Book Title: Anekant 1954 04
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Jugalkishor Mukhtar

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Page 9
________________ किरण ११] आये और द्रविड़ संस्कृति के सम्मेलन का उपक्रम [३३५ माणिकचन्द्र ग्रन्थमालासे प्रकाशित मूलाचारके अन्तमें जो होती है कि पं० परमानन्दजीको अब अपने उस पूर्व कथनपुष्पिका पाई जाती है उसमें भी मूलाचारको कुदकुदाचार्य का आग्रह नहीं है, वे कुछ पहलेसे ही मूलाचारको एक प्रणीत लिखा है। वह पुष्पिका इस प्रकार है:- अति प्राचीन मौलिक ग्रन्थ समझने लगे हैं। 'इति मूलाचारविवृतौ द्वादशोऽध्यायः । कुन्दकुन्दाचार्य- पाँचवे श्रतकेवली श्रा. भद्रबाहु के समयमें होने वाले प्रणीतमूलाचाराख्यविवृत्तिः। कृतिरियं वसुनन्दिनः श्रीश्रम- दुर्भिक्षसे जो संघभेद हो गया और इधर रहने वाले णस्य ।' इससे भी उक्त कथनकी पुष्टि होती है। साधुओंके प्राचार-विचारमें जो शिथिलता आई, श्रा० कुन्दकुन्दके समयसार, प्र.चनसारादि ग्रन्थोंके उसे देखकर ही मानों प्रा० कुन्दकुन्दने साधुओंके साथ मूलाचारका कितना सादृश्य है, यह पृथक् लेख द्वारा प्राचार-प्रतिपादक मूल प्राचारांगका उद्धार कर प्रस्तुत प्रगट किया जायगा । यहाँ पर इस समय इतना ही कहना ग्रन्थकी रचना की, इसी कारणसे इस ग्रन्थका है कि मूलाचारको सामने रखकर कुन्दकुन्दके अन्य ग्रन्थोंका नाम मूलाचार पड़ा और तदनुसार साधु-संघका प्रवर्तन गहरा अभ्यास करने वाले पाठकोंसे यह अविदित नहीं करानेसे उनके संघका नाम भी मलसंघ प्रचलित हुश्रा, ये रहेगा कि मूलाचारके कर्ता प्रा. कुन्दकुन्द ही हैं। ऐसी दोनों ही बातें 'वट्टकेराइरिय' नामके भीतर छिपी हुई हैं हालत में प्रज्ञाचतु पं० सुखलालजीका या पं० परमानंदजी और इस प्रकार हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि मलाशास्त्रीका कथन कितना सार-गर्भित है, यह सहज ही जाना चार अति प्राचीन मौलिक ग्रन्थ है और उसके रचयिता जा सकता है। यहाँ पर मुझे यह प्रकट करते हुए प्रसन्नता एनाचार्य नाम से प्रख्यात श्रा० कुन्दकुन्द ही हैं। आर्य और द्रविड़ संस्कृतिके सम्मेलनका उपक्रम (बाबू जयभगवानजी एडवोकेट) द्रविड़ संस्कृतिकी रूप रेखा एशियायी पुरातत्त्व व सिन्ध और पंजाबके मोहनजोदड़ों . भारतको हिन्दू संस्कृति दो मुख्य संस्कृतियोंके सम्मे- तथा हड़प्पा नगरोंकी खुदाईसे प्राप्त वस्तुओंसे यह बात तो लनसे बनी है, इनमेंसे एक वैदिक मार्यों को प्राधिदैविक सर्व सम्मत ही है कि वैदिक प्रार्यगण न संस्कृति और दूसरी द्राविड़ लोगोंकी आध्यात्मिक संस्कृति। मध्य एशियाके देशों से होते हुए त्रेतायुगकी प्रादिमें परन्तु वास्तवमें यदि देखा जाय तो हिंदू संस्कृतिका अधि- लगभग ३००० ई. पूर्वमें इलावर्त और उत्तरपच्छिमके · · कांश भाग बारहसे चौदह पाने तक सब अनार्य है । भार- द्वारसे पंजाब में पाये थे। उस समय पहलेसे ही द्राविक तीयाका खान-पान (चावल, भात, दाल, सत्त.. , लोग गान्धारसे विदेह तक; और पंचालसे दक्षिणके मयदेश घी, गुड, शक्कर आदि) वेषभूषा (धोती, चादर, पगड़ी) तक अनेक जातियों में बटे हुए अनेक जनपदोंमें बसे हुए थे, रहन-सहन, (ग्राम, नगर. दुर्ग, पत्तन) आचार व्यवहार और सभ्यतामें काफी बढ़े चढ़े थे। ये दुर्ग ग्राम, पुर और (अहिंसात्मक-सभीके अधिकारों और सुभीतामोंका नगर बनाकर एक सुव्यवस्थित राष्ट्रका जीवन व्यतीत . आदर करना), जीवन आदर्श-(मुक्तिकी खोज), श्रारा- करते थे। ये वास्तुकलामें बड़े प्रवीण थे। ये भूमि खोदध्यदेव (स्यागी, तपस्वी सिद्ध पुरुष ) धर्म मार्ग-(दया, कर बड़े सुन्दर कूप, तालाब, बावड़ी, भवन और प्रासाद दान, दमन, व्रत, उपवास) पूजा-भक्ति तीर्थ गमन भादि बनाना जानते थे२ । इनके नगर और दुर्ग ईंट, पत्थर और सभी बातें द्रविद संस्कृति के सांचे में ढली हैं। चूने के बने हुए थे। इनके कितने ही दुर्ग लोहा, सोना भारतीय व वैदिक साहित्यके अनुशोजनसे तथा लघु डा. सुनीतिकुमारचटर्जीका लेख 'कृष्ण पायन 1. (अ) भनेकान्त वर्ष किरण ४-५-लेखक द्वारा व्यास और कृष्ण वासुदेव ।' लिखित 'भारतकी अहिंसा संस्कृति' शीर्षक लेख। २.(श्र)"रज्जुरिव हि सर्पाःकृपा इव हि सर्पाणामायतनानि (भा) बंगाल रायल एशियाटिक सोसाइटीकी पत्रिका मस्ति वै मनुष्याणां च सर्पाणां च विभ्रातृम्यम्"। भाग संख्या 1 वर्ष ई० १६५० में प्रकाशित शत. ब्रा०४-४.५-३ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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