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लिए बहुत प्रकार के स्तम्भोंका उपयोग होने लगा । अजन्ता की गुफाओं में या एलोराके कैलाश मन्दिर में अथवा चिदम्बरम के सहस्र खम्भों वाले मण्डपमें हम अनेक प्रकारकी कारीगरीसे सुसज्जित अच्छेसे अच्छे खम्भे पाते हैं । इनकी विविधता और संख्याको देखकर कहा जा सकता है कि भारतवर्ष कला के क्षेत्र में स्तम्भोंका देश रहा है। स्तम्भोंकी निर्माण कला
कला की दृष्टि से सुन्दर स्तम्भ के तीन भाग होने चाहिएँ—अधिष्ठान या नीचेका भाग, दण्ड या बीचका भाग और शीर्ष या ऊपरका भाग, इन तीनों के भी और कितने ही अलङ्करण कहे गये हैं । मध्यकाल में प्रायः प्रत्येक बड़े मन्दिरके सामने एक स्वतन्त्र स्तम्भ या मान स्तम्भ बनाने की प्रथा चल पड़ी थी। किन्तु प्राचीन विजय स्तभोंकी परंपरामें कीर्ति स्तम्भ भी बनने लगे थे जो पत्थरकी ऊँची मीनार कहे जा सकते हैं । चित्तौड़में राणा कुम्भाका कीर्ति स्तम्भ इसी प्रकारकी वस्तु है और कलाकी दृष्टिसे बहुत ही आकर्षक है।
गांधीजीका पुण्य-स्तम्भ बुद्ध के उपदेशों को उनके शिष्योंने पीछे उनका धर्म
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अनेकान्त
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शरीर समझा था। गांधीजीने भी जो कुछ कहा वह उनके विचारोंका प्रत्यक्ष प्रतिनिधि होनेके कारण उनका विचार-शरीर कहा जा सकता है। इसकी रक्षा और चिर-स्थितिका प्रयत्न हमारा राष्ट्रीय
चित्तौड़का सुप्रसिद्ध विजय स्तम्भ
इसे राणा कुम्भाने अपनी विजयके स्मारक में बनवाया था ।
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