजापति, सम्मिलित बारीसे विभिन्न देवोंकी सर्वोच्च प्रधानता, यह बात तो माने जाने लगे थे । इन देवताओं की संख्या बढ़ती-बढ़ती सहज मनोविज्ञानकी है कि कोई मनुष्य एक साथ अनेक इतनी बोमल हो गई कि इन्हें समझने और समझानेके देवताओंको एक समान सर्वोच्च प्रधान होनेकी कल्पना लिये विद्वानोंने इन्हें लोककी अपेक्षा तीन श्रेणियों में नहीं करता, वह एक समयमें एकको ही प्रधानता देता है। विभक्त करना शुरू किया। द्य स्थानीय, अन्तरिक्ष-स्थानीय ऋग्वेदमें जो हम सभी देवताओंको बारी-बारीसे सर्वप्रधान और पृथ्वी-स्थानीय६ । इन श्रीणिबद्ध देवताओंमें भी हुश्रा देखते हैं उसका स्पष्ट तथ्य यही है कि ये सभी च लोकका सूर्य, अन्तरिक्ष लोकका वायु और पृथ्वीलोककी देवता एक ही जाति और एक ही युगकी कल्पना नहीं अग्नि मुख्य देवता माने जाने लगे, परन्तु इनमें भी देवा है बल्कि ये भौगोलिक और सांस्कृतिक परिस्थिति अनुसार सुर अथवा प्रार्यदम्यु संग्रामों में अधिक सहायक होनेके विभिन्न जातियों और विभिन्न युगोंकी कल्पना पर प्राधाकारण वैदिक आर्योन जो महत्ता इन्द्रको प्रदान की वह रित हैं ! इसलिए ये अपने-अपने वर्ण, युग और क्षेत्र में अन्य देवताओंको हासिल न हई । जब इन देवताओंकी प्रधानताका स्थान धारण करते रहे हैं। इन सबका उद्गम । पृथक् पृथक् स्तुति और यज्ञ अनुष्ठान करना, मनुष्यकी इतिहास एक दूसरेसे पृथक् है और उन सूक्तोंसे बहुत पुराना शक्तिसे बाहरका काम हो गया। तब एक ही स्थानमें है, जिनमें इनका स्तुति गान, किया गया है। इन प्रायविश्वदेवाके उच्चारण द्वारा सबहोका ग्रहण किये जाने स्त्रिंश देवताओं में सबसे आखिरी दाखला उन देवोंका है जो लगा७ । इन उपरोक्त बातोंसे पता लगता है कि किन-किन रुद्र संज्ञासे सम्बोधित किए गए हैं। इनमें पुरुषके दश (1) ऋग्वेद ३.६-६, (२) शतपथ ब्राह्मण ११ ६.३.६ प्राण और एक पारमा शामिल है। शतपथ ब्राह्मणकारने बह-उप ३-१.३, (३) शतपथ ब्राह्मण १४-७-५, शतपथ रुद्रशब्दकी व्युत्पत्ति बताते हुए कहा है-कतमे रुद्रा इति? मा० ११-६ ३-७, वृह. उप. ३-६-४ छा. उप. ३.१५-३ दश इमे प्राणा, प्रास्मा एकादश, ते यदा अस्मात् शरीरात् (४) वृह. उप. ३.१-५, (२) श.प्रा. ४.५७ २, (६) मान् उत्क्रान्ति अथ रोदयन्ति तस्मात् रुद्रा इति ।' (अ) ऋग्वेद १-१३६-११, (आ) भास्कराचार्यकृत निरुक्त (शतपथ ब्रा० ११-६-३-७ व श.प्रा.१४-७-५। २., (ड) शौनक-सर्वानुक्रमणी २ अर्थात् रुद्र कौनसे हैं ये दश प्राण, और ग्यारहवाँ (७) ऋग्वेद १-८8 में 'विश्वदेवा' के नामसे सबकी इकट्ठी प्रास्मा, चूंक मृतक शरीरसे ये निकलकर चले जाते हैं स्तुति की गई है। एते वै सर्वे देवा यद्विश्वे देवाः, कौशन- और दुनियावालोको रुलाते हैं, इसलिए ये रुद्र कहलाते हैं। की मा०-१४-५-३ । विश्वे देवाः यत सर्वे देवाः, गोपथ रुद्रदेवता यक्ष-जन व दस्युजनके पुराने देवता है मा० उत्तराई १२.। और भारतीय योगसाधनाकी संस्कृतिसे घनिष्ठ सम्बन्ध Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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