Book Title: Anekant 1948 03
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Jugalkishor Mukhtar

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Page 11
________________ किरण-३ ] राष्ट्रीय झण्डेके साथ सम्बन्धित होगए हैं। इसके द्वारा नवीन भारतने एक प्रकार से अपने आपको अशोककी आत्मा के साथ मिला दिया है । इन खम्भोंके बनाने और कई सौ मील दूर लेजानेका कार्य भी एक बड़ी कठिन समस्या रही होगी । ये सब चुनार के गुलाबी पत्थर के बने हुए हैं । पचास-साठ फुट लम्बे पत्थरोंके बड़े टुकड़ोंको काटकर उन्हें तराशना, डौलियाना और मांठना बहुत ही कठिन कार्य रहा होगा । उस समय के नियर | कितने परिश्रमसे चुनार या पाटलीपुत्रकी केन्द्रीय शिल्पशालासे सुदूर स्थानों तक इन्हें लेगये इसका कुछ अनुमान हम सुलतान फिरोजशाह तुग़लकके वर्णनसे लगा सकते हैं। उसने दिल्लीकी अपनी राजधानीको सजानेके लिए अम्बाला जिलेके टोपरा गाँबसे अशोकका खम्भा उखाड़कर यहाँ खड़ा किया | उसके लिये बयालीस पहियोंकी एक गाड़ी बनाई गई, एक पहियेमें बँधे हुए रस्सेको दोसौ आदमी खींचते थे और खम्भे के सहित सारी गाड़ीके बोको ८४०० आदमी खींच रहे थे । खम्भेको नीचे लाने के लिये एक रूईका पहाड़ बनाया गया और धीरे-धीरे नीचा करके गाड़ीके बराबर लाकर खम्भेको उसपर लादा गया । वहाँसे जब उसे जमुनाके किनारे ये तो कई बड़ी नावोंपर उसे लादा गया और फिर दिल्लीमें उसका स्वागत किया गया। वहाँसे फिर वह खम्भा फिरोजशाह कोटले तक लाकर एक ऊँचे ठिकाने पर खड़ा किया गया। ऐसा करनेके लिए उस समयके बन्धानियोंने देशी ढङ्गसे तैयार होनेवाले रस्से बाँस-बल्लियोंका ठाठ और बालाकुप्पीका प्रयोग किया। इसका वर्णन करने वाली तत्कालीन पुस्तक प्राप्त हुई है जो पुरातत्व विभागसे सानुवाद प्रकाशित हो चुकी है। गाँधीजीका पुण्य-स्तम्भ समुद्रगुप्तका स्तम्भ अशोकके खम्भोंको बादमें भी लोगोंने खूब पसन्द किया होगा । इसका एक उदाहरण यह है कि गुप्त वंशके प्रतापी महाराज समुद्रगुप्तने अपनी दिग्विजयका लेख लिखवानेके लिये अशोकके खम्भे Jain Education International ९७ को ही चुना। उसमें कहा गया है 'कि मानो पृथ्वीने खम्भे के रूपमें आकाशकी ओर अपना ही एक हाथ ऊँचा उठा दिया' । एक यूनानी राजदुतका गरुडध्वज बाहर से आने वाले विदेशियोंने भी खम्भोंकी हिलियोडोरस नामका एक यूनानी राजदूत मध्यभारत परम्पराको अपनाया। पहली शताब्दी ईसवी पूर्व दीक्षित होगया और उसने विष्णुका बहुत सुन्दर के राजाके पास आया था । यहाँ वह भागवत धर्ममें नीचे अठकोना ऊपर सोलह कोना और फिर अन्तमें गरुडध्वज-स्तम्भ भेलसामें स्थापित किया । यह स्तम्भ गोल होगया है । इसका मस्तक पद्माकृति है । खम्भेके निचले भागके एक पहलूपर लेख उत्कीर्ण है जिसमें सत्य, दम और दान रूपी धर्मकी प्रशंसा की गई है। महरौलीका लोह-स्तम्भ प्राचीन कीर्ति स्तम्भों में एक बहुत अच्छा उदाहरण महरौलीका लोह-स्तम्भ है । इसका लोहा १५०० वर्षों से धूप और मेंहका सामना करते हुए भी जङ्गसे बिल्कुल अछूता रहा । इसे स्मिथने 'धातुनिर्माणकी कलाका करिश्मा' कहा है। आज भी संसार में ऐसे कारखानोंकी संख्या थोड़ी ही है जो इतना बड़ा लोहेका लट्ठा ढाल सकें। इस स्तम्भपर खुदा हुआ संस्कृतका लेख चन्द्र नामक राजाका है, जिसने ४०० ई० के लगभग गङ्गासे बल्ल तक के समस्त देशको एकताके सूत्रमें बाँध दिया था । सम्भवतः यह सम्राट चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य थे, जिनका नाम भारतीय साहित्यके क्षेत्र में अमर है । गुप्तकालीन विजय स्तम्भ गुप्तकाल में पत्थर के बने विजयस्तम्भकी परम्परा और भी फैली। गाजीपुर के भीतरा गाँव में स्कन्दगुप्तका एक खम्भा मिला है जिसके लेख में लिखा है कि उन्होंने अपने भुज- दण्डोंकी शक्तिसे युद्धभूमिमें हूणोंसे लोहा लेकर इस पृथ्वीको कम्पायमान कर दिया । गुप्त कालके बाद भारत में अनेक प्रकारके स्तम्भ बनाये जाने लगे। विशेषकर गुफाओं और मन्दिरोंके For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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