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किरण ३ ]
ग्रन्थ आज उपलब्ध नहीं है और इससे यह नहीं कहा जा सकता कि इसके रचयिता कौन आचार्य हैं। हो सकता है कि अकलङ्कदेवने भो इसी स्याद्वादमहार्णवपरसे उक्त पद्य उदाहरण के बतौर न्यायविनिश्चयकी स्वोपज्ञवृत्तिमें, जो आज अनुपलब्ध है, उल्लेखित किया हो और इससे प्रकट है कि यह पद्य काफी प्रसिद्ध और पुराना है ।
१२ शङ्का - आधुनिक कितने ही विद्वान यह कहते हुए पाये जाते हैं कि प्रसिद्ध मीमांसक कुमारिल भट्ट अपने मीमांसा श्लोकवार्त्तिककी निम्न कारिकाको समन्तभद्रस्वामीकी श्राप्तमीमांसागत 'घटमौलिसुवर्णार्थी' आदि कारिकाके आधारपर रचा है और इसलिये समन्तभद्रस्वामी कुमारिलभट्टसे बहुत पूर्ववर्ती विद्वान् हैं। क्या उनके इस कथन को पुष्ट करने वाला कोई प्राचीन पुष्ट प्रमाण भी है ? कुमारिलकी कारिकाएँ ये हैं
शङ्का समाधान
वर्द्धमानकभंगेन रुचकः क्रियते यदा । तदा पूर्वार्थिनः शोकः प्रीतिश्चाप्युत्तरार्थिनः || मार्थिनस्तु माध्यस्थ्यं तस्माद्वस्तु त्रयात्मकम् । १२ समाधान - उक्त विद्वानोंके कथनको पुष्ट करने वाला प्राचीन प्रमाण भी मिलता है । ई० सन्
स्मृतिकी रेखाए -
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बहुधा लोगों के जीवन में ऐसे अवसर आते हैं कि दिनभर भूखे-प्यासे रहनेसे पेट अन्तड़ियोंसे लग जाता है, जीभ तालूसे जालगी है, श्रेोठोंपर पपड़ियाँ जम गई हैं और चलते-चलते पाँव मूसल होगये हैं । न पास में एक धेला है जो चने चाबकर ही ठण्डा पानी पिया जाय, न मंजिले मकसूद ही नजर आती है। पास में पैसे न होने की वजह मुफलिसी ही नहीं
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१०२५ के प्रख्यात विद्वान् श्रचार्य वादिराजसूरिने अपने न्यायविनिश्चयविवरण ( लि० प० २४५) में एक असन्दिग्ध और स्पष्ट उल्लेख किया है और जो निम्न प्रकार है
“उक्त स्वामिसमन्तभद्रस्तदुपजीविना भट्ट नापि — घटमौलिसुवर्णार्थी नाशोत्पाद स्थितिष्वयम् । शोक- प्रमोद - माध्यस्थ्यं जनो याति सहेतुकम् ॥ वद्ध मानकभंगेन रुचकः क्रियते यदा । तदा पूर्वार्थिनः शोकः प्रीतिश्चाप्युत्तरार्थिनः ॥ मार्थिनस्तु माध्यस्थ्यं तस्माद्वस्तु त्रयात्मकम् । इति च ॥” इस उल्लेख में वादिराजने जो 'तदुपजीविना ' पदका प्रयोग किया है उससे स्पष्ट है कि आजसे नौ सौ वर्ष पूर्व भी कुमारिलको समन्तभद्रस्वामीका उक्त विषय में अनुगामी अथवा अनुसर्ता माना जाता था । जो विद्वान् समन्तभद्रस्वामीको कुमारिल और उसके समालोचक धर्मकीर्तिके उत्तरवर्ती बतलाते हैं उन्हें वादिराजका यह उल्लेख अभूतपूर्व र प्रामाणिक समाधान उपस्थित करता है ।
वीरसेवामन्दिर २७ फरवरी १६४८
भिक्षुक मनोवृत्ति
(ले० अयोध्या प्रसाद गोयलीय)
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- दरबारीलाल कोठिया
होती, आकस्मिक घटनाएँ भी होती हैं। कभी जेब कट जाती है, कभी घर से लेकर न चले और साथियों ने रास्तेसे ही पकड़ लिया और समझा कि अभी वापिस आये जाते हैं, मगर रास्तेमें कार फेल होगई या ताँया पलट गया पैदल चलनेके सिवा कोई चारा नहीं । कभी रेल्वे टिकिट के लिये १-२ पैसेकी कमी रह गई है । परदेशमे किससे माँगे, कोई जान पहचानका
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