Book Title: Anekant 1954 04
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Jugalkishor Mukhtar

View full book text
Previous | Next

Page 11
________________ किरण ११] आर्य और द्रविड़के संस्कृति सम्मेलन उपक्रम [३३७ अभ्युदयके लिये स्यागी, भिक्षाचारी श्रोर अरण्यवासी वैदिक आर्योका आदि धर्मबन चुके थे, वे तपस्या द्वारा अहन्, जिन, शिव, ईश्वर, पंजाबमें बसने वाले पार्यगण अपनी फारसी शाखाके परमेष्ठोरूप जीवनके उच्चतम प्रादर्शकी सिद्धि पा स्वयं समान ही जो फारस (ईरान ) में प्राबाद हो गई थी, सिद्ध बन चुके थे। अरण्यों में इन सिद्धपुरुष के बैठनेके प्राधिदैविक संस्कृतिके मानने वाले थे । वे मानव चेतनाकी स्थान जो निषद, निषोदि, निषधा, निषीदिका नामोंसे उस शैशवदशासे अभी ऊपर न उठे थे, जब मनुष्य सम्बोधित होते थे, भारतीय जनके लिए शिक्षा दीक्षा, स्वाभाविक पसन्दके कारण रंगविरंगी चमत्कारिक चीजोंशोध-चिंतन, आराधना उपासनाके केन्द्र बने हुए थे । इन को देख पाश्चर्य-विभोर हो उठता है, जब वह बाह्यनिषदों परसे प्राप्त होनेके कारण ही प्रार्यजनने पीछे से तत्वोंके साथ दबकर उन्हें अपने खेल-कूद प्रामोद-प्रमोदका तो अध्यात्मविद्याको 'उपनिषद्' शब्दसं कहना शुरू किया साधन बनाता है उनके भोग उपभोगमें वहता हुआ था। ये स्थान प्राजकल जैन लोगोंमें निशिया वा निशि गायन और नृत्यके लिए प्रस्तुत होता है। जब वह अपनी नामोंसे प्रसिद्ध हैं और इन स्थान को यात्रा करना एक लघुता व बेवसी प्राकृति शक्तियोंकी व्यापकता और पुण्य कार्य समझा जाता है। उनकी इस जीवन-झांकीसे स्वच्छन्दताको देख कर दुःखदर्द और कठिनाई के समय यहाँ पर यही अनुमान किया जा सकता है कि ऐहिक उनमें देवता बुद्धि धारण करता है, उनके सामने नतमस्तक वैभव और दुनियावी भोग विलास वाले शैशव कालसे हो उनसे सहायतार्थ प्रार्थना करने पर उतारू होता है। उठ कर त्याग और सन्तोषके प्रौढ़ जीवन तक पहुँचते थे, इस दशामें सर्वव्यापक ऊँचा आकाश और उसमें रहने उन्हें क्या कुछ समय न लगा होगा। प्रवृत्ति मार्गस वाले सूर्य, चन्द्र, नक्षत्र, तारागण तथा नियमबद्ध घूमने निवृत्तिकी ओर मोब खानेसे पहले इन लोगोंने ऐहिक वाला ऋतुचक्र, अन्तरिक्ष. लोक और उसमें बसने वाले वैभवके सृजन, प्रसार और विलासमें काफी समय बिताया मेघ, पर्जन्य, विद्युत प्रभंजा, वायु, तथा पृथ्वीलोक, और होगा। बहुत कुछ देवी-देवता अर्चन धर्म पुरुषार्थ अथवा उस पर टिके हुये समुद्र, पर्वत, क्षितिज, उषा भादि सभी अर्थ काम पुरुषार्थ अथवा वशीकरण यन्त्र-मन्त्रोंके करने सुन्दर और चमत्कारिक तत्त्व जीवनमें जिज्ञासा, प्रोज, पर भी जब उनको मनोरथकी प्राप्ति न हई होगी. तब ही स्फूर्ति और विकास करने वाले होते हैं, इसीलिए हम ही तो वे इनको दृष्टिमें मिथ्या और निस्सार जचे होंगे । देखते हैं कि शुरू-शुरूमें वैदिक आर्यगण अपनी अन्य इस लम्बे जीवन प्रयोग पर ध्यान देनेसे यह अनुमान __फारसी और हिन्दी योरोपीय शाखाओंकी तरह च स् होता है कि भारतीय संस्कृतिका प्रारम्भिक काल बैदिक (आकाश वरुण (अाका राका व्यापक देवता) मित्र आर्यजनके आगमनसे कमसे कम १००० वर्ष पूर्व अथात् (श्रासमानी प्रकाश ) सूर्य, महत (अन्तरिक्ष में विचरने ५००० ईसा पूर्वका जरूर होगा । इस अनुमानकी पुष्टि वाला वायु) अग्नि, उषा, अश्विन् (प्रात और सन्ध्या भारतीय अनुश्रुतिसे भी होती है कि सतयुगका धम तप समयकी प्रभा) आदि देवताओंके उपासक थे २।। था, और त्रेता युगमें यज्ञोंका विधान रहा, और द्वापरमें इस सम्बन्धमें यह बात याद रखने योग्य है कि यज्ञोंका हास होना शुरू हो गया। भारतीय ज्योतिष गण शैशवकालमें मनुष्यकी मान्यता बाहरी और प्राधिदैविक नाके अनुसार सतयुगका परिमाण ४८००.३ताका ३६००, क्यों न हो उसके साथ उसकी कामनाओं और वेदनाओंकी द्वापरका २४०. और कलिका १२०० वर्ष है। यदि वैदिक अनुभूतियोंका घनिष्ठ सम्बन्ध बना रहता है। और यह आर्यजन त्रेतायुगके मध्य में भारतमें पाये हुए माने जाय स्वाभाविक भी है, क्योंकि जगत् और तत्सम्बन्धि बातोंऔर त्रेताका मध्यकाल ३००० ईस्वी पूर्व माना जाय तो को जाननेके लिए मनुष्यके पास अपने अनुभूतिके सिवाय द्वाविद संस्कृतिका प्रारम्भिक काल उससे कई हजार वर्ष पूर्वका होना सिद्ध होता है। (२) (A) S. Radha Krishnan-Indian philosophy Vol. one-chapter first. (१) मनुस्मृति १.८६, महाभारत शान्तिपर्व अध्याय २३१, (B) Prof. A Macdonell-Vedic My२१-२६ । मुण्डक उपनिषद्-१-२-१ thology VI. 2 and 3 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36