Book Title: Anekant 1948 03 Author(s): Jugalkishor Mukhtar Publisher: Jugalkishor Mukhtar View full book textPage 4
________________ अनेकान्त [वर्ष ९ समन्तभद्र भारतीके कुछ नमूने युक्त्यनुशासन प्रवृत्ति-रक्तः शम-तुष्टि-रिक्त रुपेत्य हिंसाऽभ्युदयाङ्ग-निष्ठा । प्रवृत्तितः शान्तिरपि प्ररूढं तमः परेषां तव सुप्रभातम् ॥३८॥ 'जो लोग शम और तुष्टिसे रिक्त हैं-क्रोधादिककी शान्ति और सन्तोष जिनके पास नहीं फटकते-(और इस लिये) प्रवृत्ति-रक्त हैं-हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील तथा परिग्रहमें कोई प्रकारका नियम अथवा मर्यादा न रखकर उनमें प्रकर्षरूपसे प्रवृत्त हैं-आसक्त हैं-उन (यज्ञवादी मीमांसकों) के द्वारा, प्रवृत्तिको स्वयं अपनाकर, 'हिंसा अभ्युदय (स्वर्गादिकप्राप्ति) के हेतुकी आधारभूत है' ऐसी जो मान्यता प्रचलित की गई है वह उनका बहुत बड़ा अन्धकार है-अज्ञानभाव है । इसी तरह (वेदविहित पशुवधादिरूप) प्रवृत्तिसे शान्ति होती है ऐसी जो मान्यता है वह भी (स्याद्वादमतसे बाह्य) दूसरोंका घोर अन्धकार है क्योंकि प्रवृत्ति रागादिकके उद्रेकरूप अशान्तिकी जननी है न कि अरागादिरूप शान्तिकी । (अतः हे वीरजिन !) आपका मत ही (सकल अज्ञान-अन्धकारको दूर करनेमें समर्थ होनेसे) सुप्रभातरूप है, ऐसा सिद्ध होता है।' शीर्षोपहारादिभिरात्मदुःखैर्देवाकिलाऽऽराध्य सुखाभिगृद्धाः । सिद्धयन्ति दोषाऽपचयाऽनपेक्षा युक्तं च तेषां त्वमृपिने येषाम् ॥३९॥ 'जीवात्माके लिये दुःखके निमित्तभूत जो शीर्षोपहारादिक हैं-अपने तथा बकरे आदिके सिरकी बलि चढ़ाना, गुग्गुल धारण करना, मकरको भोजन कराना, पर्वतपरसे गिरना जैसे कृत्य हैं उनके द्वारा (यक्ष-महेश्वरादि) देवोंकी आराधना करके ठीक वे ही लोग सिद्ध होते हैं-अपनेको सिद्ध समझते तथा घोषित करते हैं-जो दोषोंके अपचय (विनाश) की अपेक्षा नहीं रखते-सिद्ध होनेके लिये राग-द्वेषादि विकारोंको दूर करनेकी जिन्हें पर्वाह नहीं है और सुखाभिगृद्ध हैं-काम सुखादिके लोलुपी हैं !! और यह (सिद्धि-मान्यतारूप प्ररूढ अन्धकार) उन्हींके युक्त है जिनके हे वीरजिन! आप ऋषि-गुरु नहीं अर्थात् इस प्रकारकी घोर अज्ञानताको लिये अन्धेरगर्दी उन्हीं मिथ्यादृष्टियोंके यहाँ चलती है जो आप जैसे वीतदोष-सर्वज्ञ-स्वामीके उपासक नहीं हैं । (फलतः) जो शुद्धि और शक्तिकी पराकाष्ठाको पहुँचे हुए आप जैसे देवके उपासक हैं-आपको अपना गुरु-नेता मानते हैं-(और इसलिये) जो हिंसादिकसे विरक्तचित्त हैं, दया-दम-त्याग-समाधिकी तत्परताको लिये हुए आपके अद्वितीय शासन (मत) को प्राप्त हैं और नय-प्रमाणद्वारा विनिश्चित परमार्थकी एवं यथावस्थित जीवादि तत्त्वार्थों की प्रतिपत्तिमें कुशलमन हैं, उन सम्यग्दृष्टियोंके इस प्रकारकी मिथ्या-मान्यतारूप अन्धेरगर्दी (प्ररूढतमता) नहीं बनती; क्योंकि प्रमादसे अथवा अशक्तिके कारण कहीं हिंसादिकका आचरण करते हुए भी उसमें उनके मिथ्या-अभिनिवेशरूप पाशके लिये अवकाश नहीं होता-वे उससे अपनी सिद्धि अथवा आत्मभलाईका होना नहीं मानते।' यहाँ तकके इस युक्त्यनुशासन स्तोत्रमें शुद्धि और शक्तिकी पराकाष्ठाको प्राप्त हुए वीरजिनेन्द्रके अनेकान्तात्मक स्याद्वादमत (शासन) को पूर्णत: निर्दोष और अद्वितीय निश्चित किया गया है और उससे बाह्य जो सर्वथा एकान्तके आग्रहको लिये मिथ्यामतोंका समूह है उस सबका संक्षेपसे निराकरण किया गया है, यह बात सद्बुद्धिशालियोंको भले प्रकार समझ लेनी चाहिये ।] स्तोत्रे शुक्त्यनुशासने जिनपतेर्वीरस्य निःशेषतः, संप्राप्तस्य विशुद्धि-शक्तिपदवीं-काष्ठां परामाश्रिताम् । निर्णीतं मतमद्वितीयममलं संक्षेपतोऽपाकृतं, तद्वाह्य वितथं मतच सकलं सद्धीधनबुध्यताम् ॥ -विद्यानन्दः Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
1 2 3 4 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40