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भी तो दिखाई नहीं देता, कि इस मुसीबत से निजात मिले। और दिखाई दिया भी तो माँगनेकी हिम्मत न हुई; श्रोठ काँपंकर रह गये। घर में बच्चा बीमार पड़ा है, उसी रोज वेतन मिलने वाला है, मगर घर में डाक्टरको बुलाने के लिये रुपये फीस को तो कुजा, आफिस जानेके लिये इक्केके लिये दो पैसे भी नहीं हैं । और मनमें यह सोच ही रहे हैं कि चलो बच्चेको ही हस्पताल गोदमें लेचला जाये, ऐसे ही नाजुक मौकेपर कोई साहब आते हैं । शक्लोशबाहत - से अच्छे खासे जीविकार और भले मालूम देते हैं । हाथमें ४-५ रुपयेकी रेजगारी भी लिये हुए हैं । कुम्भ-स्नानको जाना है, एक-दो रुपयेकी जो कमी रह गई है, उसे पूरी करने चले आये हैं और इनकी धज देखिये—नाज मुहतसे छोड़ रक्खा है, सिर्फ फल- दूधपर गुज़र फर्माते हैं, ऐसे संयमीकी सहायता करना आवश्यक है । भांजी भातमें २०००) रु० की कसर रह गई है, ऐसे कारे सवाबमें मदद करना अखलाक़ी फर्ज़ है । अफीम खानेको पैसे नहीं रहे हैं, अफीम न मिली तो विचारा जम्हायाँ लेते-लेते मर जायगा, इन्सानी जान बचाना निहायत जरूरी है । ऐसे दुखद प्रसङ्गों पर बड़ी विचित्र परिस्थिति होती है । नासकर उस अवसरपर जबकि आप खुद सही मायनों में इम्दाद के मुस्तहक़ हैं, मगर अपनी वजहदारी की वजहसे आप किसीपर भी यह राज जाहिर नहीं करना चाहते और तभी कोई आपके जाने पहचाने साहब- किसी जल्सेके लिये, चौबेको भरपेट लाडू खिलाने के लिये, किसी साधुके मन्दिर का कुत्रा बनवाने की हठ करनेके लिये, चिड़ीमार के चंगुल से तोते छुड़ाने के लिये, मुहल्ले में साँग करनेके लिये, कलकत्ते बम्बई में चलने वाली मजदूर हड़तालके लिये, देवीका परसाद बाँटनेके लिये, क़साईके हाथ से लङ्गड़ी गाय छुड़ाने के लिये - चन्दा माँगने आजाते हैं । तब कैसी दयनीय परिस्थिति होजाती है, ना करने की हिम्मत नहीं; देने को कानी कौड़ी नहीं । कभी दिल चाहता है दीवार से टकराकर अपना सर फोड़लें, कभी जी चाहता है इन माँगनेवालोंपर टूट
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अनेकान्त
[ वर्ष ९.
पड़ें और जो ये लाये हैं, उसे छीनकर अपना काम चलाएँ। मगर कुछ नहीं बनता और एक निरीह खुदग़रज, अहङ्कारी, रूक्षस्वभावी न जाने क्या-क्या लोगोंकी नज़रोंमें बनकर रहजाते हैं । कुछ आप बीती अर्ज करता हूं:
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सन् ३२की दिवाली आई और चली गई, न हमारे घर में चराग़ न मिठाई आई । इस बात से हमारे चेहरेपर शिकन आई न दिलमें कोई मलाल, बल्कि हक़ीक़ी मायनों में हमें अपनी इस बेबसीपर नाज़ था । क्योंकि यह मुसीबत देवकी तरकसे नहीं हमने खुद ही बुलाई थी । दीवालीसे दो-तीन रोज बाद माँने कहा- बेटा ! मुझे तुझसे कहना याद नहीं रहा, एक आदमी १०-१२ चक्कर लगा चुका है, न नाम बताता है न काम, न तेरे मिलने के वक्तपर आता है, यूं कई चक्कर काट चुका ।" माँ अपनी बात पूरी भी न कर पाई थी कि बोली - "देख, वही शायद फिर आवाज दे रहा है ।"
बाहर आकर उनका परिचय पूछूं कि वे स्वयं ही बोले -
"आप ही गोयलीयजी हैं।"
"जी, मुझ खाकसारको गोयलीय कहते हैं ।" "वाह, साहब आप भी खूब हैं; पचासों चक्कर लगा डाले तब आप मिले हैं।"
मैं हैरान कि नामाखाँ झाड़ पिलाने वाले यह साहब आखिर हैं कौन ? पुलिस वाले यह हो नहीं सकते, उनकी इतनी हिम्मत भी नहीं कि इस तरह पेश आएँ, कोई कर्ज माँगने वाला भी नहीं हो सकता क्योंकि यहाँ यह आलम रहा है कि
घरमें भूका पड़ रहे दस फाके होजाएँ । तुलसी भैया बन्धुके कभी न माँगन जाएँ ॥ जब बाबा तुलसीभैया बन्धुसे माँगना वर्जित कर गये हैं, तब ग़ैरोंसे उधार माँगनेकी तो मैं बेवकूकी करता ही क्यों ? फिर भी मैंने बड़ी आजिज़ोसे न मिलने का अफसोस जाहिर करते हुए उनसे ग़रीब
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