Book Title: Anekant 1954 04
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Jugalkishor Mukhtar

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Page 10
________________ ३३६ ] और चाँदीसे युक्त थे। कृषि पशु पालन, वाणिज्य व्या पार और शिल्पकला इनके मुख्य व्यवसाय थे । ये जहाज चलाने की कला में दक्ष थे । ये जहाजों द्वारा समुद्री मार्ग से लघु एशिया तथा उत्तर पूर्वीय अफ्रीका के दूरवर्ती देशोंके साथ व्यापार करते थे१ | अनेकान्त इन्होंने अपने उच्च नैतिक जीवनसे उक्त देशोंके लोगों को काफी प्रभावित किया था और उन्हें अपने बहुत धार्मिक श्राख्यान बतलाये थे । उनमें अपनी श्राध्यात्मिक संस्कृतिका प्रसार भी किया था। उक्त देशों में जन्मने वाले सभी सुमेरी और श्रासुरी सभ्यताओं में जो सृष्टि-प्रलय और सृष्टि पूर्व व्यवस्था सम्बन्धी मृत्यु तम अपवाद पुरुष धारमा असुर-धारय प्रजापति- हिरण्यगर्भवाद. विसृष्टिइथ्श, तपनादिके भ्राण्यान (Mythes) प्रचलित है, वे इन दस्युलोगोंकी ही देन हैं। वे इनके मृत्यु व श्रज्ञानतम श्राच्छादित संसारसागर वाद, संसार-विच्छेदक आदिपुरुष जन्मवाद, ज्ञानात्मक सृष्टिवाद, त्याग तपस्या ध्यान विलीनता द्वारा संसारका प्रलयवाद अन्य अध्यात्मिक आख्यानोंके ही आधिदैविक रूपान्तर हैं; ये श्राख्यान लघु एशिया से चलकर आनेवाले आर्य उनके वैदिक साहित्य में वो काफी भरे हुए हैं; परन्तु मध्यसागर के निकटवर्ती देशों में पीछे से यहूदी, ईसाई, इसलाम आदि जितने भी धर्मोंका विकास हुआ है, उन सभीमें अपने अपने ग्रन्थोंमें उक्त क्यानोंका अतिरूपसे बखान किया है। चूँकि ये सभी आख्यान आध्यात्मिक है और आध्यात्मिक व्याख्याही वे सार्थक ठहरते हैं ! इसलिये आध्यात्मिक परम्परासे विलग हो जाने के कारण जब इनका अर्थ अन्य उक्त देश वालोंने आधिदैविक रीति करना चाहा तो वे सभी विचारकोंके लिये जटिल समस्या बन गये और आज भी थे ईश्वर वादी विचारकोंके लिये एक गहन समस्या हैं। ❤ 1 ये द्रविड़ खोग सर्प चिन्हका टोटका (Totem ) अधिक प्रयोग में लानेके कारण नाग, श्रहि, सर्प आदि नामोंसे विख्यात थे। वाणिज्य व्यापार में कुशल होनेके कारण पाय (वणिक) कहलाते थे । श्यामवर्ण होनेके ये (1) [अ] विशेष वनके लिये देखें अनेकान्त वर्ष 11 किरण २ में प्रकाशित लेखकका "मोहनजोदड़ो काखीन और आधुनिक जैन संस्कृति" शीर्षक लेख Jain Education International [ किरा ११ कारण ये कृष्ण भी कहलाते थे२ । अपनी बौद्धिक प्रतिभा और उच्च आचार-विचारके कारण ये अपनेको दास व दस्यु (चमकदार) नामोंसे पुकारते थे। व्रतधारी व संयमी होने तथा वृत्रके उपासक होनेके कारण ये व्रात्य भी कहलाते थे, ये प्रत्येक विद्याओं के जानकार होनेसे द्राविड़ नामसे प्रसिद्ध थे, संस्कृत विद्याधर शब्द 'द्राविद' शब्दका ही संस्कृत रूपान्तर है- द्वाधिराविद् विद्याधर इसी लिये पिछले पौराणिक व जैनसाहित्य में कथा, रामायण, महाभारत आदि ग्रन्थोंमें इन्हें विशेषतया विन्ध्याच प्रदेशी तथा दक्षिणा बना लोगोंका "विद्याधर शब्दसे ही निर्देश किया गया है । ये बड़े बलिष्ठ, धर्मनिष्ठ, दयालु और अहिंसाधर्मको माननेवाले थे। ये अपने इष्टदेवको वृत्र (अर्थात् सब ओरसे घेर कर रहने वाला अर्थात् सर्वज्ञ) अर्हन् (सर्वभादरणीय) परमेष्ठी (परम सिद्धिके मालिक जिन (संसारके विजेता मृत्युन्जय ) शिव (आनन्दपूर्ण) ईश्वर (महिमापूर्ण) नाम से पुकारते थे। ये श्रात्म-शुद्धि के लिये अहिंसा संयम तप मागके अनुयायी थे। ये केशी (जटाधारी) ( शिशन- देव ) ( नग्नसाधुओं) के उपासक थे । ये नदियों और पर्वतोंको इन योगियोंको तपोभूमि होनेके कारण तीर्थस्थान मानते थे बेयग्रोध, अश्वश्थ, आदि ४ की योगियोंके ध्यान साधनासे सम्बन्धित होने के कारण पूज्य वस्तु मानते थे । द्राविड़ संस्कृतिकी प्राचीनता द्राविड़ लोगोंकी इस आध्यात्मिक संस्कृतिकी प्राचीनताके सम्बन्धमें इतना कहना ही पर्याप्त होगा कि आर्यजनके आगमन से पूर्व यह संस्कृति भारतमें प्रचलित थी। यहांके विज्ञजन देव-उपासना सत्य-चिन्तन, और कविभावुकता से ऊपर उठकर श्रात्मलच्यकी साधनामें जुट चुके थे। वे सांसारिक अभ्युदयको नीरस और मिथ्या जान अध्यात्म (२) ऋग्वेद, ८१-१३-१२ (३) रामायण ( वाक्मीकि) सुन्दरकांड सर्ग १२ | माझी संहिता १२-०२-२८ पद्मपुराण स्वर्ग वोह बाऽइदं सबै वृत्या शिश्यो यदिदमन्तरेण धायासर्वे पृथिवीय यदिदं सर्वं कृत्वा शिश्येतस्माद्वृत्रो नाम । - शतपथ ब्रा० १. १.३. ४ (४) (2) इसके लिये देखें अनेकान्त वर्ष १२ किरण २ व ३ में लेखकके 'आरव योगियोंका देश है' शीर्षक लेख । For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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