Book Title: Anekant 1954 04 Author(s): Jugalkishor Mukhtar Publisher: Jugalkishor Mukhtar View full book textPage 4
________________ मूलाचारकी मौलिकता और उसके रचयिता ( श्री पं० हीरालाल जी सिद्धान्तशास्त्री ) 'मूलाचार' - जैन साधुनोंके आचार-विचारका निरूपण करने वाला एक बहुत ही महत्वपूर्ण एवं प्रामाणिक ग्रंथ है, जिसे दिगम्बर-सम्प्रदायका श्राचारांगसूत्र माना जाता है और प्रत्येक दिगम्बर जैन साधु इसके अनुसार ही अपने मूलोत्तर गुणोंका श्राचरण करता है । मूळाचार के कर्त्ता 'वट्टकेराचार्य माने जाते हैं, पर उनकी स्थिति अनिर्णीत या संदिग्धसी रहने के कारण कुछ विद्वान् इसे एक संग्रह ग्रन्थ समझते हैं और इसी लिये मूलाचार की मौलिक गाथाओंको ग्रन्थान्तरों में पाये जाने मात्र से वे उन्हें वहाँसे लिया हुआ भी कह देते हैं। श्वेताम्बर विद्वान् प्रज्ञाचक्षु पं० सुखलालजी सम्मति प्रकरण के द्वितीय संस्करणकी अपनी गुजराती प्रस्तावना में लिखते : • दिगम्बराचार्य वट्टकेरकी मानी जाने वाली कृति 'मुलाचार' ग्रंथका बारीक अभ्यास करनेके बाद हमें खातरी हो गई है कि वह कोई मौलिक ग्रन्थ नहीं है, परन्तु एक संग्रह है । वट्टरने सम्मतिकी चार गाथ ऍ ( २,४०३) मूलाचार के समयसाराधिकार १० ८०-६० ) में ली हैं, इससे अपन इतना कह सकते हैं कि यह ग्रंथ सिद्धसेन के बाद संकलित हुआ है ।" इसी प्रकार कुछ दिगम्बर विद्वान् भी ग्रन्थकर्तादिकी स्थिति स्पष्ट न होने से इसे संग्रह प्रन्थ मानते श्रा रहे हैं, जिनमें पं० परमानन्दजी शास्त्रीका नाम उल्लेखनीय है । जिन्होंने अनेकान्त वर्ष २ किरण ५ में 'मूलाचार संग्रह ग्रन्थ है' इस शीर्षकसे एक लेख भी प्रगट किया है और उसके अन्त में लेखका उपसंहार करते हुए लिखा है: "इस सब तुलना और ग्रन्थ के प्रकरणों अथवा अधिकारोंकी उक्त स्थिति परसे मुझे तो यही मालूम होता है कि मूलाचार एक संग्रह ग्रन्थ है और उसका यह संभहत्व अथवा संकलन अधिक प्राचीन नहीं है, क्योंकि टीकाकार वसुनन्दीसे पूर्व के प्राचीन साहित्य में उसका कोई उल्लेख अभी तक देखने तथा सुननेमें नहीं आया ।" उपरि-लिखित दोनों उद्धारणोंसे यह स्पष्ट है कि ये विद्वान् इसे संकलित और अर्वाचीन ग्रंथ मानते हैं । पं० परमानन्दजीने 'मूलाचार' को अधिक प्राचीन न मानने में युक्ति यह दी है कि टीकाकार वसुनन्दोसे पूर्व के Jain Education International प्राचीन साहित्य में उसका कोई उल्लेख अभी तक देखने व सुनने में नहीं श्राया । यह लेख आपने ८-१-३८ में लिखा था इसलिए बहुत संभव है कि तब तक आपके देखे हुए ग्रन्थोंमें इसका कोई उल्लेख थापको प्राप्त न हुआ हो । पर सन् १९३८ के बाद जो दि० सम्प्रदाय के षट्खंडागम, तिलोय पण्णत्ती आदि प्राचीन ग्रन्थ प्रकाशमें आए हैं, उन तक में इस मूलाचारके उल्लेख मिलते हैं। पाठकोंकी आनकारी के लिए यहाँ उक्त दोनों ग्रन्थोंका एक-एक उल्लेख दिया जाता है : ( १ ) षट्खण्डागम भाग ४ के पृष्ठ ३१६ पर धवला टीकाकार प्राचार्य वीरसेन अपने मतकी पुष्टि करते हुए लिखते हैं : 'तह आया रंगे वि उत्तंपंचत्थिकाया य छज्जीवणिकाय कालदव्त्रमण्णे य । आगेज्मे भावे आणाविचरण विचिणादि ||' जाती यह गाथा मूलाचार (१,२०२) में ज्योंकी त्यों पाई । इस उल्लेखसे केवल मूळाचारकी प्राचीनताका ही पता नहीं चलता, बल्कि वीरसेनाचार्य के समय में वह 'आचारांग ' नाम से प्रसिद्ध था, इसका भी पता चलता है । श्रा० वीरसेनकी धवला टीका शक सं० ७३८ में बन कर हुई है। (२) दूसरा उल्लेख घबलाटीकासे भी प्राचीन ग्रन्थ तिलोयपत्ती में मिलता है, जो कि यतिवृषभकी बनाई हुई है और जिनके समयको विद्वानोंने पाँचवीं शताब्दी माना है । तिलोयपण्णत्तीके आठवे अधिकारकी निम्न दो गाथा : में देवियोंकी श्रायुके विषयमें मतभेद दिखाते हुए यतिवृषभाचार्य लिखते हैं :पलिदोवमाणि पंच य सत्तारस पंचवीस पणतीसं । चउसु जुगलेसु श्राऊ यादव्वा इंददेवीणं ॥ ५३१ ॥ रणदुगपरियं तं वड्ढ़ते पंचपल्लाई । मूलारे इरिया एवं णिउणं णिरूर्वेति ॥ ५३२॥ अर्थात् - चार युगलों में इन्द्र-देवियोंकी आयु क्रमसे पांच, सत्तरह, पच्चीस और पैंतीस पत्यप्रमाण जानना चाहिए ॥१३१॥ इसके आगे आरणयुगल तक पांच-पांच For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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