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प्रगतिका फल न थी, बल्कि यह भारतकी द्रविड़ संस्कृतिका ही उसे एक अमर देन थी। यही कारण है कि श्रार्यजातिकी अन्य हिन्दी यूरोपीय शाखाएँ जो यूरोपके अन्य देशोंमें जाकर बाद हुई, वे भारतकी दस्युसंस्कृतिका सम्पर्क न मिलने के कारण अध्यात्मिक वैभवमे सदा वंचित ही बनी रही । ईसा पूर्व की छठी सदीसे यूनान देशकी सभ्यता और साहित्य में जो आध्यात्मिक फुट नजर आती है और वहाँ पथ्यगीरस, डायोजिनीस, प्रोटाभोरण, जैना, पलेटो, सुक रात, जैसे अध्यात्मवादी महा दार्शनिक दिखाई पड़ते हैं, उनका एकमध्ये आत्मविद्याके अमरदूत भारतीय संतोंको ही है, जो समय समय पर विशेषतया बुद्ध और महावीरकाल में तथा उनके पीछे अशोक और सम्प्रतिकाल में यूनान, ईराक, सिरिया, फिलिस्तीन, इथोपिया, आदि देशोंमें देशना और धर्मप्रवर्तना के लिए जाते रहे हैं। उन्हीं की दी हुई यह विद्या यूनानसे होती हुई रोमकी और प्रसारित हुई है । परन्तु इस सम्बन्ध में यह बात याद रखने योग्य है कि यद्यपि भारतीय सन्तोंके परिभ्रमण और देशनाके कारण यूनान में आध्यात्मिक विचारोंका उत्कर्ष जरूर हुआ। परन्तु अध्यात्मिक संस्कृतिकी सजीव धाराले अलग रहने के कारण, ये वहाँ फलोभूत न हो सके । वहाँ के लोग
आज जगतके मदिरालयमें, बना मद्यपी पागल मानव आत्मज्ञानसे शून्य हो चला परके दुःखका ज्ञान न करण भर मुख पर तो देवत्व झलकता अन्तर दानवता छाई वचनों में आडम्बर कितना तदनुसार आचार नहीं है ।
देख रहा हूँ युग परिवर्तन,
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युग परिवर्त्तन
श्री मनु 'ज्ञानार्थी' साहित्यरत्न, प्रभाकर देख रहा हूँ युग परिवर्त्तन, यहाँ कहाँ पर स्वार्थ नहीं है ?
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किरण ११
इन्हें विदेशी और अपनी परम्परा विरुद्ध समझकर सदा इनका विरोध करते रहे और इन दार्शनिकोंको देवता-द्रोह और अत्याचारका अपराधी ठहरा। इन्हें या तो कारावास में डाल दिया या इन्हें देश छोड़ने पर बाध्य किया । चुनांचे हम देखते हैं कि डायोजिनीस ( ५०० ई० पूर्व ) और प्रोटोगोरस ( ४६० ई० पूर्व) को एथेन्स नगर छोड़ कर विदेश जाना पड़ा और सुकरात ( ४०० ई० पूर्व ) को विष भरा जाम पी अपने प्राणोंसे विदा लेनी पड़ी । इस अध्यात्मविद्या के साथ जो दुर्व्यवहार उक्त कालमें यूनान निवासियोंने किया वही दुर्व्यवहार श्राजले लगभग २००० वर्ष पूर्व फिलिस्तीन निवासी यहूदियोंने प्रभु ईसाकी जान लेकर किया। उन यूनानी दार्शनिकोंके समान प्रभु ईसा पर भारतीय सन्तोंके त्यागी जीवन और उनके उच्च श्रध्यात्मिक विचारोंका गहरा प्रभाव पड़ा था। भारत यात्रा से लौटने पर जब उसने अपने देशवासियों में जीवकी अमरता आत्म-परमात्माकी एकता, श्रहिंसा संयम, तप, त्याग, प्रायश्चित्त आदि शोध मार्गका प्रचार करना शुरू किया तो उस पर ईश्वर-द्रोह और भ्रष्टाचारका अपराध लगा फांसी पर टांग दिया गया।
यहाँ कहाँ पर स्वार्थ नहीं है ?
अपना अहम् बनाये रखना; परका लघु अस्तित्व मिटाना, अपना जीवन हो चिर सुखमय; परके जीवन पर छा जाना, इसी अमूकी मृग-तृष्णामें; छलकी चिर- सचित छलनामें; उलझ रहा है पागल मानव अपने पनका भान नहीं है ।
देख रहा हूँ युग-परिवत्तन,
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यहाँ कहाँ पर स्वार्थ नहीं है ?
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