Book Title: Anekant 1954 04
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Jugalkishor Mukhtar

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Page 6
________________ ३३२] न्वित है. घातिकर्मक्षय से उत्पन्न केवलज्ञानके द्वारा जिन्होंने षट् द्रब्यों और नव पदार्थोंके समस्त गुण और पर्यायोंको जान लिया है, ऐसे जिनेन्द्रदेव से उपदिष्ट है, बारह प्रकारके तपोंके अनुष्ठानसे जिनके अनेक प्रकारकी ऋद्धियां उत्पन्न हुई हैं, ऐसे गणधरदेवसे जो रचित है, और जो साधुनोंके मूलगुणों और उत्तरगुणोंके स्वरूप, भेद उपाय, साधन, सहाय और फलका निरूपण करने वाला है, ऐसे आचार्य - परम्परासे प्राये हुए आचाराङ्गको प बल बुद्धि और आयु वाले शिष्योंके लिए द्वादश अधिकारोंसे उपसंहार करने के इच्छुक श्रीवट्टकेराचार्य अपने और श्रोताजनोंके प्रारब्ध कार्य में आने वाले विघ्नोंके निराकरणमें समर्थं ऐसे शुभ परिणामको धारण करते हुए सर्व प्रथम मूलगुणाधिकारके प्रतिपादन करनेके लिए मंगल-पूर्वक प्रतिज्ञा करते हैं :--- अनेकान्त इस उत्थानिकाके द्वारा यह प्रकट किया गया है कि जिनेन्द्र - उपदिष्ट एवं गणधर - रचित, द्वादशांग वाणीका प्राय जो आचारांग सूत्र है वह महान् गम्भीर और अति विशाल है, उसे अल्प बल-बुद्धि वाले शिष्योंके लिए ग्रन्थकार उन्हीं बारह अधिकारों में उपसंहार कर रहे हैं, जिन्हें कि गणधरदेवने रचा था । इस उल्लेखले प्रस्तुत ग्रन्थकी मौलिकता एवं प्रामाणिकता स्वतः सिद्ध है । यह उल्लेख ठीक उसी प्रकारका है, जैसा कि कसायपाहुडके लिए वीरसेनाचार्यने किया है। यथा ' तदो अंगपुडवाणगदेसो चेव श्राहरियपरंपराए श्रागंतूण गुणहराइरियं संपत्ती पुणो तेण गुणहरभडारएण णाणपत्रादपंचमपुब्व-दसमवत्थु तदियक सायपाहुडमहरणवपारएण गंथवोच्छेदभएण पवयणवच्छहलपर वसीकय हियपुण एवं पेज्जदोसपाहुडं सोलसपदसहस्सपमाणं होतं असीदिसदमेत्तगाहाहि उपसंहारिदं ।" अर्थात् - उक्त अंग-पूर्वोका एक देश ही श्राचार्य परम्परासे आकर गुणधराचार्यक प्राप्त हुआ । पुनः ज्ञानप्रवाद नामक पांचवें पूर्वकी दशवीं वस्तुके तीसरे कसाय पाहुरूप महार्णव के पारको प्राप्त उन गुणधर भट्टारक ने जिनका कि हृदय प्रवचनके वासल्यसे परिपूर्ण था, सोलह हजार पदपूमाण इस पेज्जदोसपाहुडका ग्रन्थ-विच्छेदके भयसे केवल एक अस्सी गाथाओंके द्वारा उपसंहार किया । इस विवेचनसे न केवल मूलाचारको मौलिकता और Jain Education International [ किरण ११ प्रामाणिकता का ही बोध होता है, अपितु उसके कर्त्ता बट्टकेराचार्य के अगाध श्रुतपांडित्यका भी पता चलता है। उक्त उल्लेख के आधार पर कमसे कम इतना तो निर्विवाद मानना ही पड़ेगा कि उन्हें श्राचार्य - परम्पराले आचारांगका पूर्ण ज्ञान था, वे उसके प्रत्येक अधिकारसे भली भांति परिचित थे और इसीलिए उन्होने उन्हीं बारह अधिकारों में अट्ठारह हजार पदप्रमाण उस विस्तृत श्राचारंगसूत्रका उपसंहार किया है। ठीक वैसे ही, जैसे कि सोलह हजार पदप्रमाण पेज्जदोसपाहुडका गुणधराचार्यने मात्र एक सौ अस्सी गाथाओं में उपसंहार किया है । 1 मूलाचार एक मौलिक ग्रन्थ है, संग्रह ग्रन्थ नहीं, इसका परिज्ञान प्रत्येक अधिकारके श्राद्य मंगलाचरण और अन्तिम उपसंहार-वचनोंसे भी होता और जो पाठक के हृदय में अपनी मौलिकताकी मुद्राको सहज में ही अंकित करता है । यहाँ यह कहा जा सकता है कि जब यह मौलिक ग्रन्थ है, तो फिर इसके भीतर अन्य ग्रंथोंकी गाथाएँ क्यों उपलब्ध होती हैं ? इस प्रश्न के उत्तर में दो बातें कहीं जा सकती हैं। एक तो यह कि जिन गाथाओंको अन्य ग्रन्थोंकी कहा जाता है, बहुत सम्भव है कि वे इन्हींके द्वारा रचित अन्य ग्रन्थोंकी हों ? और दूसरे यह farai गाथाएँ श्राचार्य - परम्परासे चली आ रही थीं, उन्हें मूलाचारकारने अपने ग्रन्थ में यथास्थान निबद्ध कर दिया । अपने इस निबद्धीकरणका वे प्रस्तुत ग्रन्थमें यथास्थान संसूचन भी कर रहे हैं। उदाहरण के तौर पर यहाँ ऐसे कुछ उल्लेख दिये जाते हैं: (१) वच्छं सामाचारं समासदो आणुपुव्वीए ( ४, १) (२) वोच्छामि समयसारं सुण संखेवं जहावुत्तं (८, १ ) (३) पज्जती-संगी वोच्छामि जहागुपुव्वीए (१२,१) तीसरे उद्धरण में आया हुआ 'पज्जत्ती संगहणी' पद. उपर्युक्त शंकाका भली भांति समाधान कर रहा है । चाय कौन हैं ? मूलाचार के कर्त्ताके रूपमें जिनका नाम लिया जाता है, वे वट्टकेराचार्य कौन हैं, इस प्रश्नका अभी तक निर्णय नहीं हो सका है ? विभिन्न विद्वानोंने इसके लिए विभिन श्राचार्योंकी कल्पनाएँ की हैं. परन्तु इस नामके प्राचार्य - का किसी शिलालेखादि में कोई उल्लेखादि न होनेसे 'वट्टकेराइरिय' अभी तक विचारणीय ही बने हुए हैं । For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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