Book Title: Anekant 1948 03
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Jugalkishor Mukhtar

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Page 28
________________ ११४ अनेकान्त से वह स्वच्छन्द प्रवृत्ति करके नाना कुयोनियोंमें है ? उसका मूल स्थान बतलायें ? गया। क्या उसके इस अभिमानका उल्लेख प्राचीन शास्त्रों में आया है ? ९ समाधान - हाँ, आया है । जिनसेनाचार्य कृत आदिपुराण के अतिरिक्त भद्रबाहुकृत आवश्यक नियुक्ति में भी मरीचिके अभिमानका उल्लेख मिलता है और वह निम्न प्रकार है तव्वयणं सोऊणं तिवई फोडिऊण तिक्खुत्तो । अब्भहियजायहरिसो तत्थ मरीई इमं भणई ||४३०|| इ वासुदेवु पढमो मूत्राइ विदेहि चक्कवट्टित्तं । चरमो तित्थयराण होऊ अलं इत्ति मज्झ ॥४३१॥ १० शङ्का – पूजा और अर्चामें क्या भेद है ? क्या दोनों एक हैं ? १० समाधान - यद्यपि सामान्यतः दोनोंमें कोई भेद नहीं है, पर्याय शब्दोंके रूपमें दोनोंका प्रयोग रूढ़ है तथापि दोनोंमें कुछ सूक्ष्म भेद जरूर है । इस भेदको श्रीवीरसेनस्वामीने षट्खण्डागमके 'बन्धस्वामित्व' नामके दूसरे खण्डकी धवला टीका पुस्तक ठमें इस प्रकार बतलाया है- "चरु-बलि-पुष्प-फल- गन्ध-धूव-दीवादीहि सगभत्तिपयासो अचण णाम । एदाहि सह इंदधय-कप्परुक्ख-महामह सव्त्रदोभट्टादिमहिमाविहाणं पूजा णाम । " पृ० ६२ । अर्थात् चरु, बलि (अक्षत), पुष्प, फल, गन्ध, धूप और दीप इत्यादि से अपनी भक्ति प्रकाशित करना अर्चना (अर्चा) है और इन पदार्थोंके साथ ऐन्द्रध्वज कल्पवृक्ष, महामह, सर्वतोभद्र आदि महिमा (धर्मप्रभावना) का करना पूजा है । तात्पर्य यह कि फलादि द्रव्योंको चढ़ा (स्वाहापूर्वक समर्पण कर सक्षेप में लघु भक्तिको प्रकट करना अर्चा है और उक्त द्रव्यों सहित समारोह पूर्वक विशाल भक्तिको प्रकट करना पूजा है । यहाँ यह ध्यान देने योग्य है कि इन्द्रध्वज आदि पूजामहोत्सवका विधान वीरसेन स्वामी से बहुत पहले से विहित हैं और जैन शासनकी प्रभावना में उनका महत्वपूर्ण स्थान है । ११ शङ्का - निम्न पद्य किस ग्रन्थका मूल पद्य Jain Education International [ वर्ष ९ सुखमाल्दादनाकारं विज्ञानं मेयबोधनम् । शक्तिः क्रियानुमेया स्याद्यूनः कान्तासमागमे ॥ ११ समाधान — उक्त पद्य अनेक ग्रन्थोंसे उधृत पाया जाता है । आचार्य विद्यानन्दने अष्टसहस्री ( पृ० ७८) में इसे 'इतिवचनात् ' शब्दोंके साथ दिया है । आचार्य अभयदेवने सन्मतिसूत्र - टीका ( पृ० ४७८) में इस पद्यको उद्धृत करते हुए लिखा है“नच सौगतमतमेतत् न जैनमतमिति वक्तव्यम्, 'सहभाविनो गुणाः क्रमभाविनः पर्यायाः' [ ] इति जैनैरभिधानात् । तथा च सहभावित्व गुणानां प्रतिपादयता दृष्टान्तार्थमुक्तम् – " . इसके बाद उक्त पद्य दिया है। सिद्धिविनिश्चय टीकाकार बड़े अनन्तवीर्यने इसी पद्यका निम्न प्रकार उल्लेख किया है— "कथमन्यथा न्यायविनिश्वये 'सहभुवो गुणाः' इत्यस्य 'सुखमाल्हादनाकारं ' इति निदर्शनं स्यात् । " – ( टी०लि० पृ० ७६ ।) अभयदेव और अनन्तवीर्यके 'इन उल्लेखोंसे प्रतीत होता है कि गुणोंके सहभावीपना प्रतिपादन करने के लिये दृष्टान्तके तौरपर उसे अकलङ्कदेवने न्यायविनिश्चयमें कहा है । परन्तु न्यायविनिश्चय मूल में यह पद्य उपलब्ध नहीं होता। हो सकता है उसकी स्वोपज्ञवृत्ति में उसे कहा हो। मूलमें तो सिर्फ १११वीं कारिकामें इतना ही कहा है कि 'गुण पर्ययवद्द्रव्यं ते सहक्रमवृत्तय:' । यदि वस्तुतः यह पद्य न्यायविनिश्चयवृत्ति में कहा है तो यह प्रश्न उठता है कि वहाँ वृत्तिकार ने उसे उद्धृत किया है या स्वयं रचकर उपस्थित किया है ? यदि उद्धृत किया है तो मालूम होता है कि वह अकलङ्क देवसे भी प्राचीन है । और यदि स्वयं रचा है तो उसे उनके न्यायविनिश्चयकी स्वोपज्ञवृत्तिका समझना चाहिए । वादिराजसूर न्यायविनिश्चयविवरण (प० २४० पूर्वा) में 'यथोक्तं स्याद्वादमहार्णवे' शब्दों के उल्लेख- पूर्वक उक्त पो प्रस्तुत किया है, जिससे वह 'स्याद्वादमहार्णव' नामक किसी जैन दार्शनिक ग्रन्थका जाना जाता है । यह For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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